Nadeem Akhtar for BeyondHeadlines
हाल के दिनों में केंद्र और विभिन्न राज्यों की सरकारों ने निगमित और व्यापारिक घरानों के हितों की पूर्ति के लिए जितने फैसले लिये हैं, उससे धीरे-धीरे ही सही, लेकिन यह स्पष्ट हो गया है कि देश में परोक्ष रूप से कॉरपोरेट घरानों का शासन ही चलता रहेगा.
देश में सक्रिय तमाम राजनीतिक दल अपने-अपने पसंदीदा व्यापार समूहों के पक्ष में बिछे दिख रहे हैं, तो वहीं कॉरपोरेट समूह भी दिल खोल कर सियासी दलों पर दौलत की बारिश कर रहे हैं. आसन्न लोकसभा चुनाव को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों की रैलियों और नेताओं की यात्राओं के खर्च का ब्यौरा भले ही अभी सार्वजनिक नहीं हुआ है, लेकिन संसाधनों के ज़रिये सहयोग-समर्थन का जो खेल दौलतमंद व्यवसायी खेल रहे हैं, वह लाख छिपाये नहीं छिप रहा है.
गत 17 फरवरी को हुबली हवाई अड्डे पर भाजपा के कर्नाटक प्रदेश अध्यक्ष प्रह्लाद जोशी ने नरेंद्र मोदी का स्वागत करते हुए एक तस्वीर खिंचवाई और उसे अपने फेसबुक वाल पर डाल दिया. लेकिन, उन्होंने शायद यह ध्यान नहीं दिया कि नरेंद्र मोदी जिस निजी जेट विमान से उतरे थे, उस पर अदानी लिखा था. प्रह्लाद जोशी के वाल पोस्ट से मोदी और अदानी के साठ-गांठ का उदभेदन हो चुका था और देखते ही देखते यह तसवीर सोशल मीडिया पर छा गयी.
अदानी समूह और नरेंद्र मोदी के बीच की प्रगाढ़ता किसी से छुपी नहीं है. 56 हजार करोड़ का अदानी समूह कोयला व्यापार, कोयला खनन, तेल एवं गैस खोज, बंदरगाहों, मल्टी मॉडल लॉजिस्टिक, बिजली उत्पादन एवं पारेषण और गैस वितरण का कारोबार कर रहा है. इसके मालिक गौतम अदानी हैं, जो गुजरात के ही हैं. उन्हें गुजरात सरकार से दिल खोल कर रियायतें और नियमों से पार जाकर लाभ दिया जाता रहा है.
अदानी को गुजरात में नियमों के विपरीत 2008.41 हेक्टेयर ज़मीन दी गयी, जिसका न तो सर्वेक्षण कराया गया और न ही निजी ज़मीन की खरीद की गयी. सीधा सरकारी अधिग्रहण हुआ और समूह को एक से 32 रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर से ज़मीन दी गयी. इस मामले में अदालत और केंद्र के हस्तक्षेप के बावजूद गुजरात सरकार ने पूरे तंत्र को दिगभ्रमित कर अदानी समूह को फायदा पहुंचाया. सरकारी एहसानों के बोझ तले दबे अदानी समूह की भी कुछ पेशागत मजबूरियां हैं, जिसके तहत भारतीय जनता पार्टी को सहयोग-समर्थन कर कर्ज अदायगी की जाती रही है.
केंद्र की सत्ता पर काबिज होने के एकमात्र उद्देश्य के साथ देश भर में रैलियां कर रहे नरेंद्र मोदी पर जो बेशुमार दौलत खर्च हो रही है, भाजपा उसका ब्यौरा नहीं देती है.
सोशल मीडिया में अक्सर यह आरोप लगाया जाता है कि मोदी की एक रैली में तकरीबन 20 करोड़ रुपये खर्च होते हैं, अब तक 72 रैलियां हो चुकी हैं. इस हिसाब से 1440 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं. इतना पैसा कहीं और से नहीं बल्कि अदानी और अंबानी सरीखे कॉरपोरेट घरानों से ही आ रहा है. अभी मोदी की 150 रैलियां और होंगी, जिन पर 3000 करोड़ रुपये खर्च होगा.
इतना तो तय है कि पेट्रोल-डीजल और गैस के दामों से त्रस्त देश की गरीब जनता के चंदे से इतना पैसा इकट्ठा नहीं किया गया है. यह पैसा उन व्यापारिक समूहों का चुनाव पूर्व निवेश है, जो सरकार बनते ही सूद समेत वसूल लिये जाने की गारंटी है.
सिर्फ भाजपा ही नहीं, बल्कि कांग्रेस और अन्य राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय दलों में भी कॉरपोरेट समूह भारी पूंजी निवेश कर रहे हैं. बिड़ला परिवार का ही उदाहरण ले लें. परंपरागत रूप से बिड़ला समूह को कांग्रेस और गांधी-नेहरू परिवार का समर्थक माना जाता है. हालांकि, पहले बिड़ला परिवार के सदस्य राजनेताओं के साथ सार्वजनिक रूप से अपनी प्रगाढ़ता प्रदर्शित करने से परहेज़ ही करते थे, लेकिन नयी पीढ़ी ने पुरानी परंपराओं को तोड़ दिया है. आदित्य बिड़ला समूह के अध्यक्ष कुमार मंगलम बिड़ला के प्रयास से पिछले साल 7 अक्टूबर को शक्तिमान मेगा फूड पार्क का कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने शिलान्यास किया. खास यह है कि इस पार्क को अमेठी के जगदीशपुर में बनाया जा रहा है.
सवाल यह उठता है कि बिड़ला समूह को देश के किसी और गांव में ऐसे पार्क के निर्माण का ख्याल क्यों नहीं आया? चूंकि अमेठी राहुल गांधी का संसदीय क्षेत्र है, इसलिए वहां फूड पार्क बनाकर बिड़ला ने एक तीर से दो निशाने साधे. एक तो राहुल गांधी को खुश कर दिया गया, दूसरे इस पार्क से सालाना 450 करोड़ की राजस्व उगाही का रास्ता भी साफ हो गया.
यह सिर्फ एक बानगी है. असली मुद्दा है चुनाव के लिए राजनीतिक दलों को चंदा देने में कॉरपोरेट घरानों की चालाकी. असल में देश में मौजूद सभी बड़े व्यापारिक समूह किसी एक दल के साथ अपनी प्रतिबद्धता नहीं रखते. चूंकि सत्ता प्रतिष्ठान के अगले नायक के बारे में अंतिम समय तक संशय बरक़रार रहता है, इसलिए व्यवसायी वर्ग “लेफ्ट-राइट-सेंटर’ तीनों धड़ों पर बराबर मेहरबान रहता है. इसका फायदा यह है कि चुनाव के बाद दलों को दिये गये चंदे की दुहाई देकर अपना काम निकाल लिया जाता है.
चुनावी चंदे का गणित भी बहुत उलझा हुआ है. आम तौर पर सारे कॉरपोरेट घराने अपने मूल नाम से दलों को चंदा देने में परहेज करते हैं. सभी बड़े समूहों ने छद्म नामों से चंदे की अदायगी के लिए ‘अलाभकारी ट्रस्ट’ बना रखा है, जिसके ज़रिये पैसे राजनीतिक दलों के खाते में ट्रांसफर किये जाते हैं. टाटा समूह ने प्रोग्रेसिव इलेक्टोरल ट्रस्ट बना रखा है, तो रिलायंस समूह ने पीपुल्स इलेक्टोरल ट्रस्ट बनाया है. इसी प्रकार ब्रिटेन के अनिल अग्रवाल की कंपनी वेदांता ने जनहित इलेक्टोरल ट्रस्ट, केके बिड़ला समूह ने समाज इलेक्टोरल ट्रस्ट, एमपी बिड़ला समूह ने परिबर्तन इलेक्टोरल ट्रस्ट स्थापित किया है.
वित्तीय वर्ष 2004-05 से लेकर 2011-12 तक देश के सभी राष्ट्रीय दलों को कॉरपोरेट घरानें से 378.89 करोड़ रुपये का घोषित चंदा मिला. यह ज्ञात स्रोतों से प्राप्त कुल राशि का 87 फीसद हिस्सा है. इसमें भाजपा को सबसे ज्यादा 192 करोड़ रुपये का चंदा मिला, जबकि कांग्रेस को 172 करोड़ रुपये मिले.
चंदों का बड़ा हिस्सा विनिर्माण के क्षेत्र में कार्यरत कंपनियों के द्वारा राजनीतिक दलों को प्राप्त होता है. चुनाव आयोग को सियासी दलों ने चंदों का जो ब्यौरा उपलब्ध कराया है, उसके अनुसार निर्माण क्षेत्र की कंपनियों ने 7 वर्षों में 595 चंदों के माध्यम से 99.71 करोड़ रुपये जमा कराये. इसके बाद रियल एस्टेट कारोबारियों ने 24 करोड़ का चंदा दिया. कांग्रेस पार्टी को कंपनियों के समूह से सबसे ज्यादा चंदा (70.28 करोड़ रुपये) मिला, जबकि भाजपा को विनिर्माण क्षेत्र से सबसे ज्यादा (58.18 करोड़ रुपये) का चंदा मिला.
स्पष्ट है कि इन कॉरपोरेट घरानों के ज़रिये जो निवेश हो रहा है, उसे वसूल करना भी व्यापारिक समूहों को भली भांति आता है. आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि नयी सरकार किस समूह के सामने बिछी नज़र आती है?
(लेखक ‘द पब्लिक एजेंडा’ पत्रिका से जुड़े हुए हैं. इन्हें nadeemjagran@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है.)