Edit/Op-Ed

‘राम भरोसे’ रामपुर सीआरपीएफ कैंप मामला…

Masihuddin sanjari for BeyondHeadlines

31 दिसंबर 2007 की रात नए साल का जश्न मनाने के दौरान जवानों द्वारा शराब के नशे में आपस में चली गोलियां, जिसे छिपाने के लिए आतंकी हमला कहा गया, उस कथित सीआरपीएफ कैम्प रामपुर की घटना के छः साल बाद स्थिति में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं आया है. सिवाए इसके कि इस मुक़दमें में अदालती कार्रवाई के नाम पर कुछ तारीखें जो किसी उल्लेखनीय प्रगति के बिना गुज़र गईं.

उत्तर प्रदेश सरकार ने बिना स्पष्ट कारण बताए तथा उचित औपचारिक्ताएं पूरी किए अदालतों को मुक़दमा वापसी का पत्र लिखा और हाई कोर्ट ने उस पर रोक लगा दी. मानवाधिकार एंव सामाजिक संगठनों की तरफ से इस घटना पर प्रश्न चिन्ह लगाते हुए कई धरने एंव विरोध प्रदर्शन हुए तथा अभियुक्तों के परिजनों की तरफ़ से कई बार ज्ञापन दिया गया, बेगुनाही के तथ्य दिए गए और न्याय की गुहार लगायी गई.

इस मुक़दमें को फास्ट ट्रैक कोर्ट में चलाने की बार-बार मांग होती रही. लेकिन फास्ट या स्लो की बहस तो उसी समय समाप्त हो जाती है, जब छः सालों में मात्र दस गवाहियां होती हैं. कानून के जानकारों का मानना है कि मुक़दमें विलम्ब से चलने से अभियोजन का पक्ष कमज़ोर पड़ता है. यही कारण है कि बचाव पक्ष की तरफ से मुक़दमें की कार्रवाई में विघ्न डालकर उसे लम्बित करने का प्रयास किया जाता है. परन्तु यहां मामला उलटा है. बचाव पक्ष तेज़ी से सुनवाई चाहता है और अभियोजन गवाहों को पेश करने में महीनों का समय बर्बाद कर देता है.

कुछ इसी प्रकार की स्थिति उत्तर प्रदेश की अन्य आतंकी घटनाओं के मुक़दमों की भी है. जहां सामान्य अपराधों के मामले में स्पेशल कोर्ट और फास्ट ट्रैक कोर्ट का प्रावधान किया गया हो वहां आतंकवाद से निपटने के लिए तेजी से मुक़दमों को निपटाने के प्रति गम्भीरता न दिखाने के मायने क्या हैं. जिस अपराध के लिए विशेष पुलिस बल का गठन राज्य और केन्द्र दोनों के स्तर पर किया गया हो, खुफिया एजेंसियां विशेष अभियान चलाती हों, उसका मुकाबला करने के लिए आधुनिक उपकरणों पर पानी की तरह पैसा बहाया जाता हो, हर घटना के बाद आतंकवादियों से सख्ती से निपटने के लिए कड़े कानून बनाने की बात की जाती हो उसको अदालतों में अभियोजन की तरफ से लटकाए रखने का क्या औचित्य हो सकता है.

अक्सर लोग अमेरीका की आतंकवाद से लड़ने की नीति की सराहना करते नहीं थकते और कई राजनेता तो उसी तर्ज पर सुरक्षा एंव खुफिया एजेंसियों को और अधिक शक्ति देने की वकालत करते हैं. लेकिन वहां की अदालतों की तरह तेज़ी से सुनवाई कर फैसला देने की बात कोई नहीं करता और न ही इन ऐजेंसियों की संसद के प्रति जवाबदेही की चर्चा होती है.

जहां तक रामपुर सीआपीएफ कैम्प की घटना का सवाल है तो कई मानवाधिकार संगठन इसे आतंकी घटना ही नहीं मानते. उनका मानना है कि नव-वर्ष के अवसर पर नशे में डूबे जवानों की आपसी गोलीबारी जैसी अपराधिक अनुशासन हीनता को छिपाने के लिए इसे आतंकवादी घटना का रूप दे दिया गया. यह बात भी सामने आई थी कि कुछ जवानों को डॉक्टरों ने मनोरोगी बताते हुए उन्हें किसी भी प्रकार का शस्त्र न देने की सलाह दी थी. कथित आतंकवादियों द्वारा प्रयोग में लाए जाने वाले वाहन के मामले में भी अधिकारियों की तरफ से कई विरोधाभासी बयान आए थे. कुछ सवालों के जवाब तो मिले ही नहीं जैसे दो बजे रात में सीआरपीएफ कैम्प का मुख्य गेट क्यों खुला था?

इस केस में पकड़े गए प्रतापगढ़ के कौसर फारूकी के बारे में कहा गया कि हमले में प्रयुक्त हथियार उसकी दुकान में रखे गए थे. जब यह तथ्य सामने आया कि पहली जनवरी 2008 को कौसर फारूकी ने किराए की दूसरी दुकान में अपना सामान शिफ्ट किया था तो उस समय एसएसपी प्रतापगढ़ ने एसटीएफ के हवाले से यह कहा था कि हथियार उसने अपनी रामपुर की दुकान में छुपाया था. जबकि परिवार का कहना है कि उसकी रामपुर में कोई दुकान नहीं थी और यह कि परिवार का कोई सदस्य कभी रामपुर नहीं गया और न ही पुलिस अब तक इस प्रकार की कोई जानकारी जुटा पाई है.

इस सम्बंध में मानवाधिकार संगठनों द्वारा उठाए गए अनेकों प्रश्नों का अब तक संतोषजनक उत्तर भी नहीं मिल पाया है. घटना के बाद कुछ सीआरपीएफ जवानों से पूछताछ अवश्य की गई थी जो किसी प्रत्यक्षदर्शी या पीडि़त से जानकारी प्राप्त करने से अलग पूछताछ के दायरे में आती है. इसकी आवश्यक्ता क्यों पड़ी यह किसी को नहीं मालूम.

उत्तर प्रदेश सरकार ने आतंकवाद के नाम पर पकड़े गए बेगुनाहों को रिहा करने का वादा किया था. यही मांग पीडि़त परिवारों और मानवाधिकार एवं सामाजिक संगठनों की तरफ से भी की गई थी. परन्तु प्रदेश सरकार ने इस प्रकार की कोई जांच नहीं करवाई जिससे उनको अपनी बेगुनाही साबित करने का मौका मिलता.

हद तो यह है कि हकीम तारिक़ कासमी और मौलाना खालिद मुजाहिद की गिरफतारी को फर्जी बताने वाली निमेष आयोग की रिपोर्ट को भी दबाए रखा. सरकार ने रिहाई के लिए पत्र लिखकर यह संकेत देने की कोशिश की कि वह बेगुनाहों को नहीं बल्कि आतंकवादियों को छोड़ने जा रही है जिसकी अनुमति कोई भी अदालत नहीं दे सकती थी और वही हुआ भी. आतंकवाद के नाम पर होने वाली राजनीति का यह अपने तरह का अनोखा उदाहरण है.

(लेखक रिहाई मंच, आज़मगढ़ के संयोजक हैं.)

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