Apoorvanand
ऐसा तो गुजरात में भी नहीं हुआ था! हां! हमें 2002 की गर्मियां याद हैं, मस्जिदों में चल रही पनाहगाह याद है। याद है खामोश और गम से समझदार आंखें जो हमें देख रही थीं, जो उनका दुख बंटाने आए थे वहां, कुछ घंटे, कुछ दिन, कुछ वक्त गुजारने, फिर जो अपने घरों को लौट जाने को थे क्योंकि हमारे घर थे जहां हम लौट सकते थे, घर जो आपका इंतजार जितना करता है उससे कहीं ज्यादा दिन-हफ्ते उससे बाहर गुजारते हुए आप उसका करते हैं। वे आंखें जानती थीं कि हमारे घर हैं लौटने को और उनके नहीं हैं। वे अशफाक, सायरा, शकीला होने की वजह से बार-बार घर खोजने को, नए सिरे से बसने को मजबूर हैं, कि उनको और उनकी आगे की पीढ़ियों को इसका इत्मीनान दिलाने में यह धर्मनिरपेक्ष भारत, यह हिंदुस्तान लाचार है। जिसकी हस्ती कभी नहीं मिटती, उस हिंदुस्तान को बनाने वालों को जरूर एक जिंदगी में कई जिंदगियां गढ़नी पड़ती हैं। एक घर के बाद कई घर बसाने पड़ते हैं।
फिर बारिश आई, जिसका अमदाबाद समेत पूरे गुजरात को दो साल से बेकरारी से इंतजार था। और लोगों को वे गीत याद आए होंगे जो बारिश के स्वागत में गाए जाते हैं। दूसरी ओर, प्लास्टिक की पन्नियों से बनीं छतों ने बेचारगी और लाचारी से अपने नीचे सिकुड़े लोगों से जैसे माफी मांगी: उनमें कूवत नहीं कि कुदरत की मार से राहत दिला सकें। और सरकारी फरमान आया, उस सरकार का, जो हम कैसे जिंदगी जिएं इसका फैसला करती है: ये पनाहगाहें अब और नहीं चल सकतीं। आखिर 28 फरवरी को गुजरे महीने बीत चुके थे और गुजरात आगे इस अहसास के साथ नहीं जी सकता था कि हालात गैरमामूली हैं। राशन बंद कर दिया गया, पनाहगाहों के संचालकों को धमकी दी जाने लगी। और सुप्रिया और गुजरात से आए कई दोस्तों ने राजीव धवन के दफ्तर में बैठ कर अर्जी तैयार की, अपने हिंदुस्तान की सबसे बड़ी अदालत में गुहार लगाई; इस बारिश में इन पनाहगाहों को टूटने से बचाने की गुहार।
वकील ने मुस्करा कर कहा, मुझे हैरत होगी अगर यह अपील सुन ली जाए। अर्जी- जिस पर हिंदुस्तान के दो सौ से ज्यादा लेखकों, कलाकारों के दस्तखत थे, जिन्हें दूसरे, मामूली वक्तों में सरकारें इनामों से नवाजती हैं और जिनके होने पर फख्र जताती हैं- कहीं नीचे फेंक दी गई, धूल खाती रही, डेढ़ साल तक। इस बीच एक और बारिश आई। पनाह लिए लोगों ने खुदा के सहारे अपने रास्ते चुने, क्योंकि भारत की वह किताब जिसे संविधान कहते हैं उनके बुरे वक्तों में उनके काम न आई।
गुजरात में भी ऐसा न हुआ था। बुलडोजर और जेसीबी मशीनों ने कैंप नहीं उखाड़े थे। ऐसा करने के लिए तो आपको धर्मनिरपेक्ष आत्मविश्वास और अहंकार चाहिए था जो सिर्फ उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की हुकूमत के पास है। क्योंकि वह धर्मनिरपेक्ष है और उसके इरादे पर कोई शक नहीं कर सकता, वह मुजफ्फरनगर के करीब लोई में तब इन शिविरों को तोड़ सकती है, जब ओस और कोहरा बरस रहा हो, सर्द हवाओं के थपेड़े लग रहे हों, पारा सिफर के करीब पहुंच चुका हो। इसके लिए धर्मनिरपेक्ष बेहिसी और बेरहमी चाहिए। तभी आपका आला अफसर यह कह सकता है कि बच्चे ठंड से नहीं मरा करते। और राज्य के मुखिया का पिता कह सकता है कि राहत-शिविरों में कांग्रेस और भाजपा के एजेंट रह रहे हैं जिनका नापाक इरादा है उत्तर प्रदेश की मुसलिमपरस्त धर्मनिरपेक्ष सरकार को बदनाम करना।
तो इंडियन एक्सप्रेस की पृथा चटर्जी किन लोगों से मिल आई हैं? ये कौन हैं जिन्होंने अपने इन गैरकानूनी ठिकानों से अपने बच्चे और बोरिया-बिस्तर सरकारी टेंपो पर लाद लिए हैं? किस धर्मनिरपेक्ष दिशा में ये जा रहे हैं, किन धर्मनिरपेक्ष आसरों की तलाश में ये निकल पड़े हैं? अपनी गायें, बैल और बकरियां साथ बांधे किधर को निकल पड़े हैं? क्या हिंदुस्तान इनका घर है? क्यों पृथा को इनसे हमदर्दी है? क्या वे भी कांग्रेस और भाजपा की छिपी एजेंट हैं?
सुनिए, पृथा को सुनिए: ‘‘असीमा, जिसे हफ्ता भी नहीं हुआ बच्चा हुए, कहती है कि वह तीस दिसंबर की रात कभी भूल नहीं सकेगी। पानी गिर रहा था, ठंड थी और हम सब सरकारी बस स्टैंड के सामने थे जहां हमें सरकारी गाड़ी छोड़ गई थी। हम सब बारिश में भीगते, अपनी चीज-बस्त लादे-लादे अपनी-अपनी झुग्गी बनाने को चले।’’
‘‘जब रक्षक ही भक्षक बन जाए तो क्या होगा? इस मर्तबा सरकारी अफसर ही नहीं, ग्राम-प्रधान भी हमारे खिलाफ हो गए। उन्होंने कहा कि मुआवजे की कागजी कार्रवाई होती रहेगी, लेकिन हमें सरकारी जमीन छोड़ देनी होगी। और खुद को ठंड से बचाना होगा। तो यहां, इस खुले में ठंडे से हमारा बचाव कैसे हो रहा है?’’ तेईस साल की अफसाना अपने बच्चों को, दो साल के कशिश और चार साल के साहिर को राहत में मिले गर्म कपड़े पहनाते हुए कहती है।
मुलायम सिंह यादव का कहना है कि मुजफ्फरनगर के पीड़ित और विस्थापित मुसलमानों को उनकी सरकार ने अभूतपूर्व राहत दी है। राहत के आगे अभूतपूर्व विशेषण लगाने के लिए भी आपके पास धर्मनिरपेक्ष अतीत का अनुभव चाहिए जो इस नेता के पास है, जिसे सैफई में उस वक्त राग-रंग करते कोई संकोच नहीं जब हजारों लोग ठंड, भूख और अपमान से जूझ रहे हों और उत्तर प्रदेश में गरीब मुसलमान की हैसियत को परिभाषित करने की कोशिश कर रहे हों। सुना है कि अपने जन्मोत्सव के पहले मायावतीजी को इन गरीबों की सुध आ गई है और वे अपने प्रतिनिधियों को हालात का जायजा लेने भेज रही हैं। कुछ दिन पहले एक चिरक्रुद्ध राष्ट्रीय युवा नेता वहां हो आए हैं और उन्होंने राहत-शिविरों की बदहाली पर काफी नाराजगी जताई थी।
जब आप इन पंक्तियों को पढ़ रहे होंगे, राहत-शिविर कहे जाने वाले ये बदनुमा दाग शायद बुलडोजरों की मदद से मिटाए जा चुके होंगे। जिसका कोई नहीं, उसका अल्लाह है, इस भरोसे जिंदगी बसर करने वाली मजलूमों की जमात हिंदुस्तान की इस जमीन में कहीं समा गई होगी और आपको शायद कहीं दिखाई न देगी।
मुसलमान पहले ही हिंदुस्तान की मुश्किल रहे हैं। इनकी वजह से वह खुल कर वंदे मातरम नहीं गा पाता, आर्थिक तरक्की की राह पर तेजी से भाग नहीं पाता, क्योंकि अपनी जहालत के चलते ये उसके पैरों में बेड़ियों-से पड़े हुए हैं और उसकी रफ्तार में रुकावट डालते हैं। बीच-बीच में अपनी मूर्खता के चलते वे हिंदुओं को उकसा देते हैं और स्वभाव से संत-करुणाशील हिंदुओं को क्षुब्ध कर डालते हैं। ऐसा करने के पहले वे यह नहीं समझ पाते कि इस क्रोध का उत्तर देना तो दूर, इसका सामना करने की कुव्वत भी उनकी नहीं है। ऐसा भागलपुर, भिवंडी, बिहारशरीफ , जमशेदपुर, मेरठ, नेल्ली, कोकराझार, सूरत, अमदाबाद, वडोदरा, जाने कितनी जगहों के अपने तजुर्बे से वे जानते हैं, फिर भी बाज नहीं आते। सदियों से मुसलमानों के साथ मोहब्बत से रहते आए मुजफ्फरनगर के बाशिंदों के धीरज का बांध भी आखिरकार टूट ही गया। बेचारी उत्तर प्रदेश सरकार कैसे गुस्से की इस बाढ़ को रोक पाती!
मुसलमानों के बारे में ऐसी स्थितियों में एक बात तकरीबन हर जगह सुनी: कि वे दरअसल ‘दंगों’ में अपने घरबार इसलिए जला डालते हैं कि उन्हें मुआवजा मिल सके। जून, 2002 में एक रहमदिल डॉक्टर को वडोदरा से तेजपुर के रास्ते में यही कहते सुना था; मुसलमान कैंपों में अब तक इसलिए पड़े हुए थे कि वहां उन्हें पांच-पांच किलो चीनी मिल जाती थी और ढेर-सा पैसा भी! हफ्ते में एक दिन अपने खर्चे से आदिवासी गांव में जाकर मदद करने वाले इस डॉक्टर में और मुजफ्फरनगर के ग्रामीणों में कोई फर्क नहीं, जिन्होंने रिपोर्टरों को कहा कि जाते-जाते मुसलमान अपने घर जला गए जिससे उन्हें मुआवजा मिल सके। यह भी कि वे कैंपों में इस वजह से लौट रहे हैं कि मुआवजा मांग सकें।
सरकार का कहनाहै कि एक बार जब पांच लाख रुपए दे दिए, उन्हें राहत-शिविरों में रहने का हक क्या और इसका तर्क क्या! यह मुआवजा देने के बाद सरकार उनकी देखभाल करने को कैसे जवाबदेह रह जाती है? अपने घर-गांव से बेदखल कर दिए गए इन मुसलमानों पर ही अब उलटा आरोप लग रहा है कि वे अनधिकृत तरीके से कैंप जबर्दस्ती जिंदा रखना चाहते हैं। इससे राज्य का माहौल बिगड़ रहा है।
दिलनवाज, पृथा, चिंकी सिन्हा, नेहा दीक्षित, श्रीनिवासन जैन जैसे पत्रकार अपनी वस्तुपरकता या तटस्थता नहीं रख पाते जब वे इन विस्थापित मुसलमानों से मिलते हैं। उनमें भावुकता दिखाई पड़ती है जो पत्रकारिता के लिए स्वस्थ नहीं। इन मुसलमानों के बारे में हम बात करते हैं तो कादिर राणा, आजम खान या अतीक अहमद को क्या भूल जाते हैं? सत्या शिवरमन ने बताया कि कल इलाहाबाद पहुंचने पर हर तरफ उन्हें अतीक साहब को मुबारकबाद देती हुई होर्डिंग्स दिखाई दीं, लोकसभा चुनाव के लिए उन्हें उम्मीदवार चुने जाने पर। इसकी अश्लीलता क्या किसी को दिखाई नहीं देती? वैसे ही जैसे अगले चुनाव के बाद इस देश की बागडोर संभालने का दावा करने वाले दल को उन नेताओं को सम्मानित करते कोई हिचक न हुई जिन पर मुजफ्फरनगर की हिंसा भड़काने का आरोप है।
अब सवाल यह है कि राहत क्या है और क्या है मुआवजा? क्यों मुसलमान जिद किए बैठे हैं कि वे अपने गांव लौट नहीं सकते? क्यों वे मुजफ्फरनगर और हिंदुस्तान की साझा जिंदगी में खलल डालना चाहते हैं? यह सवाल उनका भी है जो राहत लेकर इनके पास जा चुके हैं: कि इन्हें लौट ही जाना चाहिए, कि इनमें से बहुतेरे ऐसे हैं जो सिर्फ खौफ के मारे भाग गए हैं, कि उनके साथ सीधे कुछ नहीं हुआ है। और क्या खौफ के लिए वे मुआवजा मांग सकते हैं? क्या किसी समुदाय को खौफ मालूम हो तो उसे अपना इलाज नहीं कराना चाहिए? सरकार से इसमें क्या उम्मीद और क्यों?
मुजफ्फरनगर के हिंदुओं ने गाय, बेटी और बहू बचाने के सम्मेलन किए थे। उसके बाद ही हमले हुए, हिंसा हुई और तकरीबन साठ हजार मुसलमानों को बेघरबार होना पड़ा। मुसलमानों पर पुराना आरोप है कि वे हिंदू बहू-बेटियों पर बुरी आंख रखते हैं। 2002 में गुजरात में बाबू बजरंगी के नेतृत्व में इस मुसलिम कुदृष्टि से बचाने का पवित्र अभियान चलाया गया, फिर केरल और कर्नाटक में और अब उतर प्रदेश में। इस हिसाब से हर मुसलमान नौजवान शक के दायरे में है, हर किसी पर नजर रखी जानी है। अगर इस गुस्से के दौरे में कुछ मुसलिम लड़कियों, औरतों के साथ जबर्दस्ती हो गई तो क्या उसके लिए सजा के अलावा कोई और रास्ता नहीं? आखिर मुसलमान भूलना और माफ करना क्यों नहीं जानते? क्यों वे हिंसा की याद जिंदा रखना चाहते हैं?
दिल्ली में नए साल की पहली सुबह धूप निकल आई है। खुले में बैठना भला लग रहा है। खुलेपन का यह सुकून मुजफ्फरनगर के मुसलमानों को कब नसीब होगा, यह सवाल क्या सिर्फ उनका होना चाहिए? (Courtesy: jansatta.com)
