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केन्द्रीय सूचना आयोग का सच…

Mani Ram Sharma for BeyondHeadlines

सूचना का अधिकार अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत  आयोग की स्थापना की गयी है और केन्द्रीय प्रतिष्ठानों में “अधिकार” की प्रोन्नति का दायित्व आयोग को सौंपा गया है. आयोग की स्थापना से अब तक लगभग 170,000 अपीलें व परिवाद याचिकाएं आयोग में दायर हुई हैं और लगभग 140,000 याचिकाएं निस्तारित की जा चुकी हैं. किन्तु दुखदायी तथ्य यह है कि अभी भी लोक प्राधिकारियों द्वारा 80-90% मामलों में देय सूचना से इन्कार ही किया जाता है और शासन व्यवस्था व लोक प्राधिकारियों के कार्यकरण में अभी भी अस्वच्छता-भ्रष्टाचार- अपारदर्शिता कायम है.

जहां प्रथम वर्ष में आयोग में मात्र 7000 याचिकाएं प्राप्त हुई वहीं आठवें वर्ष में 40000 याचिकाएं प्राप्त हुई हैं व औसत याचिका की सुनवाई में एक वर्ष से अधिक का समय लग रहा है जो आयोग के गठन के उद्देश्य को ही मिथ्या साबित कर रहा है. यह स्थिति एक भयावह चित्र प्रस्तुत करती है.  सूचना हेतु मना करने पर नागरिक आयोग में याचिका दायर करते हैं और इसमें लगातार तीव्र गति से वृद्धि हो रही है. यह वृद्धि  इस कारण नहीं है कि नागरिकों में जागरूकता का संचार हो रहा है अपितु आयोग दोषी जन सूचना अधिकारियों के प्रति बड़ा उदार है और आम लोक प्राधिकारी में यह विश्वास गहरा रहा है कि वे चाहे किसी भी सूचना के लिए मना करें उनका कुछ भी बिगड़नेवाला नहीं. अधिक से अधिक यह हो सकता है कि आयोग द्वारा एक आवेदक को दो वर्ष संघर्ष करने के बाद सूचना देने के आदेश हो जाए व उसकी अनुपालना तो फिर भी संदिग्ध है.

आयोग द्वारा दोषी अधिकारियों का अनुचित बचाव करने से जनतंत्र के इस औजार की धार लगभग भौंथरी हो चुकी है व जनता की नज़र में आयोग सेवानिवृत अधिकारियों को रोज़गार देकर उपकृत करने का एक संस्थान मात्र रह गया है. कुछ आयुक्तों द्वारा किन्हीं अपवित्र कारणों या सस्ती लोकप्रियता के लिए अतिउत्साहित होकर कुछेक जनानुकूल निर्णय देने मात्र से 125 करोड़ भारतवासियों का हित नहीं सध सकता. यद्यपि, आपवादिक मामलों को छोड़ते हुए, अधिकांश मामलों में आयोग ने सूचना प्रदानगी  के  आदेश दिये हैं किन्तु फिर भी दिए गये अधिकांश निर्णय कानून व न्याय की कसौटी पर खरे  नहीं हैं.

आयोग ने अपनी स्थापना से लेकर अब तक 1000 से भी कम प्रकरणों में अर्थदंड लगाया गया है और उसका भी लगभग 40% भाग वसूली होना शेष है. अधिनियम की धारा 19(5) व 20(1) में सूचना नहीं देने का औचित्य स्थापित करने का भार सूचना अधिकारी पर है और इसमें विफल रहने पर सूचना अधिकारी पर कानून के अनुसार अर्थदंड निरपवाद स्वरूप लगाया जाना चाहिए.

समाज में व्यवस्था बनाये रखने के लिए कानून में दंड का प्रवधान रखा जाता है किन्तु आयोग के निर्णयों में न तो सूचना नहीं देने का औचित्य स्थापित माना जाता है और न ही दोषी पर अर्थदंड लगाया जाता जिससे सूचना अधिकारियों को यह सन्देश जाता है कि आयोग एक दंतविहीन संस्थान है. आयोग ने शक्तिसंपन्न विभागों के विरुद्ध यद्यपि कई मामले निर्णित किये हैं किन्तु आश्चर्य का विषय है कि आज तक उनमें से एक भी मामले में अर्थदंड नहीं लगाया है इससे आयोग की निष्पक्षता पर बड़ा प्रश्न चिन्ह लगता. आयोग ने गृह मंत्रालय व न्याय विभाग के विरुद्ध  कई हजार मामले निर्णित किये हैं जहां आवेदकों को अनुचित रूप से सूचना हेतु मना किया गया किन्तु आयोग ने किसी मामले में मुश्किल से ही इन विभागों के अधिकारियों पर अर्थदंड लगाया हो.

न्यायालय, सतर्कता, पुलिस  आदि ऐसे ही अन्य सशक्त विभाग हैं जिन पर स्वयम आयोग ने अर्थदंड लगाने से परहेज़ कर अपनी कर्तव्य विमुखता का परिचय देकर अपनी विश्वसनीयता पर बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा दिया है. आयोग द्वारा अर्थदंड लगाए जाने के मामलों का विश्लेष्ण करने पर ज्ञात होता ही कि मात्र स्थानीय निकाय, शिक्षा विभाग, बिजली, पानी, परिवहन, निर्माण विभाग जैसे शक्तिहीन लोक प्राधिकारी ही अर्थदंड चुकाने के लिए विवश किये गए हैं.

आयोग को यह चाहिए कि जहां सूचना हेतु आदिष्ट करे उस प्रत्येक निर्णय में या तो धारा 19(5) व 20(1) के अंतर्गत दोषी अधिकारी द्वारा स्थापित औचित्य को अपने निर्णय में साबित समझे अन्यथा दोषी अधिकारी पर अर्थदंड अवश्य लगाए ताकि अधिनियम कारगर साबित हो सके और यह एक कागजी व कोरी औचारिकता नहीं रह जाए.

(लेखक इंडियन नेशनल बार एसोसिएशन , चुरू जिला के अध्यक्ष हैं. इनसे maniramsharma@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.)

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