Hare Ram Mishra for BeyondHeadlines
देश के राजनैतिक परिदृश्य में कुछ चेहरे और उनके कृत्य हमेशा से ही आवाम के लिए बेहद दिलचस्प रहे हैं. राष्ट्रीय लोक दल के मुखिया और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट अस्मिता के वाहक चौधरी अजीत सिंह इस देश के राजनैतिक परिदृश्य में एक ऐसी ही शख्सियत रहे हैं, जिन्होंने विचारधारा से हटकर किसी भी दल के साथ गठबंधन करने और, उस गठबंधन को अपने हित के लिए कभी भी खत्म करने में कतई गुरेज़ नहीं किया.
अगर पिछले लोकसभा चुनाव की ही बात की जाए तो, उन्होंने भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था लेकिन भाजपा गठबंधन के चुनाव हार जाने के बाद वे कांग्रेस का दामन थाम कर केन्द्र में मंत्री बन गए. अपने गढ़ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस बार का आम चुनाव वे कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ रहे हैं, लेकिन अतीत के अनुभवों को देखते हुए यह दावे से नहीं कहा जा सकता कि चुनाव के बाद उनकी राजनैतिक प्रतिबद्धता किस दल के साथ जाकर हाथ मिला लेगी.
गौरतलब है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शामली और मुज़फ्फरनगर जिलों में हाल ही में भूमिहीन और गरीब मुसलमानों के खिलाफ हुई भीषण सांप्रदायिक हिंसा के बाद उपजे सामाजिक और राजनैतिक उथल-पुथल के बीच पहले से ही लगातार सिमटते जा रहे जनाधार को बचाने की कोशिशों में लगे रालोद सुप्रीमो चौधरी अजीत सिंह इन दिनों अपने जाट वोट बैंक को संगठित करने का मैराथन प्रयास कर रहे हैं. उनका प्रयास है कि इस चुनाव में जाट और ठाकुर मतदाताओं को अपनी ओर किसी भी कीमत पर रखा जाए.
शायद यही वजह है कि उन्होंने कभी मुलायम सिंह के करीबी रहे अमर सिंह और अभिनेत्री जया प्रदा को अपनी पार्टी में शामिल कर लिया है, ताकि पश्चिम के ठाकुरों में यह संदेश दिया जा सके कि पार्टी एक ठाकुर चेहरा भी जातीय प्रतिनिधि के बतौर रखती है.
यही नहीं, भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत, जिन्हें दंगे के बाद पहले भाजपा से प्रत्याशी बनाए जाने की चर्चा थी, को अमरोहा से टिकट देकर अपने बिखर रहे जाट वोट बैंक को जातिवादी अस्मिता और किसान हितैषी होने के नाम पर रोकने की कोशिश की है. लेकिन अफसोस यह भी है कि दंगा पीडि़त मुसलमानों की नाराज़गी को दूर करने का कोई नुस्खा अब तक अजीत सिंह खोज नहीं सके हैं.
यहां यह ध्यान देने लायक है कि चौधरी चरण सिंह के समय में जाट-मुसलमान एकता का नारा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रालोद के अस्तित्व की एक असली वजह था. लेकिन हालिया हुए दंगों के बाद जिस तरह से मुसलमानों का बड़े पैमाने पर पलायन हुआ और जाटों से उन्हें गहरा अविश्वास हो गया, उससे जाट-मुस्लिम एकता का पूरा ताना बाना ही भरभराकर टूट गया.
चूंकि अब तक पश्चिम में रालोद एक बड़ी ताक़त थी, लिहाजा इस जाट-मुस्लिम एकता के टूट जाने के बाद अजीत सिंह का अस्तित्व पहली बार दांव पर लग गया है. अजीत सिंह की सारी छटपटाहट अपने इसी अस्तित्व को बचाने के इर्द गिर्द घूम रही है. जाटों पर आरक्षण का दांव खेलना इसी का एक प्रयास भर है. और बाहर से ऐसा लगता है कि अजीत सिंह ने जाटों को अपने पक्ष में कर भी लिया है.
लेकिन, राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि अजीत सिंह द्वारा मुसलमानों के बीच से रालोद के खिसक चुके जनाधार को वापस पाने के लिए चाहे जितने प्रयास अजीत सिंह द्वारा किए जाएं. यह लगभग साफ हो चुका है कि अब पश्चिम का मुसलमान अजीत सिंह के साथ कतई जाने वाला नही है. चूंकि दंगों की त्रासदी और उस पर अजीत सिंह की चुप्पी को लेकर मुसलमानों को जितनी पीड़ा है, उसे पाटने के लिए अजीत सिंह को लंबा वक्त चाहिए. लेकिन चुनाव सिर पर हैं और अब ऐसा कुछ भी कर पाना अजीत सिंह के बस में नहीं है. लिहाजा अब उनका पूरा ध्यान केवल जाट मतदाताओं को संगठित करने पर ही लगा हुआ है.
उनकी कोशिश है कि भाजपा ने जाटों और ठाकुर मतदाताओं के बीच दंगे के दौरान और उसके बाद सेंधमारी की जो कोशिशें की थीं, को प्रभावहीन बनाया जा सके.
मौजूदा परिदृश्य इस बात का संकेत दे रहा है कि भाजपा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों के बीच कुछ खास नहीं करने जा रही है। अजीत सिंह ने भाजपा के मंसूबों पर फिलहाल पानी फेर दिया है.
जहां तक कांग्रेस के साथ अजीत सिंह के गठबंधन का सवाल है, तो मेरा आकलन कहता है यह कांग्रेस के लिए ज्यादा लाभदायक रहेगा. ऐसा माना जा रहा है कि जिन इलाकों में रालोद चुनाव नहीं लड़ रही है वहां के जाट मतदाता कांग्रेस को वोट कर सकते हैं. रालोद जाटों से दिए गए आरक्षण के नाम पर कांग्रेस के लिए इन इलाकों में वोट मागेंगी. भारतीय किसान यूनियन की पश्चिम के आम किसानों में आज भी पैठ है और ऐसा माना जा रहा है कि अगर राकेश टिकैत या नरेश टिकैत कांग्रेस के पक्ष में वोट की अपील करेंगे तो जाट वोट कांग्रेस की झोली में आ सकते हैं.
जहां तक पश्चिम के मुसलमानों की बात है दंगे के बाद उनका वोट गैर-भाजपा और गैर-सपा के पक्ष में ही जाएगा. उन्हें कांग्रेस से भी कुछ नाराज़गी है, लेकिन फिर भी वे कांग्रेस को वोट दे सकते हैं. ऐसे में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस जाट और दलित मुसलमानों के वोट पा सकती है जो उसे काफी फायदा पहुंचा सकता है.
अजीत सिंह पश्चिम की 25 लोकसभा सीटों में से केवल आठ पर लड़ रहे हैं, बाकी पर कांग्रेस लड़ रही है. ऐसे में यहां पर फायदा कांग्रेस को ही ज्यादा होता हुआ दिख रहा है. पश्चिम में कांग्रेस मज़बूत हो कर उभर सकती है.
गौरतलब है कि दंगों के बाद भारतीय किसान यूनियन के नेताओं का अचानक राजनीति में आना कई गंभीर सवाल तो खड़े करता ही है, भाकियू के भविष्य पर भी संकट के बादल मंडरा सकते हैं. भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता और महेन्द्र सिंह टिकैत के बेटे राकेश टिकैत ने भले ही जाट अस्मिता बचाने के नाम पर अजीत सिंह के साथ हाथ मिलाया है, लेकिन ऐसी खबरें पहले से ही आ रही थीं कि महेन्द्र सिंह टिकैत के वारिस भाजपा के टिकट पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ सकते हैं. ऐसे में यहां पर सवाल उठना लाजिमी है कि क्या इन दंगों के मार्फत इन दोनों भाइयों की चुनावी समर में कूदने की कोई रणनीतिक तैयारी तो नहीं थी. चूंकि राकेश और नरेश टिकैत जाटों की सबसे शक्तिशाली खाप के प्रतिनिधि हैं और उनके प्रभाव क्षेत्र में एक बड़ा वोट उनकी अपनी खाप का ही है.
ऐसे में यह सवाल ज़रूर उठेगा कि उन्होंने राजनीति में पदार्पण का यही समय क्यों चुना? चूंकि दंगा रोकने के लिए इन दोनों भाइयों ने भी सिवाय तमाशा देखने के कुछ नहीं किया, लिहाजा क्या यह मानना ग़लत होगा कि इस दंगे में इन दोनों भाइयों की भी रणनीतिक संलिप्ता थी.
आखिर महेन्द्र सिंह टिकैत के इन वारिसों ने दंगा रोकने के लिए क्या किया? बहरहाल, राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष अजीत सिंह ने अमरोहा से राकेश टिकैत को लोकसभा प्रत्याशी बनाकर एक तीर से दो निशाने साध दिए हैं. राष्ट्रीय लोकदल जहां राकेश को अमरोहा से चुनाव लड़ाकर किसानों के सबसे बड़े संगठन भकियू में अपनी पकड़ मज़बूत करना चाह रहा है. वहीं मुज़फ्फरनगर दंगों के बाद अजित सिंह से नाराज़ चल रहे जाट समुदाय को जाट अस्मिता और रिजर्वेशन के नाम पर खुश करने की कोशिश भी की है.
वेस्ट यूपी में बदले सियासी समीकरण में सभी दलों का ध्यान जाट व मुस्लिम वोट पर ही है. पश्चिमी यूपी के सम्भल, मुरादाबाद, बिजनौर, अमरोहा, मेरठ, मुज़फ्फरनगर, बागपत, सहारनपुर, बुलंदशहर की सीट जाट बाहुल्य है. इसीलिए पश्चिमी यूपी में जाटों और किसानों में अपनी मज़बूत पकड़ रखने वाले भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत को अजीत सिंह ने अमरोहा से प्रत्याशी बनाया है. लेकिन, अब सवाल यह है कि पहली बार मुसलमान रालोद को बड़े पैमाने पर वोट नहीं करने जा रहा है और एक बड़ी आबादी के अचानक साथ छोड़ देने के बाद पहली बार अजीत सिंह का भविष्य ही दांव पर नहीं लग गया है.
अब देखना यह है कि अजीत सिंह की यह चुनावी रणनीति कितनी कामयाब होती है, और कितने दिन तक वह कांग्रेस के लिए वफादार साथी बने रह सकेंगें? यही नहीं, सवाल अब भारतीय किसान यूनियन के भविष्य का भी है, क्योंकि सिर्फ जातिवादी राजनीतिक अस्मिता लंबे समय तक राजनीति के मैदान में टिकाए नहीं रख सकती.
ऐसा लगता है कि अब अजीत सिंह के साथ भारतीय किसान यूनियन भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने राजनीति के मैदान में आ गया है और अगर अजीत सिंह का सफाया होता है, तो इसे भी डूबने से कोई बचा नहीं पाएगा. अब अजीत का अस्तित्व भारतीय किसान यूनियन के अस्तित्व का भी निर्धारण करेगा.
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र पत्रकार हैं.)
