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खतरे में चौथा स्तंभ…

Afaque Haider for BeyondHeadlines 

मीडिया हमेशा से लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है. एक स्वतंत्र और निष्पक्ष मीडिया के अभाव में स्वस्थ लोकतंत्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. स्वतंत्र मीडिया के गैर-हाज़री में लोकतंत्र के तीनों स्तंभ अपाहिज हो जाते हैं. यही वजह है कि जब कभी लोकतंत्र का खात्मा हुआ उससे पहले मीडिया की आज़ादी का गला घोंट दिया गया.

इतिहास साक्षी है कभी भी तानाशाही का उदय स्वतंत्र मीडिया के अंत के बाद ही हुआ. इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाने से पहले मीडिया की आज़ादी का गला घोंट दिया. आपातकाल के दौरान दूरदर्शन जैसी संस्था सीधे सरकार के नियंत्रन में आ गयी. समाचारपत्रों के संपादकों का दमन किया गया. ठीक इसके बरक्स जहां कहीं मीडिया स्वतंत्र होती है तानाशाही खुद ब खुद दम तोड़ देती है. इसकी एक झलक अरब स्प्रिंग में भी देखने को मिली, जहां सोशल मीडिया और अरबी टेलीवीज़न के वजह से तानाशाही दम तोड़ गयी और लोकतंत्र का सूरज उगा.

आज देश में कुछ इसी तरह के हालात पैदा हो रहें हैं. भारत में मीडिया को नियंत्रित किया जा रहा है. इसके लिए सीधे तौर पर मीडिया हाऊस को या तो खरीद लिया जा रहा है या फिर पत्रकारों को हटने के लिए मजबूर किया जा रहा है. ये भारत में शायद आने वाले तानाशाही की सुगबुगाहट है. बीते एक साल में देखा जाये तो वह सारे मीडिया हाऊस ने यह तो मोदी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया या फिर उन पत्रकारों को हटा दिया जो मोदी के आलोचक रहे हैं.

अगर फैज़ के शब्दों में कहा जाए तो ”चली है रस्म के कोर्इ न सर उठा के चले”…  लगभग सारे कारपोरेट मीडिया हाऊस मोदी को संभावित प्रधानमंत्री मान कर चल रहें हैं और उसी हिसाब से अपनी रणनीति तैयार कर रहे हैं. मीडिया ने मोदी की ”Larger than the life image” तैयार कर दी है और ऐसा भ्रम पैदा कर दिया है कि मोदी की पूरे देश में लहर चल रही है. लेकिन सच्चार्इ इसके विपरीत है.

भाजपा में हर नेता अपनी हार को लेकर डरा हुआ है और सीटों को लेकर सर फटुव्वल जारी है. हर कोर्इ अपने लिए सुरक्षित सीट की तलाश कर रहा है. यहां तक कि मोदी और राजनाथ सिंह भी अपने लिए सुरक्षित सीट तलाश कर रहें हैं. राजनाथ सिंह पिछली बार बिना मोदी की लहर के जीत गये थे. इस बार लहर के बावजूद सीट बदलना चाहते हैं. लेकिन फिर भी पूरे देश में मोदी की लहर है क्योंकि मोदी ने मीडिया मैनेज कर लिया है.

मोदी अपने आलोचकों को पसंद नहीं करतें हैं. गुजरात में मोदी का उदय उसके विरोधियों और प्रतिद्वंद्वियों का अंत हुआ. कभी गुजरात में मोदी के आलोचक रहे भाजपा नेता केशुभार्इ पटेल, हरेन पांडेय, शंकर सिंह वाघेला ये सब हाशिए पर ढकेल दिए गयें. इसी तरह जब मोदी का राष्ट्रीय राजनीति में उदय हुआ तो उनके सारे विरोधियों और प्रतिद्वंद्वियों का राजनीतिक अंत हो गया यहां तक के भाजपा के सबसे बड़े नेता लाल कृष्ण आडवाणी भी अपनी ही पार्टी में बेगाने हो गये. मीडिया को लेकर मोदी काफी असहनशील हैं. मोदी अपने आलोचकों को जिस तरह राजनीति में पसंद नहीं करतें ठीक उसी तरह मीडिया में भी पसंद नहीं करतें है.

अक्टूबर महीने में ”द हिन्दू” अखबार के संपादक सिद्धार्थ वरदाराजन को अखबार ने संपादक के पद से हटा दिया. सिद्धार्थ वरदाराजन मोदी के कट्टर आलोचकों में से जाने जाते रहे हैं. इन्होंने गुजरात दंगों में मोदी की भूमिका को लेकर एक किताब  ”Gujarat the making of a tragedy” भी लिखी है.  इससे पहले हिन्दू अखबार ने अहमदाबाद से अपने वाणिजियक दैनिक ”Business Line” का अहमदाबाद संस्करण भी शुरू किया था और उसके उदघाटन सामारोह में मोदी भी उपसिथत थे.

अत: इससे अच्छी तरह समझा जा सकता है कि मीडिया मालिक मोदी के प्रधानमंत्री बनने की संभावना से डरे हुए हैं और किसी भी कीमत पर मोदी को नाराज़ नहीं करना चाहते हैं. वरदाराजन अखबार के संपादन में पूरी आज़ादी चाहते थे, जिसमें मोदी के प्रति आलोचनात्मक होने की भी आज़ादी थी, लेकिन अखबार के मालिकों को ये गवारा ना था और साथ ही बोर्ड मोदी और बीजेपी को अखबार में उचित स्थान ना देने से भी खफा था. इन हालातों से खफा होकर सिद्धार्थ वरदारजन टवीट करतें हैं कि ”आपातकाल में मीडिया को झुकने के लिए कहा गया तो रेंगने लगी यहां कहने से पहले ही मीडिया झुक गयी है.”

सिद्धार्थ वरदाराजन के बाद सी.एन.एन आर्इबीएन की उप संपादक सगारिका घोष के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. उन्हें चैनल के प्रबंधन की तरफ से मोदी की आलोचना करने से दूर रहने को कहा गया. जिसका खुलासा उन्होंने ”स्क्रोल इन” को दिये गये एक साक्षात्कार में किया, जिसमें उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि मीडिया प्रबंधन की तरफ से उन पर मोदी को लेकर कोर्इ आलोचनात्मक ट्वीट ने करने का दबाव है.

घोष के तरह ही उनके साथी आर्इबीएन लोकमत के संपादक निखिल वाघले को भी प्रबंधन की तरफ से ऐसे निर्देश मिले और उन पर भी मोदी की आलोचना ना करने का दबाव है. वाघले इसे सांप्रदयिक राजनीति और भ्रष्ट पूंजीपतियों का घठजोड़ कहतें हैं, जो मीडिया की आवाज़ को कुचल देना चाहता है. इन हालातों की तुलना निखिल वाघले आपातकाल से करते हुए ट्वीट करते हैं कि ” आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने मीडिया पर लगाम लगाने की कोशिश की और असफल हो गयी, आर.एस.एस और मोदी को भी इतिहास से सीख लेना चहिए.”

मोदी के मीडिया मैनेजर इस बात को लेकर काफी संवेदनशील हैं कि मोदी के खिलाफ मीडिया में क्या कुछ प्रसारित और प्रकाशित हो रहा है और वह मोदी के आलोचकों का मुंह हर कीमत पर बंद किये जाने के लिए प्रतिबद्ध हैं. मोदी ने हज़ारों करोड़ रुपये मीडिया मैनेजमेंट में पानी की तरह बहा दिये हैं, जिसकी चर्चा कर्इ बार मीडिया में भी हुर्इ है.

गुजरात सरकार ने बड़े पैमाने पर सरदार पटेल स्मारक के बहाने प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को विज्ञापन दिया. विज्ञापन मीडिया को नियंत्रित करने का सबसे कारगर हथियार है, क्योंकि सारे मीडिया हाऊस विज्ञापन से ही चला करते हैं. इसके अलावा मोदी के सर पर अंबानी और टाटा जैसे पूंजीपतियों का भी हाथ है.

अंबानी ग्रुप का आर्इबीएन नेटवर्क 18 में स्टेक (शेयर) है. इस तरह अंबानी का आर्इबीएन 18 नेटवर्क के द्वारा कर्इ मीडिया हाऊस पर सीधा नियंत्रण है, जो मोदी के पक्ष में हवा बनाने में लगे हैं. इसके अलावा मोदी को प्रमोट करने के लिए विदेशी पी.आर एजेंसी ”एपको” पर करोड़ों रुपये खर्च किए जा रहे हैं.

इस सबके बावजूद भी यदि कोर्इ पत्रकार या संपादक मोदी के खिलाफ आलोचनात्मक रुख अख्तियार करता है. तो उसे या तो डराया धमकाया जाता है या फिर मीडिया से निकाल दिया जाता है. कभी तो उन पर झूठे देशद्रोह के मुक़दमे तक दायर कर दिये जाते हैं. ”ओपेन मैगजीन” के राजनीतिक संपादक हरतोश सिंह बाल को मैगज़ीन के मालिक संजीव गोयनका ने पद से हटा दिया. क्योंकि वह भी मोदी को नाराज़ नहीं करना चाहते थे. मैंगज़ीन के मालिक गोयनका के अनुसार बाल के लेखनी से कर्इ राजनीतिक दुश्मन पैदा हो सकते हैं.

प्रबंधन ने बाल की जगह पी.आर रमेश को नया राजनीतिक संपादक नियुक्त किया. बाल ने अपने लेख में रमेश को भाजपा महासचिव अरूण जेटली के नज़दीक माना है. मोदी समर्थकों का मीडिया दमन केवल दिल्ली और राष्ट्रीय मीडिया तक ही सीमित नहीं है. बल्कि क्षेत्रीय मीडिया पर भी उनकी पैनी नज़र है. इसी तरह सन टीवी के पत्रकार थीरू वीरापंडियन ने अपना प्रार्इम टार्इम शो केवल ये कहने पर खो दिया कि लोग मोदी को वोट देने से पहले सोचें. कारवां ने अपने फरवरी संस्करण में संघ और आतंकवाद को लेकर स्वामी असीमानंद का साक्षात्कार किया था तब से संपादक विनोद जोश को धमकी भरे फोन काल आ रहे हैं.

मोदी का मीडिया के प्रति ये तानाशाही रुख कोर्इ नया नहीं है. गुजरात में भी मोदी का उदय स्वतंत्र मीडिया का अंत था. गुजरात सरकार ने गुजराती संध्या के संपादक मनोज शिंदे पर देशद्रोह का चार्ज लगाकर हवालात की सलाखों के पीछे ठूंस दिया. इस युवा पत्रकार का कसूर केवल इतना था कि इसने नरेंद्र मोदी को 28 अगस्त 2006 में अपने संपादकीय में बाढ़ के हालात से प्रभावी ढंग से न निपटने के लिए मोदी की आलोचना की थी. केवल इतनी सी बात पर गुजरात पुलिस ने उस पर सेक्शन 124 (ए) जो कि देशद्रोह का चार्ज होता है लगा दिया.

भारतीय कानून संहिता के अनुच्छेद-124 (ए) में देशद्रोह को परिभाषित की गया है. इस परिभाषा के अनुसार अगर कोर्इ भी व्यक्ति सरकार विरोधी सामग्री लिखता है या बोलता है या फिर ऐसी सामग्री का समर्थन भी करता है तो वह देशद्रोह की श्रेणी में आता है. जिसके लिए आजीवन कारावास या तीन साल की सजा हो सकती है. लेकिन ये आलोचना किसी भी तरह से सरकार विरोधी नहीं थी, ये तो व्यकितगत आलोचना थी.

पुलिस का ये रवैया दरहकीकत अभिव्यक्ति की स्वतंत्र का गला घोंटने जैसा था. इसी तरह साल 2008 में अहमदाबाद टार्इम्स ऑफ इंडिया के स्थानीय संपादक भरत देसार्इ और गुजराती समाचारपत्र के फोटो ग्राफर पर भ्रष्टाचार का खुलासा करने पर देशद्रोह के तहत मुक़दमा दायर किया गया. गुजरात सरकार देशद्रोह का संगीन चार्ज देश के दुश्मनों के लिए नहीं बल्कि मोदी के आलोचकों के लिए इस्तेमाल कर रही है और कानून के द्वारा उनका दमन बदस्तूर जारी है.

ये तो केवल शुरूआत है जब मोदी प्रधानमंत्री नहीं बने, केवल संभावित प्रधानमंत्री के उम्मीदवार हैं. मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद मीडिया की आज़ादी का क्या होगा ये चिंतन और मंथन का विषय है. इस पर मीर का एक शेर याद आता है…

”इबतदाए इश्क है रोता है क्या, आगे आगे देख होता है क्या ”

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