चुनाव, आम मुसलमान और सांप्रदायिकता…

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Zaigham Murtaza for BeyondHeadlines

आम चुनाव की आहट के बीच ‘सांप्रादायिक बनाम सेक्युलरिस्ट’ बहस एक बार फिर शुरु हो गई है. विकास, भ्रष्टाचार, महंगाई, आर्थिक मंदी, रोज़गार, कृषि जैसे मुद्दे हवा हो गये है और देश की दोनों प्रमुख पार्टियां ऐसा माहौल बना रहीं हैं, जिससे वोटों का ज्यादा से ज्यादा ध्रुवीकरण हो. ऐसे में मुस्लिम राजनीति की दशा और दिशा को लेकर सवाल उठने लाजिमी हैं.

कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही अपनी अपनी दिक्कतों से जूझ रही हैं. जहां कांग्रेस सत्ता विरोधी कारकों से निबटने के रास्ते तलाश रही है, वहीं बीजेपी के सामने संगठन की कमजोरी और गठबंधन मज़बूत करने जैसे बड़े सवाल हैं.

ऐसे में दोनों ही दल चाहते हैं कि मतों का सीधा ध्रुवीकरण हो और बाक़ी दलों के खाते में जाने वाला मत उनके हिस्से आ जाये. जाहिर है सभी की निगाहें मुस्लिम मतदाताओं पर हैं और उनकी खामोशी सभी पार्टियों की नींद में खलल ज़रूर डाल रही है.

मुस्लिम मतदाताओं का रुख इस मामले में एकदम साफ है. हालांकि किसी भी समूह या समाज के विचारों या काम करने के तरीके का सामान्यीकरण करना लगभग अहमकाना क़दम है, मगर फिर भी एक सामान्य राय कायम करना हम लोगों के मिज़ाज का अहम हिस्सा है. तब भी मैं कह सकता हूं कि मुसलमान सांप्रादायिक बनाम सेक्युलरिस्ट की बहस का हिस्सा होकर भी इसका हिस्सा नहीं है. मुस्लिम मतदाताओं को लेकर लोगों मे बहुत से मिथक हैं और इन मिथकों का टूटना ना सिर्फ भारतीय राजनीति बल्कि खुद मुस्लिम समाज के लिये भी ज़रूरी है.

पहली बात जो लोगों की समझ में आनी चाहिये ये है कि सांप्रदायिक बनाम सेक्युलरिस्ट की लड़ाई में एक आम मुसलमान की हैसियत किसी तमाशबीन से ज्यादा नहीं है. वो किनारे बैठकर इस नूराकुश्ती का आनंद लेता है.

हां, एक आम मुसलमान इतना सेक्युलर ज़रूर है कि वो सांप्रदायिक पार्टियों को, सिवा कुछ अपवादों के, कभी वोट नहीं करता, चाहे वो मुसलमान ही क्यों न हों. इस इस बात से समझा जा सकता है कि तथाकथित मुस्लिम दल आज तक एक दायरे के अंदर ही सिमटे हैं और इनके हिस्से में जितना मुस्लिम वोट आता है इस से कहीं ज्यादा कोई एक क्षेत्रीय दल अकेला ले जाता है.

इसी समझदारी के चलते चुनाव मैदान में डटी किसी तथाकथित सांप्रादायिक पार्टी के खिलाफ वोट डालने के लिये मुस्लिम मतदाता घर से निकलता है. इस मामले में वो जाति, धर्म, वर्ण, को तो भूलता ही है, चुनावी मुद्दों को नकारता है और यहां तक कि वोट पाने वाली पार्टी का भी ध्यान नहीं रखता. इससे ज्यादा सेक्युलरिज़्म और कहां मिलेगा कि सांप्रदायिकता को हराने की ठेकेदारी का जुआ अपने कंधों पर रखे एक आम मुसलमान किसी सधर्मी पार्टी या सजातीय प्रत्याशी का भी ख्याल नहीं करता?

मुस्लिम समाज की अपनी समस्याएं हैं, मगर शायद ही कोई मुस्लिम होगा जो वोट के ज़रिये इन परेशानियों का हल निकालने की कोशिश करता हो. बहुत से मुस्लिमों को तो विश्वास ही नहीं है कि वोट से परेशानियों का हल भी होती हैं.

वो मतदान करता ज़रूर है मगर इसके पीछे या तो उसकी अपनी दिक्कतें खत्म ना हो पाने की झुंझलाहट होती है या फिर सांप्रदायिकता को हराने की चाह… और भी कई कारण होते होंगे. मगर वो मुझ जैसे आम मुसलमान की समझ से परे है.

आम चुनाव एक बार फिर सिर पर हैं. मुस्लिम मतदाता एक बार फिर वही पुरानी नूराकुश्ती देख रहा है. स्क्रिप्ट वही पुरानी घिसी-पिटी और अंजाम भी शायद फिर वही… न परेशानियों का हल होगा और न ही कोई आम मुसलमान के मुद्दों को छुयेगा. फिजा में फिर से एक सांप्रदायिक दैत्य का नाम उछाल कर डर पैदा किया जा रहा है. पसंद-नापसंद का दायरा खत्म किया जा रहा है. कोई मुद्दा नहीं, कोई ज़रूरत नहीं, बस एक ही राग, सांप्रादायिक बनाम सेक्युलरिस्ट…

(The author is a Producer/Reporter at Rajyasabha Television (Parliament of India)

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