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Reading: यही तो प्रजातंत्र है, यही लोकतंत्र है !
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BeyondHeadlines > Lead > यही तो प्रजातंत्र है, यही लोकतंत्र है !
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यही तो प्रजातंत्र है, यही लोकतंत्र है !

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published April 25, 2014 1 View
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15 Min Read
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 (सवर्णों की बस्ती में चुनाव का एक दिन)

Sanjeev Kumar (Antim) for BeyondHeadlines

बुद्ध की ज्ञान भूमि गया से 50 किमी पूर्व में स्थित चारों दिशाओं से पक्की सड़क से जुड़ा नवादा शहर से 5 कि.मी. पश्चिम में बसा सिसवां गांव में 90% से अधिक आबादी भूमिहारो और ब्राह्मणों की है. इस गांव की गिनती हमेशा से जिले के सबसे अधिक आबादी वाले संपन्न गांवो में होती रही है. यहां लगभग ढाई हजार से भी अधिक मतदाता नामांकित हैं.

तीन दशक पूर्व तक इस गांव में कुछ मुसहर, कहार जैसे दलित जातियों के लोग भी इस गांव में रहते थे. पर आज उन पर सूअर पालने, गन्दा रहने और गांव को गन्दा करने का आरोप लगाकर उन्हें गांव से कुछ दुरी पर पूर्व और पश्चिम दिशा में गांव के नदी और नहर किनारे पृथक कर बसाया जा चूका है.

इस गांव में बिजली, टेलीफोन, पुस्तकालय, स्वस्थ्य केंद्र, आदि सत्तर के दसक से ही उपलब्ध है, पर वहीँ से 200-300 मीटर की दुरी पर नदी किनारे जातीय भेदभाव का परिचायक मुसहरों की उस बस्ती में आज भी बिजली का एक बल्ब तक नहीं है. कहने को तो बहुत कुछ है इस गांव के बारे में… पर फ़िलहाल चुनाव का माहौल है, इसलिए चुनाव के बारे में बात हो तो बेहतर हो.

10 अप्रैल को यहां नवादा में चुनाव होना था. 27 वर्ष का हो गया हूँ पर घर से बहार दिल्ली में पढाई करेने के कारण आज तक कभी मतदान नहीं किया था. पहली बार लगा कि अगर इस बार मतदान नहीं किया तो मुझे शायद मुझसे मतदान का हक़ छीन लिया जाना चाहिए, आखिर हमारा विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र आज खुद ही अपना गला घोंटने को तत्पर जो दिख रहा है.

हूँ तो विद्यार्थी और वो भी सेल्फ-फाय्नेंसड, हजार रूपये खर्च कर मतदान करना महंगा लग रहा था, पर क्या करें मन जो नहीं मान रहा था. 10 अप्रैल को सुबह लगभग पांच बजे गांव पहुंचा तो सफ़र से थका आंख को नींद लग गई. मतदान तो 7 बजे से ही शुरू हो गया था पर मुझे मतदान केंद्र पहुंचते पहुंचते तक़रीबन आठ साढ़े आठ बज गएं.

मतदान केंद्र जाने से पहले मैंने मुसहरो की उस बस्ती में जाना अधिक ज़रुरी समझा जहां के लोग मुझे कुछ वर्षो से आशा के नज़र से देखा करते थे. मैंने वहां जाकर लोगों को जितना जल्दी हो सके मतदान करने को कहा पर ज्यादातर लोग खेतों में मजदूरी करने जा चुके थे और दोपहर तक ही लौटते.

इधर मतदान केंद्र पर धड़ल्ले से मतदान हो रहा था. बहुत कम ही मतदाता दिख रहे थे जिन्होंने एकल मतदान का प्रयोग किया हो. सभी अपने वोट को अंत के लिए बचाकर जितना जल्दी हो सके किसी प्रकार की कोई अशान्ति होने से पहले गांव से बाहर रहने वाले अपने भाई, बहन या गांव के किसी भी हम उम्र के बदले मतदान कर रहे थे.

वैसे इसमें गांव की औरतें, मर्दों से आगे थी या यूं कहें कि उन्हें आगे करवाया जाता था ताकि मतदान अधिकारी ज्यादा विरोध नहीं कर पाये. आखिर भारत जैसे पुरुष-प्रधान देश में नारियों को अबला का सम्मान मिलने का उन्हें और उन्हें यह सम्मान देने वाले पुरुषों को इसका कुछ तो फायदा मिलना ही चाहिए.

एक-एक मतदाता अपनी पांचो उंगली स्याही से रंगाने के बाद भी दम नहीं ले रहे थे, आखिर भगवन ने उन्हें 10 उंगली जो दिए थे. और अगर भगवान का दिया दस उंगली भी कम पड़े तो वैज्ञानिकों की लेबोरेटरी से दूर गांव की ओपन लेबोरेटरी से इजात घरेलु नुस्खे कब काम आयेंगे.

एक से अधिक मतदान देने का पहला देशी मन्त्र है अंगुली पर स्याही लगते ही अंगुली को अपने बालों में घुसा कर रगड़ दीजिये और फिर बाहर जाकर पपीते के दूध से स्याही पूरी तरह छुड़ा कर दुबारा मतदान के लिए तैयार हो जाइये.

अब मतदान अधिकारी भी क्या करें? एक तो वो अपने घर से सैकड़ो मिल दूर थे, खाना पानी के लिए स्थानीय ग्रामीणों पर ही निर्भर थे और ऊपर से सवर्णों का गांव जो लड़ने झगड़ने में कभी पीछे नहीं रहते. ऐसे गांव में मतदान अधिकारीयों को भी बल तभी मिल पता है जब गांव के मतदाता बटे हुए हों या कम से कम कुछ लोग बोगस (दुसरे के नाम पे मतदान) मतदान का विरोध करने वाले हों.

हालांकि इस गांव के मतदाता मुख्यतः दो उम्मीदवारों (जदयू और बीजेपी) में लगभग बराबर बंटे हुए थे पर दोनों पक्ष ने आपसी समझौता कर लिया था और दोनों पक्ष ही अपने अपने उम्मीदवार को बोगस मतदान करने में धड़ल्ले से जूट थे.

वैसे गांव के बाहर रहने वालों का अनुपात गांव के दलितों और मुसहरों में सबसे अधिक था, पर बोगस मतदान के मामले में उनका योगदान नगण्य था. गांव के मुसहर और दलित बोगस तो छोडिये, वो तो अपने खुद के मताधिकार के प्रयोग से डरते थे.

कल तक वो गांव के सवर्णों से डरते थे तो आज पुलिस और रक्षाकर्मियों से डरते थे. आज तक ये लोग सवर्णों के अधिपत्य से स्वंतंत्र नहीं हो पाये हैं. आज इनके वोटों का कुछ भाग एक तीसरे यादव वर्ण के उम्मीदवार को जा भी रहा है तो वो सिर्फ इसलिए कि गांव का ही एक स्वर्ण उस यादव उम्मीदवार से पैसे लेकर उन दलितों से उसे मतदान दिलवा रहा है.

गांव के आधे से अधिक दलित और मुसहर उस एक स्वर्ण की बात इस लिए मान रहे हैं क्यूंकि वो स्वर्ण उनके लिए महाजन है और गांव का ज्यादातर दलित और मुसहर उससे कर्ज ले रखा है. हालाँकि कुछ ऐसे मुसहर थे जो स्वतंत्र रूप से भी राजद के उस यादव उम्मीदवार को ही अपना वोट देना चाहते थे. लेकिन गरीबी की मार ने इन दलितों को उनके मतदान केन्द्रों से हजारो मिल दूर दिल्ली, पंजाब और कलकत्ता आदि शहरों में धकेल दिया था. जो बचे खुचे गांव में ही रह गए थे, पर वो तो सवर्णों की तरह पाने घरवालों के बदले उनका मतदान तो दे नहीं सकते थे. डरते जो थे, अब सताए हुए वर्ग पे तो हर कोई हाथ साफ़ करना चाहता है फिर चाहे वो गांव के स्वर्ण हो या शुराक्षकर्मी या फिर मतदान कर्मी…

वैसे इस गांव के मतदाताओं के झुकाव और समर्थन को मैं वर्गीकृत कर सकूं तो एक वर्गीकरण साफ़ झलकता है, जिसमें तीस वर्ष से कम उम्र के ज्यादातर मतदाता बीजेपी के समर्थक हैं, जबकि जदयू के ज्यादातर समर्थक चालीस और पचास को पार किये हुए है. कुछ परिवार तो ऐसे दिखें जिसमें पिता ने जदयू को मत दिया पर नवयुवक बेटे ने बीजेपी को.

वैसे ये वर्गीकरण वहां दलितों पर लागू नहीं हो सकता है, क्यूंकि इनके हर उम्र वर्ग के मतदाता बीजेपी विरोधी है. जो लोग जदयू के समर्थक हैं, वो अपनी मर्जी से मतदान नहीं कर रहे हैं. बल्कि अपने स्वर्ण मालिकों के अदिपत्य में वो मतदान कर रहे हैं. जबकि ज्यादातर दलित नवयुवक रोज़गार की तलास में गांव से बाहर हैं.

लगभग तीन बज चुके थे और मतदाताओं की भीड़ लगभग नगण्य हो चुकी थी. उधर गांव के पास ही दो अन्य स्वर्ण बहुल गांव से बीजेपी के उम्मीदवार को थम्पीइंग मतदान की सूचना मतदान केंद्र के पास जमावड़ा लगाये लोगों के मोबाइलों पर आ रही थी. ज्यादातर लोग विचलित नज़र आ रहे थे. आखिर गांव के इज्जत का सवाल था.

इज्जत? हाँ भाई, जिला का सबसे बड़ा स्वर्ण बहुल गांव और मतदान के मामले में पीछे! आखिर गांव के दोनों खेमे (बीजेपी और जदयू) में वोटों का बंटवारा कर थम्पीइंग मतदान करने का गुप्त समझौता हो गया. तीसरा उम्मीदवार का समर्थक? उसमें तो एक ही स्वर्ण था जिसने सौ से डेढ़ सौ वोट के लिए राजद उम्मीदवार से पैसे लिए थे और उसने वो टारगेट मुसहरो और दलितों के वोट के सहारे पूरा कर चूका था. लेकिन एक और रोड़ा था ?

मेरे द्वारा नरेन्द्र मोदी के खिलाफ गुजरात के डेवलपमेंट मॉडल पर चलाये जा रहे जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय और इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मास कम्युनिकेशन के विद्यार्थियों के समग्र अभियान की खबर गांव वालों को पहले से थी.

मतदान के दिन एकाएक मुझे देखकर मतदान केंद्र पर जमे बीजेपी के समर्थक सबसे अधिक आशंकित थे. लोग मुझसे पूछ रहे थे कि मैंने किसको मतदान किया, जिस पर मेरे एक ही जवाब था “उसको जो बीजेपी के उम्मीदवार को हराने के सबसे करीब हो.”

मामला साफ़ था, मैं उस तीसरे उम्मीदवार का समर्थन कर रहा था जिसे दलितों का ही कुछ वोट मिला था. लोग मेरे ऊपर व्यंगात्मक रूप से समाज-विरोधी (वर्ण-विरोधी) होने का आरोप लगा रहे थे, पर साथ ही साथ मेरे शिक्षा के स्तर का सम्मान भी कर रहे थे और मेरे द्वारा मोदी विरोधी अभियानों का भी सम्मान कर रहे थे.

वो इस बात का भी सम्मान कर रहे थे कि मैंने किसी एक खास उम्मीदवार को मतदान करने का आग्रह किसी से नहीं कर रहा था. उन्हें ये भी पता चल गया था कि जब मैं सुबह दलितों की बस्ती में गया था तो वहां के दलितों ने मुझसे यह सलाह मांगी कि वो किस मतदान करें तो मैंने उन्हें सलाह देने से मना कर दिया था और उनसे कहा कि ये अधिकार उनका है और ये फैसला उनको ही लेना है. मैंने सिर्फ उनसे इतना ही कहा कि गुजरात में मोदी जी की सरकार दलितों और आदिवासियों के लिए ही सर्वाधिक घातक रही है.

खैर, इधर मतदान केंद्र पर बीजेपी और जदयू के समर्थक मुझसे राजनितिक बहस के बहाने या किसी कार्य के बहाने मुझे उलझाने की कोशिश में लगे थे. अब तक गांव के लोगो ने गांव के दो में से एक बूथ के सभी मतदान कर्मियों और शुराक्षकर्मियो से तालमेल बना ली थी.

मैंने भी स्थति भांप ली थी और लगातार मतदान केंद्र का चक्कर लगा रहा था. सुरक्षाकर्मी मुझे देखते ही भड़क जा रहे थे. इस बीच उनसे मेरी तीन चार बार झड़प हो चुकी थी. वो सभी लोगों को तो बिना रोके टोके मतदान केंद्र के अन्दर आने जाने दे रहे थे पर मुझे मतदान केंद्र के आस पास देखते ही चौकन्ने होकर मुझे केंद्र से दूर करने लगते थे.

उसी दौरान मैंने मतदान भवन की खिड़की से थम्पीइंग होते देख लिया. इस बार मैं बेधड़क मतदान केंद्र में घुस गया और सुरक्षाकर्मियों समेत मतदान कर्मियों पर बरस पड़ा. खतरा देख सुरक्षाकर्मी मुझे मतदान केंद्र के अन्दर ही रहकर सब कुछ पर निगाह रखने को कहने लगे. पर बीजेपी और जदयू दोनों के समर्थक इससे होने वाले नुक़सान को भांप गए.

गांव के कुछ लोग मेरे ऊपर हावी होने की कोशिश की पर समझदार लोगों ने मुझे समझा बुझाकर मनाने की कोशिश की. पर जब मैंने किसी की न सुनी तो गांव वालों का साथ पाकर सुरक्षाकर्मी मेरे पे हावी होने लगे और मुझे ज़बरदस्ती मतदान केंद्र से बाहर करने लगे.

इस बीच ना जाने कहां से गांव के कुछ लोग मेरे समर्थन में भी खड़े हो गए थे. मैंने इलेक्शन कमीशन के जिला कार्यालय में घटना की सूचना फ़ोन से दे दी और दस मिनट के अन्दर तीन गाड़ी सुरक्षाकर्मी और मतदान अधिकारी आ गए और मतदान खत्म होने के बाद ही वहां से गए.

पर सवाल ये उठता है कि अगर मतदान केंद्र के अन्दर बैठ सभी मतदान कर्मी मिले हो तो कोई कितना रोक सकता है. मैं रात की ट्रेन पकड़ कर ही दिल्ली आ गया पर बाद में फ़ोन पर पता चला कि अतिरिक्त सुरक्षाकर्मियों के आने के बाद भी कुछ अनुचित मतदान हुए थे.

हुआ यूं कि सुरक्षाकर्मी वोटिंग मशीन के पास तो होते नहीं थे, जिसका फायदा उठाकर मतदान पीठासीन अधिकार एक एक मतदाता के वोटिंग मशीन के पास जाने के बाद लगातार दस दस बार वोटिंग नियंत्रण मशीन दवाकर उन्हें दस दस वोट देने दिया.

खींच-तान कर गांव में लगभग 50% मतदान हुआ. पुरे गांव में शर्मिंदगी की लहर है कि ढाई हजार से ऊपर मतदाता होने के वावजूद गांव से सिर्फ 1226 वोट ही पड़ पाए जबकि पड़ोस के ही एक अन्य स्वर्ण बहुल गांव में कुल 1900 मतदाता में से पंद्रह सौ से भी अधिक मतदान हुआ.

गांव के लोग इस बात से शर्मिंदा हैं कि वो भूमिहार समाज को और अपने उम्मीदवार गिरिराज सिंह को क्या मुंह दिखायेंगे पर मैं इस बात से शर्मिंदा हूँ कि क्या यही है हमारी दुनियां का सबसे मज़बूत लोकतंत्र?

(लेखक जेएनयू के छात्र के साथ-साथ एक थियेटर एक्टिविस्ट और जागृति नाट्य मंच के संस्थापक सदस्य हैं. इनसेSubaltern1987@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है. )

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