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Reading: अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेले का लाइव ड्रामा…
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BeyondHeadlines > Lead > अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेले का लाइव ड्रामा…
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अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेले का लाइव ड्रामा…

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published February 23, 2014
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42 Min Read
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Subhash Gautam for BeyondHeadlines

15 फरवरी, 2014:   विश्व पुस्तक मेला का पहला दिन था. हिंदी के प्रकाशकों को हॉल नं 18 में ठेकाया दिया गया था… जैसे गांव में कुजातीय बियाह (विवाह) के बाद ऊढरी बहुरिया को कोने-अतरे में एक खटिया और दो मैला-कुचैला गुदरा देकर कहा जाता है कि इसे अपना ही घर समझिए पतोहू! तनिक सकेत है. ठीक उसी प्रकार से हिंदी के प्रकाशकों को “कबूतर खाना” में ठेकाया गया था. हॉल नं 18 में पाठकों को प्रकाशकों तक पहुंचते-पहुंचते इतना उंच-नीच हो जाता था  कि चार प्रकाशकों की पुस्तकें देखने और खरीदने के बाद जब पाठक निकलता था तो दम फूलने लगता था. इस हॉल में नीचे में पाठक पुस्तक देखने-खरीने में व्यस्त थे और स्टालों के ऊपर कबूतर खच-मच खच-मच की संगीत कर रहे  थे. माहौल फीका-फीका सा लग रहा था. प्रकाशक इस हॉल में मोटे-मोटे दीवार नुमा पिलर देखकर नेसनल बुक ट्रस्ट को कोस रहे थे. वहीं दूसरी तरफ सुबह कबूतरों लेंडी (बिट) पुस्तक से साफ करने में काफ़ी समय गंवा देते थे. हिंदी के कुछ प्रकाशकों को तो हॉल नं 10 हॉल नं 14 आदि में चकमक प्रकाशकों और अन्य भाषा के प्रकाशकों के बीच में ठेका दिया था.  जहां हिंदी के प्रकाशक चकचोनहरा गए थे. कई प्रकाशक तो अन्य भाषाओं के हॉल में एलाट की गई गुमटी में पुस्तक लगाने से इंकार कर दिया था  और आयोजक नेशनल बुक ट्रस्ट का बिरोध कर रहे थे. हिंदी लेखकों का कोना (आर्थर कार्नर) भी ऐसी जगह केने-अतरे में दिया था, जहाँ पर मंच के ठीक बगल में शौचालय घर था. इस लेखक मंच को देख कर ऐसा लग था कि  हिंदी के लेखक  लिखते कम निपटते (शौच) ज्यादा है.  हिंदी प्रकाशकों और लेखकों के साथ सौतेला व्यवहार का पहली शिकायत नहीं थी, इससे पहले भी हिंदी प्रकाशकों और लेखकों को उपेक्षित किया जाता रहा है.  इस हॉल नं 18 की एक और कहानी है कुछ लोग यहां हस्त रेखा देखे और जन्मपत्री बनाने वाली नक्षत्र संस्था को पूछते हुए आते हैं और गीता प्रेस के स्टाल से हनुमान चालीसा लेकर वापस चले जारहे थे. हिंदी प्रकाशकों की सहूलियत और सुविधा की नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा की गई इस अनदेखी के वावजूद अभी उम्मीद बची थी. हिंदी भाषी खोजते हुए आते थे वह  चाहे कोना-अतरा में हिंदी प्रकाशकों को ठेकाए या कबूतर खाना में. और वैसे भी हिंदी के पाठकों के विवेक और हिंदी से जुडे प्रेमियों पर निर्भर करता था  कि मेला कितना सफल रहेगा.

16 फरवरी, 2014:  दिन रविवार विश्व पुस्तक मेला प्रगति मैदान का दूसरा दिन था. हिंदी प्रकाशक नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा अपने साथ किए गए उंच-नीच को भुला के भोरे-भोरे दंतुअन-कुल्ला के बाद दू रोटी का पनपियाव कर के भागे-भागे पुस्तक मेला पहुंच रहे थे. प्रवेश द्वार पर टिकस खरीदने वाले लोगों की भीड़ देख कर प्रकाशक बहुत प्रसन्न हुए थे कि आज रविवार का दिन है. पुस्तक का रेला-ठेला ठीक चलेगा, पर यहां ठीक उल्टा था. कुछ पाठक खरीदने वाले तो थेड़े बहुत पाठक तसिलने वाले थे. तसिलाने वाले लोगों में खास कर रंगीन पत्रिकाओं के समीक्षक थे. जो कभी कुछ लिखते नहीं प्रूफ और नोकता-चीनी की सफाई करने वाले पक्षकार किस्म के मनई. हिंदी प्रकाशकों का हाल नं 18 में प्रवेश द्वार से घुसने पर चारो तरफ दीवार पर तंत्र-मन्त्र, योग-भोग वाले प्रकाशकों ने अपना बैनर-पोस्टर ऐसे चस्पा किया था जैसे गांव की गोसाई काकी देवाल पर चिपरी पाथती थीं. सबसे अधिक सम्मोहन वाला प्रकाशक गीता प्रेस रहा, जो हनुमान लंगोटी, राम-लखन धोती और खडाऊ पुस्तक के स्टाल में ऐसी भीड़ जुटान किया था जैसे प्रकाशक न होकर तरकारी बाजार का कुजडा हैं. दूसरी तरफ बनवारी लाल प्रकाशकों ने पुस्तकों को इस प्रकार सजाया था जैसे गोहरा पाथ के डाणा (इट नुमा) लगाया हो मानों सूखने केलिए छोड़ा गया है और अषाढ़ के महिना में उपयोग होगा. हिंदी के प्रकाशकों का धंधा गरम नहीं था पर नरम भी नहीं था कुल मिला के ठीक रहा. प्रभात प्रकाशन मान मार के बैठा था जैसे नरेन्द्र मोदी का इंतजार कर रहा हो कि कब सरकार बने और हम माल खपाएं. एक उत्तर कोना में सेमिनार हाल था जिसमे हंसी की पुचकारी विषय पर सेमिनार चल रहा था. लेखाकों का कोना दोपहर बाद ऐसे चल रहा था जैसे जाड़ा में मनई कौऊड़ा तापते हैं, साथ में कसी गंभीर समस्या पर बतकूचन करते हैं ठीक उसी प्रकार था. मेले के दौरान लेखकों में पुस्तकों की कम फेसबुक और टूटर नामक अवजार की चर्चा अधिक हो रही थी. एक साहित्यकार तो कह रहे थे कि फेसबुक ने लोगों के लेखक बना दिया है. छात्रों को प्रवेश के लिए पहचान-पत्र दिखाने पर 50% की दी जाने वाली छुट इस बार ख़त्म कर दिया है. टिकस खिड़की पर पूछने पर बाबु बोला कि केजरीवाल ने छुट ख़तम कर दिया है. प्रगति मैंदान में चाय 20 रुपया से शुरू होकर 80 रुपये तक की थी, जिसका मूल्य पूछकर लोग वापस चले आते थे, कुछ मज़बूरी में पीते भी रहे थे. पानी का नल तो ऐसे बंद पड़ा है जैसे रविश कुमार की रिपोर्ट बंद हो गई हो. जनता को अपना झुराइल गला तर करने केलिए मात्र 30 रूपये खर्च करना पड़ता है. इस साल प्रकाशित पुस्तकों में ज्यादातर पुस्तकें कविता की हैं.

17 फरवरी, 2014:   विश्व पुस्तक मेला का तीसरा दिन…  दिन सोमावर जो बनारसियन खातिर यह महात्म का दिन होता है. गेट नं 8 से लेकर हाता नं 18 तक हिंदी की गुमटियों तक पहुंचने के लिए ललका IMG_2048चटाई बिछा था. ठीक 1 बजे हाता नं 18 में अंदर ढूके तो पता चला कुछ गुलजार है. सामने देखा तो आलोचना के शंसाह नामवर दा विराजमान हैं. नामवर दा को तन्त्र-मन्त्र पुस्तकों के ग्राहक एक बार चिहा के देखता और किसी हिंदी के सजन से पूछता की ई कौन शायर हैं. उत्तर मिलते ही मूर्छित हो जाता था. मूर्छित होने के बाद भागल-भागल गीता प्रेस में संजीवनी पुस्तक खोजने लगता था. मेला घुमते समय एक दिलचस्प नजारा देखने को मिला. लगभग हर प्रगतिशील गुमटियों (स्टाल) के साथ एक तंत्र-मन्त्र, धर्म-कर्म की गुमटी देखने को मिली. ठीक उसी प्रकार जैसे मोदी सर्वधर्म संभव सभा में कुछ लोगों को जबरन जोलाहा टोपी पहना दिया जाता है. ज्ञानपीठ प्रकाशन, अंतिका प्रकाशन अदि के सामने कोई “स्वदेशी” प्रकाशन हैं, जो पुरे दिन गाय माता मूत्र का प्रचार बजा बजता रहता है. बिच बिच में यह निर्देश भी देता है की अगर गाय माता मूत्र उपलब्धता न होतो अपना भी सेवन कर सकते हैं. उनके लगाये गए पोस्टरों और पर्चो में भी भगवान है. कुछ प्रगतिशील गुमटियों में उपर से पानी टपक रहा है जैसे प्रगतिशील न होकर सीलन गुमटी बन गई है. प्रगतिशील प्रकाशकों के साथ होने वाला इस व्यवहार से प्रेरित होकर जनचेनता की मालिकिन व कवित्री कात्यायनी जी ने कल एक दरखास भी लिख दिया जिस पर प्रगतिशील प्रकाशक व प्रगतिशील जनता का हस्ताक्षर बाकि है. हर प्रगतिशील प्रकाशकों की गुमटियों के अगल-बगल से अनुमान लंगोटी गीत संगीत की छटा तो ऐसे बिखर रही है जैसे पुस्तक मेला न हो के शोर कल्ब हो गया हो. हाता नं 18 और 14 के सामने एक परती नुमा पार्क है जिसमें एक टोटी वाला नलकूप जहा मेलहा लोग उसका पानी मुह में लगते ही चिचिया के भागता है . ठीक वैसे ही जैसे “टाम एंड जेरी” अभिनय करते हैं. आधार प्रकाशन व स्वराज प्रकाशन का हाता नं 18 में गुमटी है और उनकी किताबों का लोकार्पण हाता नं 14 में हुआ. बहुत सारे लेखिका और लेखक की किताबों का लोकार्पण और चर्चा हुआ. खास कर दो लेखिकाओं का नाम लेना चाहूँगा जिनके लिए यह सिर्फ पुस्तक कोकर्पण नहीं था यह आयोजन ऐसा था जैसे बेटा का बियाह में नहछुआ के लिए धवरी-धवरी गांव में दुलहा की मतारी बुलावे खातिर हाथ जोड़ती अंचरा धर गोड लगती और गुहार करती ये काकी ये मौसी चली नहछुआ होने जरह है. यह लेखिका रंजना जैसवाल और अल्पना जी थी जो लेखिका कम इन्सान जायदा हैं. इसी तरह जयश्री राय और कविता जी भी हैं. कल के आयोजन में सबसे अधिक लेखिकाओं की पुस्तकों का कोकर्पण हुआ और उसपर टिप्पणी करने वाले पुरुष थे. शिल्पायन प्रकाशन के तरफ से हिंदी में साहित्येतर लेखन और प्रकाशन: दशा और दिशा विषय पर सत-गोटी हुई. हिंदी साहित्य का दाशा (दशा) तो ख़राब हैं, दिशा/रुख लेखकों ने अपना लेखा जोखा रखा… राजकम प्रकाशन के तरफ से जाने माने रंगकर्मी पुयुष मिश्र ने अपनी लिखी गीतों गायन किया साथ में हरमुनिया भी बजाये पर पर उसकी आवाज़ कम थी. सामने हनुमान लंगोट पुस्तक भंडार को देख कर मिश्र जी हतास हो गए थे या हरमुनिया का पर्दा मा छेदा हो गया था तनिक उसकी आवाज़ कम मिकल रही थी. अंत में मिश्र जी से लोगों ने सवाल नहीं उनकी तारीफ ही तारीफ की, एक जवाहर लाल नेहरू विश्व विद्यालय के छात्र ने तो तारीफ की हद करदी उसने कहा की जेएनयू में सबसे अधिक आपको सुना जाता है, मतलब पियूष मिश्र का फिलिम देखते हि नहीं है लोग… दूसरी बात की अगर मिश्र जी को जेएनयू में सबसे अधिक सुना जाता हैं तो यह क्रांतिकरी बिद्रोही भाई की तौहीनी है. शाम के समय विविके नन्द पर पुस्तक लिखने वाले लेखक श्री नरेंद्र कोहली जी का व्याख्यान हुआ एक संजन ने कहा की नरेद्र भाई कल शाम को दिल्ली आए आज चल कर यहाँ आये. केखाक कोना में नरेंद्र कोहली का भाषण था. शाम को प्रगति मैदान में अगर पिपिहरी बजा कर चौकीदार सब कोहली जी का भाषण बंद नहीं कराया होता हो शायद वो रात भर बोलते सबसे अंत में हाता नं 18 से उनको सुनने वाले और नरेंद्र जी निकले…

18 फरवरी, 2014:    विश्व पुस्तक मेला का चौथा दिन… प्रगति मैंदान मेट्रो स्टेसन और बहार सड़क में लगे बैनरों, पोस्टरों में पुस्तक मेला की कोई चर्चा नहीं. नेशनल बुक ट्रस्ट इससे पहले दो चार पोस्टर बैनर चस्पा कर दिया करता था, जिसे पिकनिक स्पाट को जाने वाले यात्री उतर कर पुस्तक मेला का दर्शन कर आते थे सो इस बार नहीं है. मेट्रो स्टेसन और बहार की सड़कों पर “अमेज़न डाट इन” का विधुतीय किपात पढ़ींए (इ बुक रीडर) का मशीन का विज्ञापन ज़रुर लगा है, जिसको जनता चिहा के देखती है. इस पोस्टर को देख कर एक दम्पति हाता नं 12 में पूछते पूछते पहुंचे. “अमेज़न डाट इन” के गुमटी से बीबी कोहना को भागी और बोली की 40 रुपिया भी गया और कुछु भेटाया भी नहीं. मेला में अगर आप लेखक/कवि है तो इस सदमे में मत रहिए की आप का भाषण/व्याख्यान/कविता संगीत मेला ठेला में कोई सुनने आयेगा. अपना श्रोता अपने साथ लेके चलिए. अगर आप दिल के कमजोर है तो मेला नहीं पार पईएगा दिल की बीमारी हो सकती है. आईए एक और बात बताते हैं. हाता नं 14 के सामने एक खाना-पान, चाय-साय का चौपाल लगा है. उस चौपाल पर लेग जाते है और चाय काफ़ी का दाम पूछ कर वाह से ऐसे भागते है जैसे किसी गुप्त क्लिनिक की दुकान से सभ्य आदमी पोस्टर देख के भागता है. चाय का दाम मात्र 70 रुपिया है. हाता नं 12 के सामने भी एक चाय की दुकान है जहां पर चाय काफ़ी का दम 30 रुपिया है. इस मामले को जानने केलिए हाता नं 12 में ढुक गया. एक पुस्तक बेचन वाली गुमटी देखि बहुत झालर मलार लगाया रहा और गुमटी के सामने ललका फीता से घेर दिया था और लिख दिया था नो इन्ट्री… मैंने कहा जब गुमटी लगाए भैया तो बेचते क्यों नहीं. आगे बढ़ा ओशो बाबा का गुमटी था एक सुंदर कन्या ललका पोसाक पहनी थी और किसी से गले ऐसे मिल रही थी, जैसे लोग विदाई के बाद भेट-घाट करते है. गनीमत थी की रो नहीं रही थी. मैंने सोचा इसका कोई करीबी या रिश्तेदार होगा. मैंने भी गुमटी में ढूका. उस गुमटी में चाकबादुर जैसे चिहा चिहा के देख रहा था. कि एक स्त्री ने मुझे ओशो की पुस्तकों के बारे में बताने लगी तभी भेट-घाट करने वाली युवती बिच में टपक पड़ी और बोली सन्यासी जी को मैं बता देती हूँ. सन्यासी जी को बातों-बातों में, आंखों आंखों में, ओशो के विषय में बिस्तर से बताया थोडा देर में अंदर ही अंदर उछ्नर होने लगी सोचने लगा कि कैसे पीछा छुडाऊ. खैर वह दिव्य छड आ ही गया जब मैं भनभना के भागने लगा. युवती बोली सन्यासी जी! गले मिलने के लिए मेरे कंधे तक उसके खुबसूरत हाथ पहुंचे ही थे कि मैं हड़बड़ी में हाथ जोड़ कर बोला माते फिर कभी आता हूँ और रोकेट की तरह वहा से उड़ा. बाप रे बाप यही लोग सन्यासी को बनबास बना देते हैं. सोचते हुए घर पंहुचा. अब किसी माजार पर जाने की ज़रुरत पड़ गई है…

19 फरवरी, 2014:   पांचवे दिन…  पुस्तक मेला के हाता नं 18 में अभी घुसबे किये थे कि दुरे से देखा कोई बुढा पहलवान दुगो नन्हा पहलवान अगले बगले लिए राजकम में दंगल के लिए जा रहे थे. जो जानेमाने पहलवान थे पर कभी मुकाबला नहीं करते और अगर इनसे कोई मुकाबला किया तो समझो जीवन भर दंगल का लायक नहीं रहा. दुआ सलाम हुआ, अब नन्हा पहलवानों में एक सिकिया पहलवान जुड़ गया. बाबा भोरे भोरे रेल से पहुंचे और नाहा-धो के पनपियाव करने के तुरत बाद चल पड़े थे. आज वो दूल्हा भी थे और समधी भी- “दुनिया को अपने… रखकर मस्ती में रहना… दुनिया और हम बजाए हरमुनिया” लेकिन आज मुरलिया वाले बाबा की इन्होंने पिपिहरी बजादी वैसे तो इसकी चर्चा बहुते जगह हो गई है. सुने में आया कि यह पुस्तक मा मुरलिया वाले बाबा की क्या इजरी पिजरी कर दिए हैं. भेदिया-धसान वाले भक्तों को पढ़ना चाहिए. लोग कहते है हीरा कहीं भी रहे चमकता ही है. निपटान को पूरब टोला के तरफ गया तो देखा की डायमंड पब्लिसिंग की गुमटी थी. शौचालय के बगल में जो चमक नहीं भभक रही थी. पूरे पुस्तक मेले में “नमो मन्त्र” से लेकर नमो मूत्र औषधि तक बिक रहा है. आशाराम जेल में मॉल उसका सेल में धका-धक चल रहा है. पुरुषों, स्त्रियों, युवा और युवतियों को सफ़ेद पोशाक पहनाकर काले कारनामे कराए जा रहे है. इसी प्रकार हिन्दयुग्म प्रकाशन के गुमटी में किसी सन्यासी ने ज़बरजती “नमो मन्त्र” औषधि की चार शीशी रखवा दिया है. इस शीशी को शैलेश जी जब जब देखते थे भनभना उठते थे. आज मनो हुंकार एवं फुफकार लेखक सम्मलेन भी हो रहा था, जिसमें कोई पोहटर बेनर नहीं था. जिन जिन को लेखक बनना था वो उस गुप्त रैली में बैठे थे. प्रथम लेखक नमो परियोजना 20 लाख की है जो “नमों और नरसंहार देश हित में” लिखी जानी है. ऊपर से एक लाख पुस्तक की खरीद-फ़रोख्त रायल्टी अलग से हैं. जैसे लेखक कोना-अतरा में फुफकार शुरु हुआ कुछ वामपंथी लमपंथी करने लगे. कुछ प्रगतिशील लेखकों को पता ही नहीं था की यह फुफकार लेखक सम्मलेन है, जिसमें किसी नमों मन्त्र-जंत्र कथा कहानी उपियास की चर्चा है जिसका खर्चा कर्ता-धर्ता कक्ष और भक्ष है. फिर प्रगतिशील लेखकगण फुफकार सुन कर धीरे धीरे ऐसे घिसकने लगे जैसे गाँव में आटा-पिसान देने के डर से लोग मदारी देखने के बाद घर में घुस जाते है. लेकिन एक हमरे भाई साहब थे उनको तो जंतर बांध दिया. पुस्तक मेला का सबसे महत्वपूर्ण स्थान मीडिया स्टडीज ग्रुप, जहा जन मिडिया पत्रिका मिलती है, वहां जो पहुंचता जड़ जमा लेता क्योंकि अनिल दा जब आते हैं एक खाची पकोड़ा-पकोड़ी, इस्कुट-बिस्कुट और रोटी में लगा के खाने वाला जाम-शाम लाते हैं. वहां चाय भी भेटा जाता है. फुल प्रूप जनता दरबार है. वहां आप मिडिया की कारगुजारी से लेकर कारखाना पर बहस-मुबाहिसे कर सकित हैं. अन्य किसी गुमटी में तो पानी और बिस्कुट भी नहीं भेटता है. शाम को दिल्ली के हसीन कवि प्रो. अशोक चकचक जो कुछ समय पहले भचकत रहें. क्योंकि साईकिल का स्वाद लेने सुबह सुबह निकले थे कि किसी कार वाले ने थोकरिया दिया था. मेला के समय स्वस्थ होके आज लाफिंग कवि कलीनिक का अकेले मजमा लगाए रहें साँझा तक. इस कवि ने अपना एक गुप्त राज भी बताया कि फेसबुक पर कसी महिला/पुरुष ने मुझे बेटा कहा और मुझे अति प्रसन्नता हुई. कृपया जनता से आग्रह हैं कि आप कविता पढ़ते समय न कहे वर्ना बच्चा स्कुल जाने लगेगा. इस हसीन कवि की कल्पना क्या तारीफ करू कल्पना इन्होंने कुकुर पर इतनी जबरजत कविता सुनाई की श्रोता कविता नामक हड्डी देख जाने का नाम ही नहीं ले रही थी संजोग की जरनेटर बताना पड़ा.

20 फरवरी, 2014:    मेले का छठा दिन… हाता नं 18 में अथर कार्नर पर राजकाल प्रकाश से प्रकाशित पुस्तक “तिनका तिनका तिहाड़” का लोकार्पण और परिचर्चा शुरू ही हुआ था कि किसी उजबक ने कान में मुह सटा के बोला ‘बहुते खर्चा भरा पोग्राम हैं जी, फुल-पत्ता सतरंगी खटिया (चारपाई) बहुते जबरजत है कुछ लोग तो यही सब देखन आया होगा’. दूसरा बोला बुडबक ‘तिहाड़ जेल का महिला कैदिया सब भेजवाई हैं सुश्री वर्तिका जी को आज बिहार करने के लिए. वैसे तो इस पुस्तक की संपादक/आथर विमला मेहरा भी थीं जो आथर कम पाथर ज्यादा लग रहीं थी. उनका व्यक्तित्व व संघर्ष झांक रहा था तो दूसरी अथर का छलक रहा था. यह किताब अद्भुत है. पहले देखि फिर संघर्ष के पश्चात वाचिए. इस किताब में एक अनूठा प्रयोग है दो पेज आपस में चिपके हुए है. जिसे पढ़ने केलिए पन्नो को खोलना होगा, ठीक वैसे ही जैसे किसी को रिहा किया जाता हैं. जिसका इस्तेमाल वर्तिका जी ने बताया. जनता ने चिहा के देखा और कहा यह तो ऐसे दिखा रहीं है जैसे सोटा (सर्फ़) का व्यवसाइक प्रचार (विज्ञापन) कर रहीं हैं. खरीदते समय इस कितव में पाठक सिर्फ फोटू देख सकित हैं अंदर का सामग्री नहीं बाच नहीं सकित हैं. इस किताब का पन्ना बिना ख़रीदे फाड़ दिए तो पुस्तक को खरीदना अनिवार्य हैं, वर्ना तिहाड़ का विहार करा दिया जायेगा. विमला जी ने थोडा बोला और पाठक ने ज्यादा समझा जैसे चिट्टी में लोग लिखते हैं “मई के मालूम की हम ठीक बानी थोडा लिखना जयादा समझाना” ठीक वैसे ही. दूसरी लेखिका ने अपने भाषण में कहा की “हमको माइक के सामने कुछ-कुछ होता है”. मंच पर एक भारी लेखक, पक्षकार, भाषा विज्ञानी जिन्होंने आजतक टीवी की भाषा को आम से खास बनाया इतने तारीफ के पुल बांधने के बाद एंकर चोकर के बोला यहां कबर वहिद नक्वी जी हमारे बिच हैं. भाई जब कबर ही खोदना था तो इतना तारीफ में टीला काहे खड़ा किए, साथ में सुश्री वर्तिका जी को भी एक्टिविस्ट बता. इस पुस्तक की रायल्टी/ पारिश्रमिक किसको दिया जायेगा यह बात मैंने नहीं सुनी क्योंकि यह सब बात सुन नहीं पता. जो इस पुरे आयोजन की सबसे अच्छी बात थी.  हाता नं 18 से बहार में रोज भोरे-भोरे फोर्टिस हास्पिटल का एम्बुलेंस हिंदी लेखकों को बीमार करने के इंतजारी में खडी रहती हैं. ठीक वैसे ही जैसे महापात्रों (महाबाभन) की बेगमे भोर में सील-बट्टा (सीलवट-लोढा) उलट कर कहतीं हैं कि हे महापात्र भगवान आज कोई बड़का जजमान परलोग सिद्धारे और सवा-सवा कुंटल चावल, दाल पिसान मिले घर के डेहरी में रखने की जगह भी न बचे. लेकिन संजोग की हिन्दी का बुजुर्ग लेखक भी बहुत चतुर हैं. पुस्तक मेला में आता ही नहीं है। जेब कटाने केलिए एनबीटी एमबुलेंस बुलाले या हास्पिटल…  हाता नं. 8 में साहित्य मंच बनाया गया है, जो दखिन कोना में स्थित हैं खास कर कुजात चर्चा के लिए. जहां से कोई हवा-बतास सवर्णों में न पहुच सके. इसी कुजात साहित्यिक मंच में दलित लेखक मोहन दास नैमिसराय कि पुस्तक ‘‘भारतीय दलित आंदोलन का इतिहस और भविष्य’’ पर चर्चा थी. लेखक न मोहन हैं, न दास हैं, न नेम हैं, वह सिर्फ व सिर्फ सराय हैं. सराय जी के सराय में हर वर्ग के लोगों का स्वागत होता है. वहा हर चिज दिखती है बिकती नहीं है- जैसे यह पुरस्कार मैंने लंदन में पाया था, इसे जर्मनी से लाने में बडा खर्च हो गया. पहले मैं चपल पहन के पैदल चलता था, साइकिल से चलता था अब कार से चलता हूं! यही उनका संघर्ष हैं. सराय के सराय में दलित लेखिका अनीता भारती को जब बुलाया गया तो बड़ा सोच विचार में थीं कि उनको इस सराय यात्रा में क्यों बुलाया जा रहा है पर पहुंचते उनको उनका जबाब मिल गया. दखिन टोला सराय में दलित ब्राहमण बजरंग बिहारी जी को संचालन दिया गया था. उनकी गति पवन सूत जैसी नहीं थी पूछत-पाछत पहुचे कोई कह रहा था कि नाम के सिर्फ हनुमान इनका बस चले तो संजीवनी पहाड़े फुक देंगे. इस आयोजन के वक्ता यह सोच के तय किया गया होगा की यह लोग अपने कुछ साथियों को बुलाएंगे या कुछ फलोवर पहुंच जायेंगे पर ऐसा हुआ नहीं. भगवान दास मोरवाल को भी बुलाया गया थायह सोच कर की रेत का खेत बढ़िया जोतते और हेंगाते है. वह भी मन मसोस के इस तेर के खेत में पहुचे थे पर उन्हें भी निराशा हाथ लगी. तुलसीराम के साथ जेएनयू से दस छात्र उनको सुनने आते थे उस समय कोई अटेंडेंट भी नहीं था. सराय जी से दो चार लोग आक्रांत थे इस लिए की वो भाषण देते हैं तो बाखोर लेते हैं लेकिन वह प्रकाशक के प्रति इतना कृतज्ञ थे कि कुछ बोल ही नहीं पाए. दलित भविष्य पर कम पुस्तक के भविष्य पर उन्होंने दो बात कहीं पहली बात-पुस्तक के विषय में समीक्षक लिखेंगे और दूसरी बात कि पुस्तक देश की प्रमुख पुस्तकालयों में पहुचेगी. सच कहा सराय जीने पाठक तो बोझा खरीदने से रही. अवजार खरीदने वाले पांच लोग बैठ के यह भाषण सुन रहे थे, हमको लगा पचमंगारा बियाह हो रहा है. पचमंगारा बियाह की स्थिति समन्वय के अंतर्गत हुए रंगमच पर चर्चा की भी थी. शाम को समन्वय के अंतर्गत नाटकीय/ नाच-गाना के विशेषज्ञों को भाषण लिए बुलाया गया था, पर यह समन्वय का आयोजन कम विनमय आयोजन ज्यादा था. दो विशेषग्य भाग पराए थे पहुंचे ही नहीं. ठोस वक्ता अमितेष जी दुगो लुहेड़ा श्रोता लेके पहुचे थे, वर्ना कोई सुनने वाला नहीं था और जिनको सुनने के लिए बुलाये थे ऊ लोग अफना-अफना के पुस्तक मेला खोज मारा समन्वय मंच नहीं मिला. किराया भारा भी बेकार चला गया. अमितेष जी से मुलाकात मेट्रो में चढ़ेसमय हुई. इस आयोजन में श्रोता की बात छोडिये वक्ता भी दुगों सुने कही से जुगाड़ा के लाना पड़ा. यह आयोजन दो ठोस और दो द्रव्य वक्ता मिल के निपटाए. पुस्तक मेला में आप को दफती चपकाए हुए भी कुछ लोग मिल जायेंगे वक्ता/विशेषग्य उपलब्ध हैं! यह काहे हुए की कहा करना है! भाषण. इंदौर से आए सत्यनारायण पटेल की पुस्तक का लोकार्पण था. जनता खचमच-खचमच किए रही, अब होगा की कब होगा, कोई बोला लोकार्पण पुरुष की मेट्रो ट्रैफिक में हैं पहुच ही रहे होंगे. सतु का परना सुखाईल जा रहा था. किसी ने कहा की गेट नं पिछवाड़े लोकार्पण पुरुष पहुंच गए हैं तब सतु का जान में जान आई. साँझ को दुलरुआ लेखक किसी स्त्री लेखिका के उपन्यास पर चर्चा किए जो खर्चा रहित था. कविता सुनने व देखने वालों भी भीड़ साँझ को अच्छी रही क्यों कि एफम गोल्ड की रेडियों फुकनर (उद्घोषक) लटकन झटकन कवीत्री ने भी अपनी कविता पढ़ी जो पढ़ नहीं पातीं है उन्होंने ऐसा खुद कहा. अंत में कविता के साथ बाजार का सेंसेक्स 7 दशमलव 48 बजे पर गार्डो की बजाई सिटी के साथ बंद हुआ.

21 फरवरी, 2014:   सातवां दिन… हाता नं 18 का आर्थर कार्नर पाथर नहीं गुलजार था. क्योंकि “बाग़-ए-बेदिल” का दिल-ए-नादान कल्बे कबीर (कृष्ण कल्पित) वहा शुक्रवार की नमाज़ आदा करने वाला पहला मुसलमान था. कल्बे कबीर को देखने सुनने भारी मात्र में लोगों का जुटान था लोग चिहा चिहा के “बाग़-ए-बेदिल” को देख रहे थे. यह पुस्तक पढ़ने और युद्ध में कपार फोरने दोनों में उपयोग गो सकती है. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया इस्लामिया के वामपंथी फरार थे. समय से न पहुंचने वालों को नमाज आदा करने की मनाही थी. पुस्तक “बाग़-ए-बेदिल” के विमोचन का मामला था इस लिए कवी/शायर अशद जैदी को कल्बे कवीर ने कैदी बना दिया था. डिजिटल पोइट्री /वर्चुअल पोइट्री के अवजार से कल्बे कबीर ने साहित्य जगत व पक्षकारिता के लोगों की इजरी-पिजरी से पेट-पिछवाडा ख़राब करने वाले पहले शायर/कवि हैं. दूसरी नमाज आदा करने कल्बे कबीर बाग़-ए-बेदिल पहुचे थे इसमें कोई शक नहीं वह पक्का मुसलमान हैं. जब छोटकुआ कवि अशोक पण्डे के साथ बाग़-ए-बेदिल मम्मान में बाग़-ए-बेदिल मज़ार पहुंचे. मटका पीर के ओह तीर डांक के पहुचे. पुस्तक मेला में लेखक लोग आंचा-पांचा, चमड़ी-दमड़ी के जुगाड़ में लगे हुए थे औए एक पंचमंगारा बियाह जैसे पांच लोगन के उपस्थिति में कल्बे कबीर बाग़-ए-बेदिल सम्मान से अशोक पण्डे को सम्मानित कर रहे थे. यह पुरस्कार साहित्य अकादमी के पुरस्कार से भी बड़ा था, क्योंकि इस सम्मन में अशोक पांडे को अल्कौसर, स्वेत लम्ब दंडित और “बाग़-ए-बेदिल” पुस्तक भेट दी गई. पुरस्कार वितरण के बाद इस पाक स्थल पर अशोक पण्डे को नमाज अदा कराइ गई और उन्हें एक मुसलमान का दर्जा देकर रिहा कर दिया गया. इस अवसर पर अजन्ता देव और अशोक पण्डे ने अपनी कविता भी पढ़ी. बाग़-ए-बेदिल की खोज कल्बे कबीर ही कर सकते हैं क्यों वो एक अच्छे पुरात्ववेत्ता कवि हैं. यह स्थल बहुत ही रमणीय हैं, गजोधर कवि जब कभी मौका मिले जरुर जाएं. किताबों के ऑन लाइन बाजार पर शैलेश भारत बासी ने चर्चा की जो अभी ठीक से आँफ हि नहीं हुए ऑन होने की सोच रहे हैं. राजकमल में पिता ऑफ़ व्यापार हैं तो बेटा व्यापार ऑन होने की सोच रहा है. वाणी प्रकाशन को तो छाडी दीजिए वो बाप बेटी कब ऑन होते कब ऑफ़ यह सिर्फ पुस्तकालयों को पता होता है. इस आयोजन में रंग लगाने रंगनाथ बीबी…. सी जी भी पहुंचे थे, मंच रंग रंग रहा. भरी दुपहरिया हाता नं 18 में अशोक बाजपेइ, मनेजर पण्डे, केदारनाथ जी “हिंदी साहित्य का अतीत और वर्तमान ” की चर्चा किया. इस चर्चा को सुनकर जनता भारी कन्फुज हो गई क्यों कि हिंदी वर्तमान है या भविष्य इसी में डिसफुज हो गई. नन्हा आलोचक/कथाकार संजीव कुमार जी इस आयोजन का संचल करते हुए कहा की मैं प्रश्न उछलूंगा और आप सभी बरिष्ठ जुझिए गा. अशोक बाजपेइ, मनेजर पण्डे, केदारनाथ जी प्रश्नो से जूझते कम कूदते ज्यादा नजर आए. नमो मूत्र औषधि भंडार से लौटते हुए संकट नोचन व्यक्ति ने मानेज पण्डे द्वारा छिनरा राम-लक्ष्मण की आलोचना करने पर भांग भभूत बन बैठा, पण्डे जी का तो जाने लेलिया होता, अगर जनता उसकी इजरी पिजरी नहीं करती. आथर कार्नर में चाकर कथाकार उदय प्रकाश साँझ के समय पालगोमरा के स्कूटर लेकर पहुच गए. एक-एक कल-पुरजा टायर से लेकर टूब तक के बारे में बता जो बेहद रोचक रहा. उन्होंने बतया की पलगोमारा का बचपन का नाम “ई” रहा, जवानी में “ऊ” रहा, गाँव में लोग “चू” कहते थे आब मैं ताल ठोक के अपने को पलगोमारा कहता हूँ. हम तो देखते भाग गए पालगोमरा का स्कूटर में सैलेंसर नहीं था. बहुत भोकार मारने वाला था. शुक्रवार के संपादक विष्णु नगर जी के गागर से निकली पुस्तक “जीवन भी कविता हो सकता है” का विज्ञापन विश्वनाथ त्रिपाठी ने अंतिका प्रकाशन के गुमटी में किया. वर्तिका तोमर नामक कवित्री की पुस्तक का विज्ञापन वर्तिका नंदा जी ने अंतिका प्रकाशन में किया. विष्णु नागर वैश्विक ताकतों के खिलाफ व्यंग भरी कवितओं जनता जनता को खरीद फरोख्त से आगाह किया. मीडिया स्टडीज ग्रुप के फुटपाथ पर देर से पहुंच, अनिल चमडिया दा ने ज्ञान मिला तो दिया पर पौड़ी के मरहूम रहना पड़ा. बाजार बेहद निराशा जनक रहा चस्पा चस्पा पुस्तक के जुगाड़ में पाठक भी देखे गए.

22 फरवरी, 2014:    आठवां दिन… हाता नं 18 का आर्थर कार्नर में आ गई थी हरियाली, कुछ आर्थर कतार भारी निगाह से तो कुछ कनखियां से देख रहे थे. गजोधर, चटोधर, सकोधर, भकोधर कवि लोगन DSC_0119पुस्तकन का लोकार्पण मानो अइसे कर रहे थे जैसे जुर्योधन द्वारा द्रोपदी माता चीरहरन. कार्नर में बैठी जनता द्रोपदी माता के इस चीरहरन पर थापर-थापर थपरी पिट रही थी. कुछ स्त्री-पुरुष लेखक-लेखिका तो अपने साथ थपरी बजाने वालन के भी लाई रही. जिनमें खास कर उनकी नौकरानियां शामिल थीं. इस संग्रह में उस पर भी चार कविता भी लिखी थीं. स्त्री-पुरुष कतारबद्ध होकर खड़े थे अपना अपनी पुस्तक का ठोंगा लेके अपनी पारी के इंतजार में. अपनी कविता संग्रह का अनावरण करने के बाद एक कवीत्री ने अपनी सहेली से कहा ये सखी हम तो कुछु बोली नहीं पाए, उनको देख के लाजा गई. दूसरी तरफ अंतिका प्रकाशन के गुमटी नं 88 में ननकुआ कवि (अरविन्द जोशी) एक चित्र खीचाने के साथ मित्र को सहयोग राशी के साथ अपनी कविता संग्रह “मैं एस्ट्रोनाट हूँ” पर हस्ताक्षर के साथ अन्तरिक्ष यात्रा पर ऐसे भेज रहा था. ननकुआ कवि किताब पर शियाही वाली कलम से हस्ताक्षर कर के फूक-मार के सूखाता फिर अपने सिने में चपकाता और संग्रह को देता तो लगता था की अपनी प्रेमिका को किसी को सौप रहा है. पुस्तक मेला के स्त्री-पुरुष कवि लेखक मंच नामक ग्रह पर बौडीया रहे थे और ननकुआ कवि अंतरीक्ष में रोकेट में बैठ के मौज मार रहा था. ननकुआ कवि के एक और परिचय उसने हमको अपना पाहून स्वीकार लिया मैंने भी लगे हाथों एक दूसरा पहाड़वाद शुरु किया हैं जिस को भी शामिल होना है इस पहाड़वाद में शामिल हो जाओ, अगला मुशायरा 21 मार्च को इंडिया हैबिटेट सेंटर में करना है, जिसमे ननकुआ कवि का बर-बरछा, तिलक-बियाह, गौऊना-दोंगा और विदाई भी करना है. क्यों कुल जमा अभी तक उत्तराखंड का यही पहाड़ी है जो मुझे अपना पाहून मानने को तैयार हुआ है, तो भाई हमको भी तो अपना रिश्ता निभाना है. वैसे ननकुआ कवि की पुस्तक का लोकार्पण रविकांत भाई और युवा कवि आलोचक जितेन्द्र श्रीवास्तव ने अंतिका की गुमटी में किया, जितेन्द्र भाई हमरे आग्रह पर अपने बड़का भाई का फ़र्ज आदा किए. इसी गुमटी में लीलाधर मंडलोई काका ने मेरे कामरेड गुरु स्व.अरुण प्रकाश की पुस्तक “कहानी के फलक” पुस्तक का लोकार्पण किए. साँझा को लेखक मंच पर एक कवि टंच होक चढ़े, जैसे ही अपनी कविता पढ़ने केलिए जेब से कागज निकले की पीछे से आवाज आई, ससुरा नून-मसाला, धनिया-जीरा, सोठ-हरे मग्रैल का पुरजी निकाल रहा है क्या. कविता तो ऐसे पढ़ी जैसे अलवात मेहरारू कहर रही हो. कल पूरा दिन मेला में कविता ही कविता का संसार था. हाँस्य कवि फांस कवि बन गए थे. अभी तक कविता सुना के लोगों को हंसाया करते थे पर शनिवार को उनको कवियों ने कविता सुना-सुना के पका दिया. बाग-ए-बेदिल के लेखक कल्बे कबीर पुस्तक मेला छोड़ जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में अपनी कविता की सूक्तियां बाच रहे थे. हिंदी कवियों की कविता कल रही तेल में और ननकुआ कवि की ढेर सारी कविता संग्रह हस्ताक्षर के साथ सेल में, “या अदब तेरे कौसर में न तल्खी थी न मस्ती” इसी के साथ हिंदी साहित्य का बाजार बंद हुआ. नोट- अगर किसी के साथ उच्च-नीच हो जाए तो बनारस की ठंढई पीके भुला दीजिए. अइंचा-पइचा, इजरी-पिजरी का महिना है…

23 फरवरी, 2014:     विश्व पुस्तक मेले का नौवां यानी आखिरी दिन…  हाता नं 18 का लेखक मंच पर मौलवी साहब का भाषण हो रहा था, विषय “वेद और कुरान कितने दूर कितने पास” भाई जिसे लिखा ही गया है मनुष्य को बांटने केलिए, मौलवी जी वेद और कुरान को मिलाने चले थे. इतने में वहा की बत्ती होगई गुल. लेखक मंच पर शाम तक बत्ती नहीं जली सकी. हिंदी के लगभग सभी आयोजनों के वक्त बदल गए थे, क्यों की मेले में कोई जलवा नहीं राह गया था. वक्ता लोग जब नहीं आए तो किसी को खपाया गया किसी को ठेकाया गया. क्यों की आज नौवा था. इस लिए लेखक/लेखिकाओं का पांव भारी हो गया था. दिन भी तो रविवार था. कोई पति तो कोई पत्नी की कर रहे थे/थी सेकाई और दवाई. आज के दिन लेखक मंच में वक्तओं का ऐसा हाल रहा जैसे लानटेन का बर्नल कभी भक दे जलता था, तो कभी बुतात जाता था. वक्तओं में कोई अह्नुआइल, कोई भकुआइल, कोई भक-भकाइल रहा. “युवा लेखन” पर हो रहा था भाषण युवा लेखक तो ऐसे गोटिया के बइठल थे जैसे जुआ खेल रहे हों. सुनने वाले कोई नहीं था, कुछ जनता देखन वाली थी. जिनको यह भाषण गमकऊआ तेल के जैसे कापार के ऊपर से उर रहा था. शोषण  मीडिया (सोसल मीडिया) विषय पर गर्दा-गर्दी चर्चा हुई एक वक्ता ऐसे भी थे जो शोषण मीडिया की बात छोडिये पोषण मीडिया के कऊआ तक नहीं जानते थे. जेएनयू के बाबा ने अच्छा प्रवचन दिया. हडहवा महटर चार पोछिटा चेला के साथ भर बाजार घूम लिए और एक तरकारी भी नहीं ख़रीदे. छोटे प्रकाशकों के लिए पुस्तक आज तरकारी बाजार था. रेल का मॉल सेल में, अंतिका प्रकाशन ने भारी मात्र में कर दिया छुट उस पर भी उसे करना पड़ा पुस्तक लेजाने के लिए दो ऊंट. मध्य प्रदेश से आया था युवा लेखकों का गोल वो नहीं करते थे किसी किताब पर मोल, वो लेखक कम मदरसिया जयादा थे. सुनील और सत्यनारायण ने किताबों की गठरी तो ऐसे बाधी जैसे सतुआ-पिसान मोटरी हैं. आखिरी दिन सभी प्रकाशक अपना अपना सेल-तेल करने में व्यस्त थे इस लिए सेटर-चेटर किस्म के लेखक लोग कम देखने को मिले. अंत में लेखक मंच पर हो रहा था विदेश से आमंत्रि लेखकों का सम्मान वाही मंच के पीछे स्टेंड वाला बैनर ऐसे खड़ा किया गया था जैसे दुआरी के टाटी. हाता नं 18 में साँझ को कार्पेट समय से पहले लपेटा जाने लगा जिसे हाता गर्दा-गर्दा हो गया. इस गर्दे को हिंदी का सम्मान कहिए या फागुन की ठिठोली. इसी के साथ बाजार अफरा-तफरी में बंद हुआ बत्ती गुल थी इस लिए सेंसेक्स बताना मुस्किल है.

नोट- अगर किसी के साथ उच्च-नीच हो जाए तो बनारस की ठंढई पीके भुला दीजिए. अइंचा-पइचा, इजरी-पिजरी का महिना है…

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