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BeyondHeadlines > Lead > देश की जनता से कुछ सवाल…
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देश की जनता से कुछ सवाल…

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published February 3, 2014
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11 Min Read
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Dr. Rajesh Garg for BeyondHeadlines

यूं तो “खानदानी सियासत” का इतिहास पूरे विश्व में बहुत पुराना है. पर शायद पूरी दुनिया में हिन्दुस्तान ही एकमात्र ऐसा देश है, जहाँ राजनैतिक वंशवाद को इतने व्यापक स्तर पर समर्थन हासिल है और ऊपर से तुर्रा ये कि इस मुल्क की जनता ने सिर्फ एक नहीं बल्कि दसियों “खानदानों” को अपने सिर माथे पर बैठा कर उनकी ऐसी पूजा-अर्चना की है, जिसका उदाहरण शायद समूचे विश्व के लोकतान्त्रिक इतिहास में कहीं नहीं मिलता होगा…

वंशवाद का ज़हर हिन्दुस्तान की राजनीति की नसों में गहरे पैठ बना चूका है… राहुल, सोनिया के गाँधी–नेहरु खानदान से होती हुई वंशवाद की ये अविरल धारा सबसे पहले राष्ट्रपति भवन में प्रणब मुखर्जी साहब से चरणों को धोती हुई कश्मीर में अब्दुल्ला खानदान, पंजाब में बादल और अमरिंदर सिंह परिवार, हरियाणा में चौटाला, जिंदल, सुरजेवाला और हुड्डा वंश, दिल्ली में शिला दीक्षित और गोयल, हिमाचल में धूमल और वीरभद्र, राजस्थान में पायलट, छतीसगढ़ में जोगी, मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह और सिंधिया परिवार, महाराष्ट्र में नारायण राणे, ठाकरे और शरद पवार खानदान, आंध्र में रेड्डी, तमिलनाडु में करूणानिधि, कर्नाटक में देवेगौडा, बिहार में लालू, झारखण्ड में सोरेन, उत्तराखंड में विजय बहुगुणा परिवार से गुजरती हुई उत्तर प्रदेश में अजित सिंह, राजनाथ सिंह, वरुण गाँधी को पार करके मुलायम सिंह यादव के भरे-पूरे कुनबे में जाकर खत्म होती है…

और वंशवाद के इस अविरल प्रवाह में कई और राज्यों के अंदरूनी शहरों और जिलों की कई हज़ार जानी-अनजानी छोटी-छोटी खानदानी धाराएं भी सम्मलित हो कर इसे एक विराट रूप प्रदान करती है… ऐसे लगता है कि जैसे पूरा मुल्क ही कुछ परिवारों की जागीर बन कर रह गया है… जैसे हम इनके ख़रीदे हुए गुलाम हैं जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी इनके चाकर बन कर इनकी सेवा करते जाएं…

महान देशभक्त सरदार पटेल ने जिस शिद्दत से विभिन्न रजवाड़ों को झुकाकर उन्हें एक साथ लाकर भारत गणराज्य का सपना पूरा किया उन्होंने कभी अपने सपनों में भी नहीं सोचा होगा कि आज़ादी के कुछ सालों में ही ऐसा भी एक दिन आएगा कि इस मुल्क में “ राजशाही रजवाड़ों” की जगह “राजनैतिक रजवाड़े” कुकरमुत्तों की तरह उग आयेंगे…

पर क्यों इन राजनैतिक रजवाड़ों को इतना महत्व देती है इस मुल्क की ज्यादातर जनता ?

-कहीं ऐसा तो नहीं कि सालों-साल विदेशी आक्रान्ताओं के गुलाम रहने वाले इस मुल्क को अब भी गुलामी करने में आनंद आता है ?

-कहीं ऐसा तो नहीं कि आज भी हम चाहते हैं कि एक राज-परिवार हमारे फैसले लेकर हमारे भाग्य-विधाता बने रहें और हम उनके आज्ञाकारी सेवक ?

-कहीं ऐसा तो नहीं कि गुलामों वाली मानसिकता के साथ ये मुल्क आज भी शाही खानदानों के वारिस के जन्म लेने का उतनी ही बेसब्री से इंतज़ार करता है, जितना की पुराने ज़माने में राजा-महाराजाओं के समय हुआ करता था ?

-कहीं ऐसा तो नहीं कि हमें आज भी “खानदानी तारणहार” चाहिए अपनी सुरक्षा और शासन के लिए ?

-कहीं ऐसा तो नहीं कि आज भी हमें इन शाही खानदानों के अहसान तले दब कर निष्ठा और अंधभक्ति में लीन रहना अच्छा लगता है ?

-क्या हमरा जन्म इसलिए हुआ है कि हम गुलामों की तरह इन आधुनिक राजा-महाराजा, रानी-महारानियों की संतानों को अपना भाग्य-विधाता मान कर इनकी चरण-वंदना करते रहे ?

-क्या हमारे पढ़ने-लिखने का यही फायदा हुआ है कि हम वंशवाद के नाम पर आँख बंद करके नौसिखिए राज-दुलारों को सत्ता के सिंहासन पर बैठा कर अपने लोकतान्त्रिक और गणतांत्रिक कर्तव्य की इतिश्री कर लें…

-क्या हमारी सारी बुद्धिमता, सारी अकलमंदी, सारी खुद्दारी, सारी देशभक्ति हमें यही सिखाती है कि एक विशेष परिवार में पैदा होने वाले बच्चे को हम अपना “स्वाभाविक और प्राकृतिक” नेता मान बैठें और उसकी पूजा करें ?

-कभी सोचा है आपने आराम से बैठ कर कि क्यों वो हम पर राज करें जिन्होंने अभी अभी सार्वजानिक जीवन का ककहरा ढंग से सीखा भी नहीं है… कल के पैदा हुए ये खानदानी लड़के/लड़कियां जिन्होंने अभी तक जिन्दगी की जद्दोजहद को कभी महसूस ही नहीं किया. क्या अब वो हमारे भाग्य-विधाता बन जायें?

-क्या चांदी का चम्मच मुंह में लेकर पैदा हुए इन बच्चों से ये उम्मीद है कि वो “आम आदमी” का दर्द समझ सकेंगे ?

-क्या बड़े से बड़े मंहगे स्कूल, कॉलेज और विदेशी यूनिवर्सिटी में पढ़कर आने वाले ये लोग कभी उस मां-बाप के दिल के दर्द को महसूस कर पाएंगे जब गाँव के स्कूल में मिड-डे-मील का खाना खाकर उनके बच्चे बीमार होकर मौत के मुंह के अकाल समा जाते हैं ?

-क्या पांच-सितारा होटलों में नाईट पार्टी करके लजीज़ पकवान खाने वाली ये खानदानी औलादें कभी उस गरीब मां की आंखों का दर्द और बेबसी समझ पायेंगे जो अपने बच्चों को झूठी दिलासा दे-देकर चूल्हे पर पत्थर उबालती है ताकि बच्चे फरेब खाकर सो जायें ?

-क्या बड़ी-बड़ी लम्बी वातानुकूलित गाडियों के काफिले में चलने वाले ये राजकुमार और राजकुमारियां कभी समझ सकेंगे कि कैसे घंटों इंतज़ार करने पर भी जब देर रात तक बस नहीं मिलती तो कैसी झल्लाहट होती है ?

-क्या सुरक्षा कर्मियों के बंदूकों और संगीनों के घेरों में रहने वाली नाजुक शहजादियां कभी ये महसूस कर पायेंगी कि भीड़-भाड़ वाली बस में आम आदमी की बहु, बेटियों और बहनों के जिस्म को जब कुछ नीच छू कर मैला करने की कोशिश करते हैं तो उनके अंतर्मन पर क्या गुजरती होगी ?

-क्या क्या ये नाज़ुक गुड्डे-गुड़ियां कभी अहसास कर पाएंगे कि कैसे डिग्री होने के बावजूद भी जब हर तरफ से नौकरी के लिए ना होती है तो वो बेबसी क्या होती है ?

-क्या ये साहबजादे कभी ये समझ भी पाएंगे कि उस बाप के दिल पर क्या बीतती होगी जिसका बच्चा बिना दवाइयों के सरकारी हस्पताल में तड़प-तड़प कर आखिरी सांस लेकर सदा सदा के लिए सो जाता है ?

-क्या हवाई जहाजों में सफर करने वाले ये नन्हे शाही वारिस कभी समझ सकते हैं कि टूटी हुई सड़क पर कैसे खतरों में गाड़ी चलाकर आम आदमी अपनी आजीविका कमाने घर से बाहर निकलता है ?

-महलों और बंगलों में पले–बढे ये लोग कभी समझ सकेंगे कि कैसे घंटो-घंटो बिना बिजली के गर्मियों में जेठ की दोपहरी और उमस भरी रातें कैसे काटती होगी इस मुल्क की आधे से ज्यादा आबादी ?

-क्या एक बार मुंह से बात निकलने पर उसके मिनटों में पूरा हो जाने वाली इस खानदानी पीढ़ी कभी पढ़ सकती है ट्रेफ़िक सिग्नल पर खड़े अधनंगे बच्चे की आँखों में पसरी लाचारी और बेबसी ?

नहीं… नहीं.. नहीं… नहीं….. नहीं समझ सकते ये लोग इस मुल्क के आम आदमी के दुःख, उसकी पीड़ा, उसके दर्द को… ये ऊपर से टपका दिए जाते हैं हम पर राज करने के लिए… जैसे हम एक बाड़े में बंद जानवरों का झुण्ड हों जिस पर पहले एक मालिक राज करता हो और फिर वो अपने बेटे को हंटर थमा कर आराम करने चला जाये… फिर उसका बेटा… फिर उसका भी बेटा/बेटी…

ये डाक्टर का बेटा डाक्टर, वकील का बेटा वकील वाला सिद्धांत अब पुराना हो गया है… ये मुल्क किसी के बाप की बपौती नहीं है कि इसे कोई नेता अपनी अगली खानदानी पीढ़ी को सौंप कर चला जाये… राजनीती कोई धंधा नहीं है कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहे…

क्यों सहन करे ये मुल्क इस किस्म के निजाम को? और सबसे ज्यादा बेशर्म और बेहया तो वो नेता हैं जिन्होंने अपने बाल सफ़ेद कर लिए इस मुल्क की राजनीती में पर जब बात उनकी पार्टी और सरकार में नए नेतृत्व की आती है तो वो खुद अपने से बहुत कम समझदार, कम उम्र, कम अनुभवी, कम पढ़े-लिखे, कम गुणवान और कम लायक “खानदानी” राजकुमार और राजकुमारियो को अपना सर्वमान्य नेता मान लेते है… कहाँ चली जाती है उनकी गैरत और उनका स्वाभिमान उस वक़्त ?

दोस्तों, ये चलते-फिरते जिन्दा लोगों का गणतंत्र है , लोकतंत्र, है, जनतंत्र है जिसमें बदलाव होना लाजिमी है वर्ना ये खड़े हुए पानी की तरह सड़ जायेगा… इसमें नया पानी आना ही चाहिए… निरंतर… हररोज़, हर वक़्त… नहीं, हमारा जन्म गुलामी करने के लिए नहीं हुआ है… हम इंसान हैं… सोचने, समझने, महसूस करने, निर्णय लेने वाले प्राणी हैं हम…

हम उसे चुनेंगे जो हमारे बीच से उठा हो… जिसे हमारे दर्द, हमारे दुःख, हमारे सपनों, हमारे अरमानों, हमारी आशाओं, हमारी आकांक्षाओं से सरोबार हो… चुनेंगे उसे जो हम जैसा हो और जिसके जैसे हम हों…

तो अगली बार आप जब भी वोट देने के लिए जायें को एक बात का ध्यान रखना कि इन नेताओं को हमने अपने देश को चलाने के लिए नौकरी पर रखा है और उन्हें इस बात का अहसास करवाते रहना ज़रुरी है वर्ना कहीं ऐसा ना हो कि वो देश की तिजोरी को अपनी खानदानी दौलत समझ कर अपनी अगली पीढ़ी को सौंपने को तैयार बैठे हों…

मुल्क आपका, हक आपका, वोट आपका तो फैसला भी आपका ! जय हिन्द ! वन्दे मातरम !

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