जब मीडिया में हिंदुस्तान और पाकिस्तान की बात आती है तो उसमें सीमा पर संघर्ष विराम का उल्लंघन का जिक्र होता है, या अंतर्राष्ट्रीय अदालत के द्वारा किशनगंगा जल विवाद में कोर्ट के ज़रिए हिन्दुस्तान के पक्ष में दिए गए फैसले की… इन सभी ख़बरों से एक नकारात्मक सोच दोनों देशों के आवाम के ज़ेहन में बन रही होती है.
ऐसे में भारत और पाकिस्तान के रिश्ते राजनैतिक स्तर पर बहुत उलझते हुए प्रतीत होते हैं. इन सबके बीच सांस्कृतिक स्तर पर संगीत के दरिया में प्रेम की डूबकी लगवाने के लिए दोनों मुल्क़ के कलाकार एक मंच पर एकत्रित हो रहे हैं .
मौका होगा हज़रत अमिर ख़ुसरो के याद में आयोजित होने वाले कार्यक्रम “ ख़ुसरो दरिया प्रेम का ”. 19 जनवरी 2014 को हिन्दुस्तान की राजधानी दिल्ली के सिरीफोर्ट ऑडिटोरियम में होने वाले इस संगीतमय कार्यक्रम में पाकिस्तान से लीजेंड नुसरत फतेह अली खान की शागिर्दी प्राप्त फैज़ अली फैज़ होगें. तो हिन्दुस्तान से 750 सालों से सूफी संगीत में एक मकाम रखने वाले निज़ामी घराने से हमशर हयात निज़ामी… जो सूफियाना साईं दरबार के लिए पूरे हिंदुस्तान में विख़्यात हैं.
पाकिस्तानी कव्वाल गायक फैज़ अली फैज़ से BeyondHeadlines के लिए आरजू सिद्दिकी से बातचीत है. पेश है फैज़ अली फैज़ से बातचीत का प्रमुख अंश:
आरज़ू… देश व तमाम दुनिया के स्टेज पर श्रोताओं के समक्ष अपने फन का मुज़ाहिरा करने का अनुभव आपको रहा है, लेकिन हिंदुस्तानी श्रोताओं के सामने पहली बार परफॉर्म करने जा रहे हैं, ऐसे में भारतीय श्रोताओं का दिल जीत लेने का कितना दबाव आप महसूस करते हैं ?
फैज़ अली फैज़…. कव्वाली फिल्ड में तक़रीबन ये मेरा शौक़ भी था और इश्क़ भी था, कि मेरा हिन्दुस्तान में भी मेरे कव्वाली का एक प्रोग्राम हो. खुदा ने ये ख्वाहिश बहुत जल्दी पुरी कर दी. हिन्दुस्तानी दर्शकों सामने गाने को मैं अपने उपर दबाव नहीं समझ रहा हूँ और मैं अपने पूरी मेहनत और तैयारी के साथ मुल्क-ए-हिंदुस्तान में हाज़री दूगां. मैं यहाँ अपने इश्क के साथ आर हा हूँ, और मुझे पूरी उम्मीद हिन्दुस्तानी अवाम का दिल मैं ज़रूर ही जीत लूंगा.
आरज़ू…. जैसा कि ज़ाहिर है हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के आपसी रिश्ते अपने सबसे खराब दौर में है, ऐसे में हिन्दुस्तान में इस तरह के कार्यक्रम में शिरकत करने के आपके फैसले को वहाँ के राजनैतिक और समाजिक हल्कों में किस तरह से देखा जा रहा है?
फैज़ अली फैज़…. देखिये बातें करें तो बहुत सी बाते हो जाती हैं. लेकिन मेरा अपना जो अंदाज है वो एक फकीरी और सुफियाना सिफाक़त है. इसमें आप या हम एक दूसरे के मुल्क की सियासत की बात को लेकर नहीं चलते और ना हम समझते हैं.
आरज़ू…. पाकिस्तानी मीडिया का एक हल्का या वहां के कुछ चरमपंथी गुट जो हमेशा हिन्दुस्तान और इसके तहज़ीब को प्रतिबंधित करते रहे हैं और दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक और राजनैतिक पुल बनने की क़यावाद को ख़ाक करना चाहते हैं. ऐसे में इस प्रोग्राम के मुत्तल्लिक वहां की मीडिया में क्या रुख है ?
फैज़ अली फैज़…. देखिए! जहां तक मेरी सोच है, तो मैं यह समझता हूँ कि एक दूसरे के रिश्ते को अच्छा बनाना चाहिए और ये जो कला की दुनिया है इसे एक दूसरे के साथ साझा करना चाहिए. हमारी जो तहज़ीब है, वह सियासत से हट कर है. तो हम ये चाहते हैं कि जो एक मौशिकी का तहज़ीब होता है. ये किसी भी हुकुमत का मोहताज़ नहीं होता. ठीक है आप हिंदुस्तान से हैं और हम पाकिस्तान के रहने वाले हैं. और जहां तक हमारी मौशिकी का ताल्लूक है तो ये अंतरराष्ट्रीय है. पूरी दुनिया के लिए है. हमें पाकिस्तानी हुकुमत और मीडिया से इस कार्यक्रम के शिरकत के मद्देनज़र कोई परेशानी नहीं है.
आरज़ू…. जब हिंदुस्तान और पाकिस्तान की बात होती है तो एक स्वाभाविक प्रतिद्वंदता का माहौल बन जाता है, चाहे वो एक दोस्ताना क्रिकेट मैच ही क्यों ना हो, हार और जीत को दोनों तरफ की अवाम के लिए भावनाओं का उबाल ले आती है. दोनों देश के सियासतदां भी इसे काफी गंभीरता से लेते हैं. जब आप अपने हमनशीर कलाकार हमशर हयात निज़ामी के साथ मंच पर होगें तो क्या दर्शक यहां भी उसी तरह की मुकाबले की उम्मीद कर सकते है ?
फैज़ अली फैज…. अल्महदुलिल्लाह! मैं कव्वाली में किसी के भी साथ मुकाबला नहीं करता और ना ही करना चाहता हूँ. क्योंकि हमारी ये सिफाक़त एक सुफियाना है और सुफियाने बुज़र्गान-ए-दिन का जो भी तहज़ीब है, उसमें कोई मुकाबला नहीं होता. बाकी चीजों में मुकाबला हो, लेकिन मौशिकी में मुकाबला नहीं होनी चाहिए. अपने इश्क़ और मेहनत के साथ मेरी कोशिश और दिली ख्वाहिश रहेगी कि हिन्दुस्तानी दर्शकों के सामने अपना बेहतरीन नज़राना दूँ.
आरज़ू…. हिन्दुस्तान और पाकिस्तान को बाँटने वाली इंसानी सरहद ने कला के इस खुबसुरत रुप को किस तरह से प्रभावित किया है? क्या आप मानते हैं कि सरहद पार राजनीति गतिवीधियों के अनुरुप सांस्कृतिक गतिवीधियों का भी परिचालन होना चाहिए.
फैज़ अली फैज़…. मैं तो यही कहुँगा कि इनके लिए सख्तियाँ नहीं होनी चाहिए. ये मौशिकी की कला एक हवा की तरह है. और ये किसी भी सरहद को नहीं मानती, इसी तरह से कला को भी सरहदों के आड़ में नहीं बाँधना चाहिए. ये दुनिया में सद्भावना और भाईचारा पैदा करती है.
आरज़ू…. आप अपने हिन्दुस्तानी श्रोताओं के लिए क्या संदेश देना चाहेगें?
फैज़ अली फैज़…. मेरी दुआ है कि इस कायनात में मालिक आपस में अमन, मोहब्बत और इश्क कायम करे. एक दुसरे के इंसानियत को समझने की कुवत अदा करे. जो सबसे बेहतर फिरक़ा है वो इंसान ही है तो इंसान ही एक दुसरे इंसान के काम आता है. मैं परवरदिगार से दुआ करता हूँ कि वो अमन व सुकून के साथ सबको सलामत रखे. मैं अपने हिंदुस्तानी श्रोताओं से ये इल्तिज़ा करुंगा कि वो 19 जनवरी “ ख़ुसरो दरिया प्रेम का ” में शामिल होकर हमारा हौसला अफज़ाई करें.
इसके साथ ही BeyondHeadlines के लिए आरजू सिद्दिकी ने हमशार हयात निज़ामी से भी बातचीत की. पेश है उनसे बातचीत का प्रमुख अंश:
आरज़ू….. ऐसा कौन सा प्रेरणा रही होगी आपके इस कार्यक्रम को आयोजित करने एवं उसमें शिरकत करने की.
हमशार हयात निज़ामी…. देखिये प्रेरणा की बात यह है कि हम वही चीज़ कर रहे हैं, जो सूफी संतो ने फरमाया है कि सबको अपने साथ लेके चलो. प्रत्येक मज़हब या धर्म के साथ ईमान और ईमानदारी के साथ पेश आओ. प्रत्येक धर्म के साथ उसके कर्म की बात करो, क्योंकि कर्म ही सभी का मूल है. अगर आप अच्छे कर्म करते हैं तो उसका कर्म आप पर ज़रुर होगा. अगर आप अच्छी नियत से किसी की मदद करते हैं तो आपकी पूज़ा भी कबूल होगी. इसी तरह से मेरे गाने का जो मक़सद है वो एक चली आ रही महान विरासत को आगे बढ़ाना जिस तरह से साईं बाबा, हजरत बुल्लेशाह या हज़रत आमिर ख़ुसरो और जितने भी सूफी संत हैं जिन्होनें सूफी कलाम को लोगों तक अपने ज़रीए पहुँचाया अपने-अपने नज़रीये से, कुछ लोगों ने भजन से गाया तो कुछ ने कव्वाली गायी. पहले हम बचपने में सुनते थे कि संगीत ऐसी चीज़ है जिससे लोग अपने रुह में झाँक सकते हैं. पुराने समय में रुहानी ईलाज के लिए लोग डॉक्टर पर कम और संगीत पर ज़्याद यक़ीन करते थे. तो संगीत एक ऐसी चीज़ है जिससे हर रुहनी बीमारी का इलाज हो सकता है.
मेरा जो इसमें दिलचस्पी है वो जो हमारे बुजुर्गों ने हमारे संतो, सूफियों ने हमें तालीम दी कि उसका इस्तेमाल लोगों को अपने रुह को टटोलने का मौका देना है.
आरज़ू…. “ हिंदुस्तान और पाकिस्तान इधर भी तान और उधर भी तान ” इस तान की जंग में क्या हम सियासी मोहब्बत की भी उम्मीद कर सकते हैं ?
हमशार हयात निज़ामी…. देखिए एक होता है सियासी और एक होता है सियाह… उर्दू में सियाह कहते हैं काले को, जिसे आज के दौर में सियासत भी कहा जा सकता है, जो लोगों में कालिख पैदा करता है. सियासत और सियासी और सियाह में बड़ा फर्क है. लफ्ज़ो की तर्जुमानी है. लफ्ज़ों की अदायगी है. अगर हम साहिल को शाहिल कहते हैं तो मायने बदल जाते हैं .
“ख़ुसरो दरिया प्रेम का ” के आयोजन का विचार हमारा नहीं है, ये उस परवरदिगार, परमात्मा का है, जिसने उनके ज़रीए ये वो क़लाम कहलवायी जिसको याद करने के लिए इस कार्यक्रम का आजोजन किया जा रहा है. आज पॉप संगीत की संमुद्र में हम सब तैर रहें हैं, लेकिन हमारी रुह की सच्ची प्यास तो सूफी संगीत रुपी दरिया के पानी से ही बुझता है. इसिलिए “ ख़ुसरो दरिया प्रेम का ” क्योंकि जो प्रेम है वो सब के लिए है. वो सभी के लिए बराबर है. चाहें आप उसे मोहब्बत का नाम दें या इबादत या तरिकत कहें ये तो प्रेम का दरिया है, इसमें तान तो सिर्फ और सिर्फ मोहब्बत की हो सकती है, संगीत की तान हो सकती है लेकिन नफरत-ए-जंग की तान के लिए यहाँ कोई जगह नहीं है.
दोनो देशों के संबंधो के सवाल पर मेरा यह मानना है कि हम बहुत सारे लोग टिप्पणी करते हैं, पर हम अपने शेरों के ज़रीए बोलते हैं. बात रही पाकिस्तान और हिंदुस्तान की, तो मैंने अभी एक जगह इस बात का जिक्र भी किया था कि “अगर वो पाकिस्तान है ये हिंदुस्तान है तो इधर भी तान और उधर भी तान है.” सुर और हवा को और इंसान की सोच को आप कैद नहीं कर सकते हैं. सरहदें आपको नहीं रोक सकती है.
मैं देखता हूँ कि अक्सर लोग मंदिरों में हाथ फैला कर प्रर्थना करते हैं, तो कोई मस्जिदों में जाता है. हाथ फैला कर दुआ मांगने के वास्ते. मेरा एक शेर है जो में अक्सर साईं दरबार और दरगाह में सुनाता हूँ कि “सज़्दे से हमको मतलब है और पूजा से है काम, हाथ बंधे तो अल्लाह-अल्लाह और हाथ खुले तो राम-राम ”
आरज़ू…. हज़रत अमिर ख़ुसरो एक सर्वकालिक व्यक्तित्व हैं. उनके नाम से पूरे साल कहीं ना कहीं कार्यक्रम का आयोजन हो रहा होता है. “ ख़ुसरो दरिया प्रेम का ” उनसे कितना अलग है?
हमशार हयात निज़ामी…. उनसे अलग नहीं है. 19 जनवरी को सिरीफोर्ट ऑडीटोरियम में आयोजित होने जा रहा सूफी संगीत का यह कार्यक्रम “ख़ुसरो दरिया प्रेम का” का आयोजन के पीछे मेरा मक़सद किसी होड़ में शामिल नहीं होना है. यहां किसी तरह की कोई मुकाबला नहीं है. ख़ुसरो दरिया प्रेम का क्या है एक नाम है जो हककीत में प्रेम का दरिया है. हम ये नहीं कहते कि पाकिस्तान का दरिया अलग है और हिंदुस्तान का दरिया अलग है.
जिसमें डूबने के लिए हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी होने की ज़रुरत है, बस आपका अहसास इंसानी होने चाहिए. हज़रत अमिर ख़ुसरो और उनके कलाम को याद करते हुए कई कार्यक्रम का आयोजन देश भर में किया जाता है, क्योंकि वो भी हज़रत अमिर ख़ुसरो से बाबस्ता हैं जो ख़ुसरो का जश्न मनाते हैं. वो अगर अमिर ख़ुसरो का जश्न उनके दरगाह पर जा कर मना रहे हैं तो ये उनका तरीका है, और हम जो पाकिस्तानी कलाकार को ख़ुसरो के ज़मीं पर बुलाकर अमन के पैगाम के साथ मना रहे हैं, ये हमारा तरीका है. तरीका सबका अपना अलग-अलग हो सकता है, लेकिन सबका उद्देश्य एक ही और वो है हज़रत अमिर ख़ुसरो को ख़राज़-ए-अकीदत पेश करना. उनकी ख़िदमत में अपना सलाम अर्ज करना, और सभी अपना नमन समर्पित कर रहे हैं और उनके पैगाम को पूरी में दुनिया पहूँचा रहे हैं.
ख़ुसरो ने बसंत भी लिखी, हिंदी की कविता भी लिखें. आपने अवध की ज़बान भी लिखी और बृजभाषा में भी आपके कलाम मौज़ूद हैं. उन्होनें अरबी-फारसी को हिंदी में आसान अनुवाद करके लोगों तक पहुँचाया. उन्होनें अपने कलाम में ज़्यादतर आम ज़बान का इस्तेमाल किया, जो कोई रिक्शा चलाने वाला या मज़दूर को भी समझ में आ सके. “छाप तिलक सब छिन ली मौसे नैना मिलाईके, बात अधम कह दी मौसे नैना मिलाईके” पूरी दुनिया गाती है और सुनती है. उनके कलाम में जो रुहानी सिलसिला है वो बहुत मायने रखता है.
आरज़ू…. आपका परिवार और उनका परिवार लगभग 750 सौ सालों से दुनिया को एक से बढ़कर एक फनकार देता आ रहा है. लेकिन दोनों देशों के बंटवारे ने इस विरासत को आगे बढ़ाने में कितना प्रभवित किया है?
हमशार हयात निज़ामी…. मुल्क़ के सीने को चीर कर जो सरहद गढ़ी गई, जिससे मुल्क़ हिंदुस्तान और पाकिस्तान को एक इंसानी सरहद के हद से बांटा गया वो सिर्फ जिस्मानी था रुहानी नहीं. इसने इंसान को बांटा इंसान की सोच को नहीं बाँट सके. अगर कोई रुहानी सरहद होती तो हिंदुस्तान के कलाकार पाकिस्तान नहीं जा पाते और ना ही पाकिस्तान के कलाकर हिंदुस्तान आ पाते. हमें तो सरहदें भी नहीं बांट पायी है, हां! समय-समय पर कुछ लोग अपनी सियासत की रोटी सेंकने के लिए हमारे बीच नफरतों का जाल फैला कर ज़रुर बाँटना चाहते हैं.
संगीत इन सबसे परे है संगीत में कोई हार-जीत का सवाल नहीं है. संगीत तो एक साधना है, जो कोई गा रहा है और अपने तरीक़े से अपने यार को मना रहा है उसे मनाने दो. आप दूर गांव देहातों में चले जाएं तो आपको कई ‘Folk’ सिंगर गाते मिल जाएंगे. दरअसल, संगीत ऐसी चीज़ है कि आपको किसी को बुलाना है, तो आप संगीत पेश किजीए, लोग खुद बखुद खींचे चले आएंगें. बस आपके गाने में इतनी तासीर तो ज़रुर होनी चाहिए कि वो लोगों के रुह तक पहुँचे.
रही बात सरहदों के बांटने से विरासत को आगे ले जाने में होने वाली परेशानियों की तो मैं इतना ज़रुर कह सकता हूँ कि अगर ये सरहद ना होती तो हमारे कलाम की हद से पूरी दुनिया चमत्कृत होती. हां! इसने कुछ प्रभाव तो ज़रुर छोड़ा है. लेकिन हम उसी के ख़ातमे को एक क़दम आगे बढ़ाते हुए “ ख़ुसरो दरिया प्रेम का ” का आयोजन करा रहे हैं, जिसमें प्रेम के संगीत रुपी दरिया में सब को डुबाने की कोशिश की जाएगी. जहां हर कड़वाहट किनारे होगी.
पार्टीशन दो चीजों के वजह से होती है, एक तो अपनी “मैं” से तो दुसरे अपनी हुक़ुमत से… दो बिल्कुल अलग हुक़ुमत चाहती है कि मैं हुक़ुमत करुं वही पार्टीशन होता है.
देश के बंटवारे नें बहुत कुछ हमसे छीना. लेकिन अब तो हमें समझ में आ जाना चाहिए कि धर्म के नाम पर बंटवारा एक भूल थी और हम इसे सुधारने के दिशा में अपना कदम बढ़ा रहे हैं.
आरज़ू…. आप BeyondHeadlines के पाठकों के लिए क्या संदेश देना चाहेगें ?
हमशार हयात निज़ामी…. मैं इस कार्यक्रम के संबंध में यही कहना चाहूँगा कि जितने भी मेरे करम-फरमा, फैन्स हैं, और चाहने वाले हैं, चाहें वो हिंदुस्तान के या पाकिस्तान के हों, इस कार्यक्रम को अपना प्यार जरुर दें. मैं दोनों मुल्क़ में जितने भी कलाकार हैं, उन सबकी नज़र से यही कहूँगा कि आप सबके हक़ में दुआ करें कि जो भी गायक यहाँ मुझ समेत गा रहे हैं वो गाते रहें. देश के बंटवारे नें बहुत कुछ हमसे छीना, लेकिन अब तो हमें समझ में आ जाना चाहिए की धर्म के नाम पर बंटवारा एक भूल थी और हम इसे सुधारने के दिशा में अपना कदम बढ़ा रहे हैं.
“ ख़ुसरो दरिया प्रेम का ” उसमें शिरकत करें और जो लोग ना आ सकें तो तो वहाँ से बैठ कर दुआ करें कि जो सरहदों का शोर ज़ेहन में हल्की सी दबी है, उसे भगवान रब्बो करीम अपनी इख़लासे मोहब्बत से दबा दे. और सभी एक आवाज़ में कहें कि “ख़ुसरो दरिया प्रेम का जो उल्टी बाकी धार जो उभरा सो डूब गया और जो डूबा सो पार ”