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ईरान के साथ समझौता : ओबामा की कूटनीतिक जीत या ईरान की मजबूरी..?

Irshad Ali for BeyondHeadlines

द्वितीय विश्व युद्ध शायद कभी न होता, यदि वर्साय की अपमानजनक संधि जर्मनी द्वितीय पर न थोपी जाती. उस वक्त जर्मनी की मजबूरी थी इसलिए उसे वर्साय की संधि (1919) झेलनी पड़ी, लेकिन जर्मनी अपने पुराने गौरव को पुनः प्राप्त करना चाहता था, इसलिए हिटलर ने 1933 में चांसलर (प्रधानमंत्री) बनने के बाद अपनी शक्ति बढ़ायी और उसी अपमान का बदला लेने के लिए 1 सितंबर 1939 में पौलेंड पर आक्रमण के साथ द्वितीय विश्व युद्ध को शुरु कर दिया. ऐसे ही मजबूर अब ईरान दिखाई दे रहा है क्योंकि ईरान आर्थिक रुप से टूट चुका है.

संयुक्त अरब अमीरात से ज्यादा तेल संपदा होने के बाद भी करीब 70 फीसदी ईरानी लोग गरीबों में जीवन जीने को मजबूर हैं. ईरान का विकास पूरी तरह रुक गया है. ईरान को अपने तेल की कीमत भी अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में तय कीमत से काफी कम मिलती है क्योंकि ईरान पर अमेरिका और पश्चिमी देशों के विभिन्न आर्थिक-व्यापारिक प्रतिबंध लगा रखे हैं.

यूरोपियन यूनियन ने 23 जनवरी 2012 को ईरान के तेल आयात पर प्रतिबंध लगाया था जिसके बाद यूरोपीय देशों ने ईरान से तेल लेना बंद कर दिया. 24 फरवरी 2012 को भारत ने भी अमेरिकी दबाब में ईरान से कच्चे तेल की आपूर्ति से निर्भरता कम करने की कवायद शुरु कर दी थी.

सोसायटी फॉर वल्डवाईड इन्टर बैंक फाईनेंशियल टेलीकम्यूनिकेशन यानि ‘स्विफ्ट’ ने 17 मार्च 2012 को ईरान के प्रतिबंधित बैंकों को अपनी प्रणाली से अलग कर दिया. इससे ईरान दुनिया के वित्तीय लेन-देन से कट गया और विदेशों में काम करने वाले ईरानी अपने देश में धन नहीं भेज सकें. ये सभी प्रतिबंध ईरान पर इसलिए लगाये गये थे क्योंकि अमेरिका और उसके सहयोगी राष्ट्र मानते हैं कि ईरान परमाणु बम बना रहा है.

इन सभी प्रतिबंधों के कारण ईरान आर्थिक रुप से टूट चुका है. इसलिए वह नवंबर 2013 में अमेरिका के साथ अपने विवादित परमाणु कार्यक्रम को बंद करने के लिए समझौता करने को मजबूर हुआ. ईरान के कटटर विरोधी इजरायल के प्रधानमंत्री ने इस समझौते को इतिहास की भूल कहा है.

इज़रायल चाहता है कि ईरान के साथ कोई समझौता नहीं किया जाए, बल्कि उस पर और भी कठोर आर्थिक प्रतिबंध लगाया जाए. इजरायल स्पष्ट रुप से कहता है कि ईरान परमाणु बम बना रहा है जबकि इजरायल की ही खुफिया एजेंसी ‘मौसाद’ ने 18 मार्च 2012 में कहा था कि ईरान परमाणु हथियार नहीं बना रहा है.

नवंबर 2013 में ईरान और अमेरिका के बीच हुआ समझौता 20 जनवरी 2014 से लागू हो गया. इसके तहत अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) ईरान के परमाणु संयंत्रों की निगरानी करेगी. अब ईरान के उपर लगे प्रतिबंधों से ढील हो जाएगी. इस दिशा में क़दम ईरान के नये राष्ट्रपति हसन रुहानी की ओर से बढ़ाए गये.

रुहानी को उदारवादी समझा जाता है. साथ ही 30 साल बाद (1979 में ईरान में इस्लामी क्रांति) ईरान व अमेरिका बातचीत की मेज पर आये हैं. इसे ओबामा की कूटनीतिक जीत कहा जाए या ईरान की मजबूरी?

वैसे यह ओबामा की कूटनीतिक जीत के बजाय ईरान की मजबूरी ज्यादा प्रतीत होती है. ईरान आज एक-एक पैसे को मजबूर है. इसलिए ही ईरान ने दावोस में चल रही विश्व आर्थिक फोरम (डब्यूईएफ) की बैठक में कहा कि उसे परमाणु हथियार नहीं निवेशक चाहिए. ईरान के राष्ट्रपति ने कहा कि तेहरान के दरवाजे ग्लोबल निवेशकों के लिए खुले हैं. हम पश्चिमी देशों समेत पूरी दुनिया से अपने रिश्ते सामान्य करना चाहते हैं.

ईरान में निवेशकों को आकर्षित करने की छटपटाहट निराधार नहीं है बल्कि यह उसकी आंतरिक बदहाली की ओर इशारा करती है . 19वीं शताब्दी के मध्य-पूर्व एशिया में ईरान सबसे चमकदार देश था. जहां का कालीन उदधोग अपने सबाब पर था. जिसकी वास्तुकला का प्रभाव भारत में मुगलकालीन इमारतों में देखी जा सकती है. आज वही ईरान गैस और तेल संपदा से भरा होने तथा कला-कौशल में निपुण होने के बाद भी अफ्रीकी देशों की तरह गरीबी और बदहाली में जी रहा है.

शायद इसलिए ही हसन रुहानी ने दावोस में विश्व आर्थिक फोरम के मंच से कहा कि हम अपने सभी पड़ोसी देशों के साथ बेहतर संबंध बनाएंगे. हम अपने तेल व गैस का इस्तेमाल सभी के विकास में करेंगें. उन्होंनें दावोस में डबल्यूईएफ की बैठक में भाग लेने आये देशों से अपील की कि वे ईरान आकर निवेश की संभावना तलाशें.

क्या इससे ईरान की पुनः अपने गौरव को वापिस पाने और तीव्र विकास करने की इच्छा नहीं दिखती? निश्चित रुप से अब ईरान शीघ्र ही बदहाली से बाहर आ जाना चाहता है. इसलिए ईरानी राष्ट्रपति ने विश्व आर्थिक फोरम के मंच से कहा कि ईरान कभी परमाणु बम बनाना नहीं चाहता था. और न ही हम भविष्य के लिए ऐसी कोई चाहत रखते. मगर ऊर्जा क्षेत्र में परमाणु तकनीक के इस्तेमाल की चाहत हम नहीं छोड़ेगें.

ईरान की वर्तमान कार्यवाहियों से यही लगता है कि आर्थिक बदहाली से बाहर आना ईरान की मुख्य प्राथमिकता है लेकिन ईरान को स्वीकार कराया गया प्राथमिक समझौता उतनी ही गलत है जितनी कि वर्यास की संधि थी. क्योंकि जो देश ईरान के परमाणु बम कार्यक्रम को गलत मानते हैं वे खुद परमाणु बम के जख़ीरे पर बैठते हैं. यूएन सुरक्षा परिषद की पांचों महाशक्तियों के पास परमाणु हथियार है जिनमें अमेरिका के पास सर्वाधिक (14000), रुस (12000), चीन (500) तथा इजरायल के पास 100 से अधिक परमाणु बम होने की ख़बरें भी अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में आयी है, मगर वह इस बारे में कभी आधिकारिक रुप से नहीं बोला है. ऐसे में सवाल उठता है कि इन देशों के परमाणु हथियार क्या वैश्विक सुरक्षा के लिए खतरा नहीं है.?

अमेरिका तो खुद एकमात्र परमाणु अपराधी है जिसने 6 अगस्त 1945 (नागासाकी) और 9 अगस्त 1945 (हिरोशिमा) को अणु बम गिराये थे. स्वंय हथियारों के जख़ीरे पर बैठने वाले और दुनिया के हथियार निर्यात करने वाले दैश कैसे दुनिया की सुरक्षा के लिए खतरा  नहीं हो सकते.?  जबकि ईरान जैसा मामूली देश वैश्विक सुरक्षा को खतरे में डाल सकता है.

अजीब विरोधाभाष है विकसित देशों की तार्किक बुद्धि और व्यवहारिक कार्यवाहियों में, जो अपने लिए तो कोई मानक तय नहीं करते लेकिन दूसरे देशों के नीति निर्धारक बनने की चाहत रखते हैं. परमाणु अप्रसार संधि (NPT) 1968 भी विकसित देशों की इसी मानसिकता की प्रतीक है.

कोई भी गौरवशाली देश अपने गौरव का पतन नहीं देख सकता है. जैसे जर्मनी, जापान अपने पतन के बाद पुनः अपने सम्मान को हासिल करने में कामयाब हो गये वैसे ही ईरान भी अपने गौरव को पुनः प्राप्त करेगा.

(लेखन इन दिनों प्रशासनिक सेवा की तैयारी कर रहे हैं. उनसे  trustirshadali@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.)

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