BeyondHeadlinesBeyondHeadlines
  • Home
  • India
    • Economy
    • Politics
    • Society
  • Exclusive
  • Edit/Op-Ed
    • Edit
    • Op-Ed
  • Health
  • Mango Man
  • Real Heroes
  • बियॉंडहेडलाइन्स हिन्दी
Reading: मुस्लिम अल्पसंख्यक राजनीति: समाधान ही समस्या?
Share
Font ResizerAa
BeyondHeadlinesBeyondHeadlines
Font ResizerAa
  • Home
  • India
  • Exclusive
  • Edit/Op-Ed
  • Health
  • Mango Man
  • Real Heroes
  • बियॉंडहेडलाइन्स हिन्दी
Search
  • Home
  • India
    • Economy
    • Politics
    • Society
  • Exclusive
  • Edit/Op-Ed
    • Edit
    • Op-Ed
  • Health
  • Mango Man
  • Real Heroes
  • बियॉंडहेडलाइन्स हिन्दी
Follow US
BeyondHeadlines > Edit/Op-Ed > मुस्लिम अल्पसंख्यक राजनीति: समाधान ही समस्या?
Edit/Op-EdLead

मुस्लिम अल्पसंख्यक राजनीति: समाधान ही समस्या?

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published February 22, 2014
Share
11 Min Read
SHARE

मुस्लिम बस्तिकरण:  एक समस्या?

Faiyaz Ahmad Wajeeh & Meraj Ahmad for BeyondHeadlines

चुनाव से ठीक पहले ही मुस्लिम समाज की दशा-दिशा पर चर्चा हो, ऐसा बिलकुल ज़रूरी नहीं है. चूँकि राजनीति, विशेषकर ‘कम्युनल पॉलिटिक्स’ और ‘आइडेंटिटी-पॉलिटिक्स’, सामाजिकता को परिभाषित करती रही है. इसलिए चुनाव से पहले मुस्लिम समाज पर एक नज़र डालने के लिए ‘अल्पसंख्यक राजनीति का सच: समाधान ही समस्या?’ शीर्षक की कड़ी में ये पहला लेख है. मुख्य रूप से चार मानकों पर मुद्दों की कसौटी तय होनी है: समस्या, समस्या का कारण, समाधान और अंत में निष्कर्ष.

मुस्लिम समाज में बस्तिकरण (Ghettoisation) की घटना को एक बड़ी समस्या के रूप में देखा जा रहा है, खासतौर से शहरी इलाकों में… इस परिघटना को समझने के लिए जो तर्क रखे गए हैं वो आपस में अंतर्विरोधी जान पड़ते हैं. जहां एक समझ यह है कि सांस्कृतिक और वैचारिक आवश्यकता के कारण मुस्लिम समाज को बस्तिकरण की आवश्यकता है, वहीं इसका एतिहासिक पहलू यह भी है कि मुस्लिम समाज एक सबसे ज्यादा शहरीकृत समाजों में एक समाज है जिसका कारण है सदियों का ‘मुग़ल साम्राज्य’.

दूसरी तरफ यह कहा जाता रहा है कि लगातार होते रहे दंगो के कारण जन्मी असुरक्षा की भावना सबसे प्रमुख कारण है, और हाल में गुजरात इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. अहम पहलू है कि लगातार आतंकवादी गतिविधियों के कारण मुस्लिम समाज की “स्टीरियोटाइपिंग” ने शहरी इलाकों की मुख्यधारा में मुस्लिम परिवारों को जाने से रोका है.

थोड़ी गहराई से देखें तो इस परिघटना के कारणों  को दो भागों में बांटा जा सकता है: ‘बस्तिकरण- एक आवश्यकता’और ‘बस्तिकरण- एक मजबूरी’.

बस्तिकरण सिर्फ मुस्लिम समाज में है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं होगा. ज़ात-धर्म आधारित बस्तिकरण की घटनाएँ न सिर्फ भारतीय समाज का हिस्सा हैं बल्कि दूसरे कई देशो में भी ये आम है. इन तर्कों में कुछ न कुछ सच्चाई ज़रूर है लेकिन अब सबसे बड़ा सवाल है- क्या शउरी तौर पर इसे दूर किया जाना चाहिए? एक तरफ तो मज़हबी ज़रूरत तो दूसरी तरफ नागरिकता का हनन? दरअसल समस्या दो तरफ़ा है.

चूँकि अब राजनीति का मुख्य-मुद्दा सेक्युलर मूल्यों की सुरक्षा है, इसलिए राजनीतिक तौर से यह मुद्दा मुस्लिम समाज के परिपेक्ष्य में ज्यादा सार्थक दिखाई देता है. ऊपर दिए गए कई तर्कों में एक तर्क है- सांस्कृतिक और वैचारिक आवश्यकता. ये वही आवश्यकता है जिसके आधार पर देश का विभाजन हुआ. सवाल अब भी वही है- क्या मुस्लिम समाज को ऐसी आवश्यकताओं की आवश्यकता है? संविधान में दिए गए मौलिक आधिकार धार्मिक आधार पर समूह बनाने की आज़ादी देते हैं, और ये मौलिक अधिकार दिया भी जाना चाहिए, लेकिन क्या ‘धार्मिक आधार पर बस्तिकरण’ एक सेक्युलर देश में तर्कसंगत है, इस पर भी विचार किया जाना चाहिए.

बस्तीकरण के कारण ही विकास के मामले में प्रशासनिक भेदभाव संभव हो पाता है. शायद यही वजह है कि मुस्लिम समाज के विकास के लिए देश के 90 माइनॉरिटी सघन जिलों के लिए केंद्र सरकार की तरफ से विशेष पैकेज बनाने की घोषणा की गयी. लेकिन इसके बावजूद योज़ना को पूर्णतः लागू नहीं किया जा सका, जिसके कारण ब्लॉक लेवल पर ही योजना को लागू करने की बात कही गयी. लेकिन अब भी ज़मीनी हकीक़त कुछ और है.

बस्तिकरण की एक प्रमुख वजह- असुरक्षा की भावना-  के कई कारण हैं. प्रत्यक्ष दृष्टि में निरंतर होते रहे दंगों ने बस्तिकरण को बढ़ावा दिया है. क्या बस्तिकरण दंगो को रोकने या उसके प्रभाव को कम करने में कारगर साबित हुआ है?आज़ादी के बाद से लेकर मुज़फ्फरनगर तक हुए दंगों में सबसे ज्यादा प्रभावित क्षेत्र वे रहे हैं, जहाँ मुस्लिम समाज की घनी बस्तियां थीं.

वास्तव में देखा जाये तो ये बस्तियां, और विशेषकर इन बस्तियों में रहने वाला, गरीब और पिछड़ा मुस्लिम सबसे अधिक पीड़ित रहा है, और आज भी न्याय की गुहार लगा रहा है. जुहुपुरा (गुजरात) इसी कड़ी में संभवतः सबसे बड़ा “घेटटो” है. गुजरात दंगे के पश्चात् यहां अतिरिक्त लगभग डेढ़ लाख लोग रहने के लिए मजबूर हैं. मुख्य समस्या है इन इलाकों में बिजली, पानी, सड़क जैसी बुनियादी सुविधाओं की शासन-प्रशासन द्वारा अनदेखी, जबकि बगल के ही “धर्मभूमि समाज” में सारी सुविधाएँ मौजूद हैं.

सवाल सिर्फ बुनियादी ढांचों का ही नहीं है, बल्कि स्कूल, हॉस्पिटल जैसे मौलिक अधिकार का मौजूद न होना बड़ी समस्या है. ऐसे सवाल राजनीतिक पटल पर खुलकर नहीं रखे गए हैं.  मुज़फ्फरनगर के दंगे ने शायद पहली बार ग्रामीण इलाकों में बस्तिकरण को बढ़ावा दिया. इसका सीधा अर्थ है कि हमने पिछली गलतियों से नहीं सीखा है.

योगिंदर सिकंद की माने तो मुस्लिम समाज की सामाजिक-आर्थिक स्थिति से जुडी कोई भी स्टडी मुस्लिम समाज में बढ़ते बस्तिकरण की समस्या की अनदेखी नहीं कर सकती है. हम कह सकते हैं कि आर्थिक सलाहकार भी दंगे के कारण हुए प्रवासन से आँख नहीं मूंद सकते.

दंगे क्यों होते हैं? तमाम जवाबों में एक प्रमुख जवाब है- दंगे होते नहीं बल्कि राजनीतिक उद्देश्यों के लिए करवाए जाते हैं. निरंतर होते रहे दंगो को रोकने के लिए आधारभूत प्रयास का दावा आज कोई भी राजनीतिक पार्टी नहीं कर सकती है. यदि गहराई से देखा जाये तो स्पष्ट है कि राजनीतिक प्रयासों का स्वभाव भविष्य में दंगे न होने देने के नहीं रहे, बल्कि न्याय दिलाने के नाम पर राजनीति के रहे हैं.

ऐसा अक्सर कहा जाता है कि एक दंगे में पूर्ण न्याय हो जाये तो संभवतः दूसरा दंगा संभव नहीं है. लेकिन इसके लिए भी प्रयास नहीं किये गए. यह प्रयास न सिर्फ ‘सेक्युलर’ समझी जाने वाली पार्टियों के तरफ से होने थे, बल्कि मुस्लिम समाज की लीडरशिप (धार्मिक और राजनीतिक) की तरफ से भी होनी थी.

तर्क यह भी दिया गया कि चूंकि मुस्लिम समाज का नुमाइंदा न के बराबर है, इसलिए सरकारों पर दबाव नहीं बन पाता. यह मिथक भी मुज़फ्फरनगर के दंगे के बाद इसलिए टूट गया क्योंकि साठ से अधिक मुस्लिम विधायक इस बार विधानसभा भेजे गए थे.

साथ ही साथ चर्चा रही कि मुस्लिम समाज अपनी पार्टी स्वयं बनाये. मुस्लिम समाज विशेष आधारित पार्टी का आईडिया कई मामलों में बड़ा भ्रामक है, और यह भ्रम अब पूरी तरह से टूट जाना चाहिए. जनांकिक वितरण को देखते हुए ऐसी राजनीतिक पहल न सिर्फ असंभव है, बल्कि यह भगवा-बिग्रेड को मज़बूत कर साम्प्रदायिकता को बढ़ाने का काम भी करेगी. इसलिए इसकी वकालत करने वालों से मुस्लिम समाज को सावधान रहने की ज़रूरत है.

कुछ लोगों का यह भी मानना है कि सरकारी योजनाओं का पालन न होने का एक प्रमुख कारण है, मुस्लिम समाज का सरकारी सेवाओं में न होना. इस समस्या पर विस्तृत चर्चा अगले भाग में की जानी है, लेकिन यहां इतना कह देना ज़रूरी होगा कि सेवाओं के लिए अहर्ता जुटाने के ठोस और व्यवहारिक प्रयास राजनीति रूप से मुस्लिम समाज की तरफ से भी नहीं किये गए.

ग्रामीण क्षेत्रो में बस्तिकरण के दुष्परिणाम कही ज्यादा है. मुज़फ्फरनगर के रचे गए दंगे इसका सबसे बड़ा सबूत हैं. ग्रामीण इलाकों में प्रशासनिक भेदभाव की संम्भावना भी ज्यादा बनी रहती है. इसलिए विशेषकर ऐसी जगहों पर “inter-community interaction” शहरी इलाकों से ज्यादा ही होना चाहिए.

बस्तिकरण निरंतर होता रहा है, लेकिन सच्चाई है कि “सेंस ऑफ़ इनसिक्यूरिटी” और “प्रॉब्लम ऑफ़ सस्पिशन” ने इसमें इज़ाफा किया है. अब तक इस समस्या को दूर करने के क्या राजनीतिक प्रयास किये गए हैं? सामाजिक आधार पर बस्तिकरण को तोड़ने को मुस्लिम समाज की तरफ से क्या पहल हुई?

धार्मिक-आइडेंटिटी की दिखावी सियासत ने समस्या को और बढाया. दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि “बस्तिकरण” का वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया गया. इस वजह से भी बस्तिकरण को बनाए रखने में राजनीतिक हित समझा गया.

हमें समझना होगा कि मिली जुली सांस्कृतिक विरासत वाले देश में मुस्लिम समाज की तरफ से बस्तिकरण के खिलाफ ठोस पहल होनी चाहिए. यदि मुस्लिम समाज को शक की निगाह से देखा जा रहा है तो कहीं न कहीं इसका कारण ‘इनवर्ड-लूकिंग’ मानसिकता भी है.

मुस्लिम समाज की सामाजिक-राजनीतिक योग्यताओं पर भी सवाल किये गए. क्या मुस्लिम लीडरशिप की ‘राजनीतिक कथनी’ ने बस्तिकरण को बढ़ावा दिया है? मुस्लिम लीडरशिप को भी न सिर्फ “इमोशनल” मुद्दों से बाहर आकर देश और समाज के हर मसले पर बोलना होगा, बल्कि देश की प्रगति के हर क्षेत्र में बराबर का भागीदार बनने के लिए स्वयं को तैयार कर देश की मुख्यधरा में शामिल होना होगा.

इसके लिए ज़रूरी होगा थोपी गयी लफ्फाजियों को पूरी तरह से नकार देना… बस्तिकरण दोनों तरह की राजनीतिक पार्टियों (सेक्युलर और कम्युनल) के लिए सियासी चारा साबित हुई हैं. वास्तव में ये सामाजिक नहीं राजनीतिक-बस्तिकरण है, और इसमें दोनों ही पक्ष-डायरेक्टली या इनडायरेक्टली-ज़िम्मेदार हैं.

आखिर बस्तिकरण बनाये रखने में या लगातार बढ़ाने में किसका हित है? दलील है कि यदि सुरक्षा की भावना पैदा की जाये तो मुस्लिम समाज मुख्यधारा में आ जाएगा. सवाल है- आखिर पहल कहां से होगी. क्या मुख्यधारा में आने का प्रयास ही सुरक्षा की भावना को विकसित नहीं करेगा?

(लेखक जे.एन.यू. में शोध छात्र हैं. इनसे  faiyazwajeeh@gmail.com और merajahmad1984@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.)

References:

–    The Hindu: With Delhi landlords, hard to escape the stereotype

–    The Hindu: Housing apartheid flourishes in Delhi

–     IBT: A Tale of ‘Two Cities’: Hindu-Muslim Divide deepening in Ahemdabad, India

–  Monthly Renaissance: Ghettoisation and Muslim: Trend and Consequences- Yoginder Sikand

TAGGED:muslim politics
Share This Article
Facebook Copy Link Print
What do you think?
Love0
Sad0
Happy0
Sleepy0
Angry0
Dead0
Wink0
“PM Modi Pursuing Economic Genocide of Indian Muslims with Waqf (Amendment) Act”
India Waqf Facts
Waqf Under Siege: “Our Leaders Failed Us—Now It’s Time for the Youth to Rise”
India Waqf Facts
World Heritage Day Spotlight: Waqf Relics in Delhi Caught in Crossfire
Waqf Facts Young Indian
India: ₹1,662 Crore Waqf Land Scam Exposed in Pune; ED, CBI Urged to Act
Waqf Facts

You Might Also Like

IndiaLatest NewsLeadYoung Indian

OLX Seller Makes Communal Remarks on Buyer’s Religion, Shows Hatred Towards Muslims; Police Complaint Filed

March 8, 2025
IndiaLatest NewsLeadYoung Indian

Shiv Bhakts Make Mahashivratri Night of Horror for Muslims Across India!

March 4, 2025
Edit/Op-EdHistoryIndiaLeadYoung Indian

Maha Kumbh: From Nehru and Kripalani’s Views to Modi’s Ritual

February 7, 2025
HistoryIndiaLatest NewsLeadWorld

First Journalist Imprisoned for Supporting Turkey During British Rule in India

January 5, 2025
Copyright © 2025
  • Campaign
  • Entertainment
  • Events
  • Literature
  • Mango Man
  • Privacy Policy
Welcome Back!

Sign in to your account

Lost your password?