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और मेरी पहली गिरफ्तारी…

Anita Gautam for BeyondHeadlines

भारत देश का स्वर्ग कहा जाने वाला विस्तृत कश्मीर, सिर उठा देख विशालकाय पर्वत बर्फ की सफेद चादर ओढ़े नज़र आते हैं. सदियों से उन पहाड़ों की बर्फ पिघल कर अगले मौसम में फिर बिछ जाती हैं, पर जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा है या नहीं विवाद समाप्त होने का नाम नहीं लेता…

विभाजन के बाद एक से सटी दूसरी गलियां दो अलग देशों में बदल गए… उन झुके कंधों का क्या कसूर जो बुढ़ापे में अपने बच्चों के कंधों पर लदे ऊपर वाले के पास जाने वाली आयु में यह सोच कर चौंधियाती आंखों से घर की तलाश में निकले, अब इस सोच में परेशान हैं कि किस मुल्क जाएं? तो वहीं कैंप की उन शरणार्थी लड़कियों का क्या कसूर जो अपने शरीर को दुप्पटे की आड़ में ढ़कने के बाद भी अपनी आबरू को न बचा पाई…

ऐसी तमाम बातें जो सदियों से मन में दबाए पीढ़ी दर पीढ़ी बरदाश्त करते आए लोग… अपने मूल अधिकारों को पाना तो दूर अब तक वहां के शैक्षणिक स्थानों तक में दाखिला नहीं ले पाए हैं… स्कूल, कॉलेज, दफ्तर किसी भी जगह इन लोगों की भर्ती नहीं, अपनी बात रखने पर एके-47 से सीधे दाग दिये जाने वाले लाल चौक से निकल आज दिल्ली के उसी इंडिया गेट पर हाथों में मोमबत्ती थामे अभी मुंह खोलने को तैयार ही थें कि पुलिस ने आकर ठीक वैसे ही हमला किया जैसा कि पिछले साल दामिनी को न्याय दिलाने पर आवाज़ बुलंद करने वालों के साथ…

मजे की बात है कि मेरे शहर की दिल्ली पुलिस किसी मुश्किल में फंसने पर कॉल करने के बाद भी कभी नहीं आती… पर जब हम न्याय की शांतिपूर्ण तरीके से बात करते हैं तो ताबड़तोड़ लंबी-लंबी बसों सहित प्रदर्शनकारियों को ढोने वाली गाडि़यां, लाठीयां थामे मिनट से पहले आ खड़ी होते हैं…

मानवाधिकार के नाम 2013… कल की शाम हमने इंडिया गेट पर फिर एक कहानी दोहराने की हिम्मत की और मुद्दा सरकार से कश्मीर के लोगों को नागरिकता का अधिकार दिलाना था. दिसंबर की ठंड में हाथों में झण्डे और मोमबत्ती थामे 150 से अधिक जम्मू-कश्मीर और दिल्ली से आए वरिष्ठ नागरिकों सहित कई महिलाएं… स्मृति ईरानी और हम, हां ‘हम’ मतलब मैं भी… क्योंकि मैं कल पहली बार मोमबत्ती थामे दफ्तर से सीधे ही इंडिया गेट पहुंची थी.

जोश से भरपूर अभी एक क़दम बढ़ाया ही था कि दिल्ली पुलिस की महिला और पुरूषकर्मी लाठी लिए चारों तरफ से घेर खड़े हो गए. आखिर हमारा क़सूर क्या है? ये तो इंडिया गेट है. आज मानवाधिकार दिवस है और हम यहां शांतिपूर्ण व लोकतांत्रिक तरीके से प्रदर्शन कर रहे हैं… फिर आपको क्या समस्या है? लोगों ने पुलिस वालो से कहा.

अरे यहां से भागो रे… जंतर मंतर जाओ… तिलकब्रिज थाने में बंद करने की धमकी देते हुए एसएचओ महोदय एकाएक प्रकट हुए और बाकि पुलिस वाले हम लोगों के हाथों से मोमबत्तियां छीनने लगे. मुझे एकाएक हंसी आई… ‘गधे कहीं के मोमबत्ती छिन रहे हैं’… फुंक मार के भी तो बुझा सकते थे. ओह रिश्वतखोर हैं न… इसलिए हमारी मोमबत्तियां छिन कर ले रहे हैं. मैं मन ही मन खुद से बातें करने लगी.

स्मृति अभी कुछ बोलती… पुलिस वालों ने गाड़ी में लोगों को धक्का मार वैन में भरना शुरू किया तो हमारी आवाज़ को बुलंद करने के लिए और ताक़त मिल गई. मुझे लगा अफरातफरी होगी पर प्रदर्शनकारियों की अपेक्षा पुलिस ने ज्यादा हंगामा मचा रखा था. मैं भी सोच में पड़ गई कि मैं अब क्या करूं, क्योंकि मेरे अलग-बगल की एक दो लड़कियों सहित पुरूष भी वहां से मिनट के पहले ही रफुचक्कर हो चले थे. पुरूषों को पुलिस वैन में गधे-घोड़े की तरह ठुंसते हुए महिला पुलिस का डंडा हमारी ओर भी चला… तो एक पुलिस वाली इज्ज़त के साथ आकर बोली, चलो मैडम गाड़ी में बैठो, गाड़ी में अरे, मैं…मैं तो…

पर स्मृतिईरानी जो कि बीजेपी की एक नेता हैं और बहुचर्चित धारावाहिक ‘क्योंकि सास भी कभी बहु थी’ की वो तुलसी… वो जो तब से लेकर बस तक लोगों में दिलों में बस चुकी है, वैन की तरफ क़दम बढ़ाने लगीं और न जाने कैसे उनके साथ मेरे पांव बस की सीढि़यों की ओर बढ़ने लगे…

मुझे एक मौका मिला था. मैं चाहती तो भाग सकती थी. पर मैं अब स्मृति जी के साथ बस में जो होगा देखा जाएगा… सोच कर बैठ गई. आखिरकार ये लड़ाई मेरी नहीं मेरे देश की थी… इंडिया गेट से सड़के नापते हुए मेरे साथी मैं और मेरा फोन… मैं फटाफट अपने विभिन्न शहरों में बैठे मित्रों को फोन कर हड़बड़ी में सारा वाकया बताने लगी तभी दूसरी काल पर मेरे काफी सिनीयर, सहयोगी फोन कर माहौल जानने लगे तो बताते हुए, जिस प्रकार किसी मीटिंग के स्थान सहित खत्म होने का समय जानना हमारे लिए ज़रूरी होता है…

मैं भी पूछने लगी हम कौन से थाने जा रहे हैं? और घर कब तक वापिस जाएंगे? दूसरी ओर से उत्तर मिला… ‘तिलकब्रिज थाने और कल दोपहर बाद तक सबकी ज़मानत हो जाएगी.’

कल! मतलब आज रात थाने में… मेरे पसीने छूट गए… इसलिए नहीं कि मैं डर गई गई थी. पर डर इस बात का था कि घर से बिना बताए आई थी. मैंने तुरंत मां को फोन पर बोला- हम इंडिया गेट पर प्रदर्शन कर रहे थे… पुलिस पकड़कर बस से थाने ले जा रही है. मैं ठीक हूं और अब तक पुलिस की लाठी नहीं खाई है. आप चिंता मत करना….

मां ने ऐसा जवाब दिया जिसकी मुझे कल्पना नहीं थी- कोई बात नहीं… तुम चिंता मत करना जब भी हो. सबके साथ ध्यान से घर आना… इतना सुनते ही मैंने फोन काट दिया… तभी साथ बैठी स्मृति जी मुझे आश्वस्त करते हुए बोली अरे चिंता मत करो… हम थाने नहीं जाएंगे… मैं किसी से बात करती हूं और फोनियाने लगीं… फोन रखते ही कान में बोलीं, मैंने एसएचओ से बात कर ली है. ये लोग हम सबको जंतर-मंतर की ओर ले जा रहे हैं. पीछे गाड़ी में जो हैं उन्हें भी सूचित करवाओ और तुम सभी लोगों को शांत करवाओ कि हम वहां शांतिप्रिय ढंग से प्रदर्शन करने वाले हैं…

मैंने ठीक वैसा ही किया और अपनी बातों मे लगे तो एक बुजुर्ग बोले. कश्मीर में आतंकवादी की गोली से बच गए तो पुलिस प्रदर्शन करने को थाने नहीं गाड़ी में बैठा दूर जंगलों में छोड़ आती है. पर यहां थाने ले जाती है…

नारेबाजी करते हुए पुलिस की चेतावनी के साथ बाईज्ज़त हम जंतर-मंतर पहुंच गए… वही जंतर-मंतर जहां न जाने कितने न्यायों की मांग करने वाली असंख्य मोमबत्तियां जलकर पिघल गई हैं, पर शायद ही वो बुझी लौ किसी के जीवन को प्रकाशमय कर गई हो…

खैर, गाड़ी से उतर हम सबने इतनी चिल्ला-चिल्ली की कि आवाज़ भी थक-हार कर संसद की चौखट पर पहुंच ही होगी, पर ससंदीय सत्र में चल रहे किसकी सरकार बने, के शोरगुल में कहां खो गई. किसी थाने में उसकी शिकायत दर्ज नहीं…

अरे ये क्या आज तो घड़ी भी तेज़ रफ्तार चलते हुए 6 से 9 बजाने लगी… लोगों के मन का रोष तो स्मृति जी का भाषण लोगों में उत्साह संचित करने लगा. आजू-बाजू धरने पर बैठे लोग भी आ खड़े हुए और हमारी बातों को सुनने लगे… पूरा का पूरा नजारा 3 घंटे की सुपरहीट फिल्म से कम नहीं थी और मेरा पुलिस के समक्ष गिरफ्तारी का पहला अनुभव मन में लिये खडी ही थी कि स्मृति जी कंधे पर मजे से हाथ रख, मुझे सुरक्षित पहुंचाने का बस में किये अपने वायदे को निभाते हुए मुस्कुरा अपनी गाड़ी की ओर बढ़ गईं.

मैं अपने सहयोगियों के साथ जंतर-मंतर से पालिका बस स्टैंड तक पद यात्रा करते हुए हल्के धुध में खाली सड़कों और प्रदर्शन करने वाले अन्ना के खाली मंच सहित सजे और मंचों व काले-पीले-लाल बैनरों को पढ़ते आगे बढ़ने लगी…

अपने पर्स में पुलिस द्वारा छिने जाने पर छुपाई दो मोमबत्तियों सहित मेरी पहली गिरफ्तारी की ये यादें हमेशा-हमेशा के लिए साथ पर्स में कैद में होगी… पर ये लड़ाई यहीं नहीं थमेगी… कश्मीर के लोगों के न्याय के लिए अब हम फिर अगले साल तक के मानवाधिकार दिवस का इंतजार नहीं करने वाले…

 

थामे मशाल चल पड़े हैं कि ये तो बस शुरूआत है,

मेरे कश्मीर मेरे वतन के वास्ते, मां भारती सब तुझपे निसार जान है…

धधक रही है अग्नि मन की, वो मशाल अब तैयार है

मां भारती तुझपे मेरी जान निसार है…

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