मीडिया का राजनीतिक चेहरा…

Beyond Headlines
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Amit Bhaskar for BeyondHeadlines

हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या ये है कि यहां कोई भी मुद्दा बहस का विषय बनकर रह जाता है. सबके अपने विचार हैं. इनका सम्मान भी होना चाहिये, पर मैं खुद के नीजि विचारों की बात करूं तो मुझे लगता है कि अब पानी सर के उपर से बह रहा है.

ड्रग तस्कर को पकड़वाने जाओ तो उनको छोड़, आपकी भाषा और तेवर पर बहस होती है. रेप हो और दिल्ली पुलिस कुछ ना करे तो ठीक है, लेकिन दिल्ली पुलिस को सबक सिखाने के लिये मुख्यमंत्री सड़क पर बैठ जाये तो अराजकता है. लेकिन, ठाकरे जी टोल पर मार-काट करें तो कोई अराजकता नहीं है… महिला जला दी जाये तो कोई अराजकता नहीं है… रेप हो तो कोई अराजकता नहीं है…

आज की मीडिया का एक हिस्सा ना कर्तव्यों का पालन करता है ना मूल्यों का, लेकिन इसी मीडिया का दूसरा हिस्सा मेहनती है, कर्तव्यनिष्ठ है, लेकिन जब खुलासा अपनी बिरादरी के लोगों का हो तो वो ब्रेकिंग न्यूज़ नहीं बनता…

आईए बात खिड़की एक्सटेंशन वाली घटना की जाए. इस पूरे मामले में कई बार एफआईआर की गई, पर कोई कार्रवाई नहीं हुई, तब मीडिया नहीं गयी सुध लेने, पर जब खुलेआम जनता ने सोमनाथ जी के साथ जाकर रेड डाली तो उनसे उनकी प्रमाणिकता पूछी जाती है. प्रमाणिकता मांगने वाले मीडिया के वही लोग हैं, जिन्होंने आम आदमी पार्टी पर हुए झूठे स्टिंग को बिना प्रमाणिकता के चला दिया था. पर उसका प्रमाण जब दिया गया तो उसे नहीं दिखाया गया.

हो सकता है कि भाषा गलत हो… हो सकता है कि आवाज़ ऊंची हो गयी हो, लेकिन पहले ड्रग तस्करों को तो पकड़ लेते! कहते हैं कि वारंट नहीं था. 3-4 बार जनता ने जब लिखित शिकायत की थी तो फिर जनता की शिकायत पर एक्शन क्यों नहीं लिया गया? वारंट क्यों नहीं जारी हुआ?  पुलिस के नाक के नीचे ड्रग्स की तस्करी व देह व्यापार का धंधा कैसे चलता रहा? ज़रा सोचिए! क्या  बगैर पुलिस संरक्षण के ऐसे धंधे चलाए जा सकते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि इस धंधे का कुछ हिस्सा पुलिस के खाते में भी जा रहा हो?

पिछले 65 वर्षों के इतिहास में पुलिस की गुंडागर्दी को खुलेआम चुनौती पहली बार किसी सरकार द्वारा दी गई. ऐसे स्थिति में यह स्वाभाविक ही है कि पुलिस अपनी गलतियों व नाकामियों की छिपाने के लिए तरह-तरह की मनगढ़त कहानियां सुनाएगी.

इतने दिनों से जनता चुप थी. अब जनता को आवाज़ मिल गई है. इसी का नतीजा है कि जिस पुलिस को सालों से कोई अराजकता नज़र नहीं आ रही थी, लेकिन जैसे ही इन पर बन आई, उस दिन यही जनता व सरकार उनको अराजक दिखने लगी. अगर खिड़की एक्सटेंशन की बात की जाए तो आज भी वहां के लोग सोमनाथ जी के साथ हैं, पर कितने मीडिया चैनल्स जनता के इन सच्चाइयों दिखाते हैं? शायद उन्हें अपने पुराने रिपोर्ट को झुठलाने में शर्म आती है.

मीडिया का छात्र होने के नाते मैं अब तक कई ऐसी बातें पढ़ चुका हूँ, जिसे मेरा ज़मीर स्वीकार नहीं करता… जैसे “Good News is No News”… अब खुद समझ लीजिये कि मीडिया क्या है? क्यों देश में CNN नहीं है ? क्यों अलजज़ीरा नहीं है? क्यों BBC नहीं है ? हम न्यूज़ को न्यूज़ नहीं बोलते… मीडिया की भाषा में पैकेज़ बोलते हैं… प्रॉडक्ट बोलते हैं, इसलिये हम इन प्रॉडक्ट और पैकेज को बेचने वाले सेल्समैन बनते जा रहे हैं, जो रोज़ सुबह उठता है इस सोच के साथ कि आज कल से ज्यादा मुनाफा कमाना है. इस चक्कर में ख़बर वहीं की वहीं रह जाती है.

मीडिया के कई लोग कहते हैं कि दिल्ली सरकार के इस धरने में ये बदतमीजी हुई वो बदतमीजी हुई… अरे भाई तो उसे दिखाओ ना… कुछ लोग आम आदमी पार्टी को मीडिया प्रॉडक्ट मानते हैं. हो सकता है कि अरविन्द के जीतने के बाद मीडिया ने तारीफ के पुल बांधे हो. होना भी चाहिये… आखिर उगते सूरज को सब सलाम करते हैं… पर हम ये क्यूं भूल जाते हैं कि यही मीडिया थी जिसने चुनाव से पहले तमाम झूठे स्टिंग, झूठे सर्वे, झूठे आरोप आम आदमी पार्टी पर गढ़ कर उसकी छवि धूमिल करने का भरपूर प्रयास किया था. यही मीडिया चिल्लाती रही कि आम आदमी पार्टी को 2-3 सीटों से ज़्यादा नहीं मिलने वाली… अब ऐसे में आज वही मीडिया कहे कि आम आदमी पार्टी मीडिया की उपज है, तो शर्म आनी चाहिये ऐसे लोगों को!

इतना ही नहीं, मीडिया ने किस तरह से आम आदमी पार्टी को लगातार कटघरे में रखा है, उसका उद्धाहरण पिछले एक महीने के न्यूज़ रिपोर्टों में आसानी से देख सकते हैं. एक साथ पांच राज्यों में चुनाव हुए. लेकिन मीडिया केवल दिल्ली सरकार से ही पूछती रही कि आप के वायदे को क्या हुआ? जिस तरह से आम आदमी पार्टी की सरकार को घेरा जा रहा है, यदि उसी तरह बाकी राज्यों के सरकारों को भी घेरा जाता तो मीडिया पर कोई उंगली नहीं उठाता… मीडिया क्या बाकी राज्यों की बात इसलिए नहीं कर रही है कि वहां भाजपा की सरकार है. क्या इससे ज़ाहिर नहीं होता कि मीडिया भाजपा के हाथों पूरी तरह से बिक चुकी है?

यदि हमारी मीडिया आम आदमी पार्टी को कसौटी कसना चाहती है तो उसे काम करने का कुछ समय तो दे… पहली बार खुद जनता सरकार चला रही है. ऐसे में समन्वय के लिए कुछ समय की दरकार तो है ही. और ऐसा भी नहीं  है कि केजरीवाल सरकार ने कोई काम किया ही न हो. कार्य तो हो ही रहे हैं. बिजली-पानी सस्ता करने के साथ-साथ एफडीआई लागू नहीं होने दिया गया. और अब  महिला सुरक्षा, लोकपाल व पूर्ण स्वराज्य सहित कई प्रमुख बिन्दुओं पर काम चल ही रहा है… ज़रूरत है  मीडिया व दिल्ली की जनता को थोड़ा धैर्य रखने की ताकि दिल्ली सरकार के कार्यों की समीक्षा सही तरीके से हो सके…

(लेखक मीडिया छात्र हैं.)

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