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न्याय करेगा कौन…?

Afaque Haider for BeyondHeadlines

मोदी ने फिर कहा कि ‘अगर वह दोषी हैं तो उसे बीच चौराहे में फांसी पर लटका दिया जाए.’ मोदी पिछले 12 सालों में गुजरात दंगों पर हमेशा चुप्पी साधे रहें और हर बार पत्रकारों के सवालों से कन्नी काटते रहें, लेकिन बीते कुछ दिनों में वह इस मसले पर कुछ ज्यादा ही मुखर हो उठे हैं. शायद ये इनके पीआर कैंपेन का हिस्सा है या अपनी दागदार छवि को सुधारने की कोशिश…

हर बार वह एक ही बात दोहरा रहें हैं कि ‘अगर वह मुजरिम हैं तो फांसी पर लटका दिया जाए.’ लेकिन ये मौजूदा परिस्थिति में मुमकिन नहीं है, इसे सबसे बेहतर मोदी खुद जानते हैं.

सीपीएम नेता और पूर्व सांसद मोहम्मद सलीम ने लोकसभा में एक प्रश्न पूछा था कि ‘देश में ऐसे कितने लोग हैं जो 10 लाख रू का इन्कम टैक्स रिर्टन भरते हैं और किसी मुक़दमे में दोषी साबित हुए हैं. बकौल सलीम उन्हें जवाब मिला था ‘कोई नहीं’ (इंडिया टूडे).

मोहम्मद सलीम के इस प्रश्न और उन्हें मिले उत्तर से ही भारतीय न्यायपालिका की कार्यशैली का पता चल जाता है. ऐसा नहीं है कि दस लाख का रिर्टन भरने वाले ने कोई जुर्म ना किया हो, लेकिन उन्होंने दौलत के बल पर सब कुछ मैनेज कर लिया. यदि दस लाख का रिर्टन भरने वाला आज तक किसी मुक़दमे में दोषी साबित नहीं हो सका तो वो जिसके पीछे सारी कारपोरेट खड़ी है. जो हज़ारों करोड़ रूपये सिर्फ चुनाव प्रचार में लुटा देता है. वह दोषी कैसे साबित होगा?

न्याय के दो पहलू होते हैं. अदालत और स्टेट, दोनों में से किसी एक की असमर्थता से न्याय अन्याय हो जाता है. न्यायालय आरोपी के साथ होता और स्टेट पीडि़त के साथ… पीडि़त के बिहाफ पर स्टेट सबूत इकट्ठा करता है और अदालत सबूतों के आधार पर ये देखती है कि जिस पर आरोप लगा है वह दोषी है या निर्दोष.

अगर स्टेट चाहे तो दिन दहाड़े मर्डर करने वाला मनु शर्मा भी बाइज्ज़त अदालत से बरी हो जाता है और स्टेट चाहे तो फिर जेल भी जा सकता है. सब कुछ स्टेट के चाहने से होता है. मगर जब स्टेट ही कठघरे में खड़ी है, स्टेट के मुखिया पर ही कत्लेआम का दाग़ है, तो ऐसे में प्रश्न स्वाभाविक हो जाता है कि इंसाफ कौन करेगा? स्टेट के खिलाफ सबूत कौन जुटायेगा? कौन एफआईआर दर्ज करेगा?

यदि सचमुच मोदी बेक़सूर हैं, जिसका बखान वह आज कल घूम-घूम कर टी.वी इंटरव्यू में कर रहें हैं तो पहले अपने पद से इस्तीफा दें फिर स्वतंत्र जांच एजेंसी से अपनी भूमिका की जांच करवा लें. वरना सत्ता में बने रहते मोदी का फांसी पर चढ़ना या न्याय होना दोनों मज़ाक है, जिसे वह लगातार मज़लूमों के साथ कर रहे हैं. यही वजह है मोदी के अति आत्मविश्वास का कि वह हर बार फांसी पर चढ़ने को तैयार हैं.

गुजरात में हज़ारों लोगों के कत्लेआम के लिए सिर्फ चंद लोगों को सज़ा हुई. वह भी तब जब मानवाधिकार संगठन और गैर-सरकारी संगठन सड़कों पर उतर आयें. पीडि़तों के मुक़दमे को गुजरात से बाहर महाराष्ट्र ट्रांसफर करना पड़ा. तहलका के स्टिंगऑप्रेशन में ये बात और पूरी तरह साबित हुई कि सरकारी वकील पीडि़तों के लिए नहीं, बल्कि आरोपियों के लिए मुक़दमा लड़ रहे थें.

अधिकतर सरकारी वकील का ताल्लुक आरएसएस और वीएचपी से था, जिस संगठन से ताल्लुक आरोपियों का था. इसलिए गुजरात में अधिकतर आरोपियों को गंभीर मुक़दमे में भी तुरंत बेल मिल गयी (गुजरात 2002: वाट जस्टिस फॉर दा विक्टिम, क्रिस्टोफ जैफेरलोट).

माया कोडनानी, बाबू बजरंगी, और जयदीप पटेल जो नरसंहार के मुख्य दोषी माने गयें. जिनके खिलाफ कई चश्मदीद गवाह मौजूद थे. तहलका के स्टिंग ऑप्रेशन में खुद बाबू बजरंगी ने अपनी भूमिका स्वीकार कि जिसके खिलाफ सारे सबूत मौजूद थे. इन लोगों को भी गिरफ्तार करने में गुजरात सरकार ने मुद्दतों लगा दिये. निचली अदालत से इन्हें तुरंत बेल मिल गया.

जयदीप पटेल तो नरेन्द्र मोदी के काफी करीबी लोगों में माना जाता है, जो कथित रूप से दंगों के समय मोदी के संपर्क में था. माया कोडनानी तो बज़ाब्ता गुजरात सरकार में कई सालों तक आरोपी होने के बाद भी महिला और बाल विकास मंत्री बनी रही. जबकि इसके बरक्स 56 कारसेवकों की मौत के बाद सैंकड़ों गरीब मुसलमानों को सिंग्नल फालिया के बस्तियों से उठा लिया गया, जिन्हें बेल भी मिलने में एक दशक लग गया.

बिना कसूर के कई लोगों ने उम्र कैद की सज़ा काट ली. जिस शहर में इंसाफ का ये पैमाना है वहां मोदी जैसा ताक़तवर शख्स जिसके जेब में पूरा प्रशासन है, फांसी पर लटकने की बात करे तो बेमानी है.

सन 1919 में पंजाब के अमृतसर में जनरल डायर ने मासूम हिन्दुस्तानियों का कत्लेआम किया. जिस ज़ालिम ने सैकड़ों हिन्दुस्तानियों को मौत के घाट उतार दिये, उसे भी उस वक्त गठित की गयी तीन-तीन जांच एजेंसियों ने क्लीन चिट दे दिया. यहां तक की ‘हाऊस ऑफ लॉर्ड’ ने उसे हीरो बना दिया. लेकिन 100 साल के बाद भी ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरौन को उस नरसंहार पर दुख तो था, लेकिन वह माफी मांगने को तैयार नहीं थे.

जि़म्मेदारी तीन तरह की होती है… नैतिक जि़म्मेदारी, राजनीतिक जि़म्मेदारी और कानूनी जि़म्मेदारी. सन 1956 में केवल एक ट्रेन की दुर्घटना के बाद तत्कालीन रेलवे मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने नैतिक जि़म्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया था.

लेकिन ये भारत का दुर्भाग्य ही कहा जाए कि यहां राजनीति का स्तर इस क़दर गिर गया है कि हज़ारों लोगों का क़त्ले आम जिस सरकार की निगरानी में हो गया हो, उसके मुखिया के माथे पर बल भी नहीं पड़ता है और वह बड़ी बेशर्मी के साथ 56 इंच का सीना चौड़ा करके कहता है कि वह इसके लिए किसी भी तरह से जि़म्मेदार नहीं है.

इस नस्लकुशी पर उसे अफसोस तो है, लेकिन शर्मिंदगी नहीं… इसलिए माफी का तो सवाल ही नहीं उठता है. इस घटना ने एक बार फिर जालियावाला बाग के ज़ख्म को हरा कर दिया.

एसआईटी ने मोदी को क्लीन चिट देकर इस बात की तस्दीक कर दी कि कानून वाक़ई में अंधा होता है. एसआईटी ने तथ्यों और सबूतों को नज़रअंदाज़ किया. एसआईटी ने मोदी के विरोधाभासी सवालों पर कोई काऊंटर सवाल नहीं किया, जिसका खुलासा मनोज मित्तल ने अपनी किताब ‘दा फिक्शन ऑफ फैक्ट फाइंडिंगः मोदी एंड गोधरा’ में भी किया है.

एसआईटी का काम सबूत इकट्ठा करके अदालत को सौंपना था. ये उससे दो क़दम आगे बढ़कर मोदी को क्लीन चिट देने लगा. जबकि उन्हीं सबूतों और तथ्यों की बुनियाद पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त न्यायमित्र राजू रामचंद्रन ने मोदी के खिलाफ उस पर मुक़दमा चलाने के लिए पर्याप्त सबूत की बात की.

नरेंद्र मोदी के खिलाफ उसी की सरकार में दो आईपीएस अफसर संजीव भट्ट और श्री कुमार ने आरोप लगाया कि मोदी ने गुजरात अग्नि-कांड के बाद पुलिस अधिकारियों को कोई कार्रवाई ना करने का आदेश दिया और हिन्दुओं को गुस्सा निकालने की छूट देने की बात कही.

इस की पुष्टि खुद मोदी के कैबिनेट मंत्री हरेन पाण्डेय ने 2002 में सिटीज़न ट्रब्युनल में जस्टिस कृष्णा अय्यर और पी.बी सावंत के सामने की, जिसकी तस्दीक खुद 2009 में आईपीएस अफसर संजीव भट्ट ने एसआईटी और सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने हलफनामे में किया.

तहलका द्वारा स्टिंग आप्रेशन में बाबू बजरंगी ने साफ इस बात को कबूल किया कि मोदी द्वारा 3 दिन तक खुली छूट थी. इन्हीं टेपों के आधार पर बाबू बजरंगी, माया कोडनानी और जयदीप पटेल को दंगों में मुख्य आरोपी मानते हुए सज़ा हुई. लेकिन बड़ी अजीब बात है कि जिस देश में सैंकड़ों नौजवान जेल की काल कोठरी में बिना किसी सबूत के मुद्दतों गुजार देते हैं. उसी देश में किसी शख्स के खिलाफ 2500 लोगों के कत्लेआम के इतने सबूत होने के बावजूद मुक़दमा तक दायर नहीं होता है.

नरेन्द्र मोदी ने दंगों को रोकने के लिए कोई ठोस क़दम नहीं उठाया. गोधरा अग्नि-कांड के बाद गुजरात सरकार ने 56 कारसेवकों के शव को अहमादाबाद ले जाने दिया, जिसकी अगुआई जयदीप पटेल जो मुख्य दोषी है उसने की. ये असंवैधानिक और बिल्कुल गैर जिम्मेदारना क़दम था.

शवों को अहमदाबाद पहुंचने पर गुजरात सरकार ने कोई एहतियातन क़दम नहीं उठाया. अहमदाबाद में जान-बूझकर कोई कफ्र्यू नहीं लगाया गया. और पूरे पब्लिक के सामने शवों का जुलूस निकाला गया और उसका अंतिम संस्कार किया गया.

गोधरा कांड के ठीक दूसरे दिन भाजपा और वीएचपी का अहमदाबाद बंद था. लेकिन एसआईटी के सामने मोदी ने इस बारे में कोई जानकारी ना होने की बात कही. जबकि ये बात गले से नीचे नहीं उतरती कि वीएचपी और भाजपा का बंद हो और मोदी को इस बाबत कोई ख़बर नहीं थी.

ज़ाकिया जाफरी ने 18 सितंबर 2013 को कोर्ट में दिये गये अपनी तहरीर में इस बात की निशानदेही की कि नरेन्द्र मोदी जयदीप पटेल के लगातार संपर्क में था. आईपीएस अफसर राहुल शर्मा द्वारा उपलब्ध कराये गये फोन कॉल के डिटेल से ये बात साबित होती है कि मुख्य आरोपी दंगों के समय सीएमओ ऑफिस के लगातार संपर्क में थे.

नरेन्द्र मोदी और केंद्र की भाजपा सरकार ने गोधरा कांड के तुरंत बाद इसे आईएसआई एजेंटों द्वारा आतंकवादी घटना क़रार दे दिया, जबकि उस वक्त ना तो कोई इंटेलीजेंस इंपुट था और ना ही कोई तफ्तीशी जांच ही पूरी हुई थी. मनोज मित्तल और सिद्धार्थ वरदाराजन ने अपनी किताबों में इस बात की पुष्टि की है. जबकि नरेन्द्र मोदी एसआईटी के सामने पलट गये कि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा था.

मोदी सरकार ने क्षित विक्षित शवों के फोटोग्राफ और वीडियो होने दिये. जिसे वीएचपी के कार्यकर्ताओं ने सीडी बनाकर बेचा और लोकल चैनलों और समाचार पत्रों ने खबर को बढ़ा चढ़ाकर छापा, जिससे मानवीय भावना भड़क गयी और मोदी ने इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया.

भले एसआईटी ने मोदी को क्लीन चिट दे दी और मोदी भी खुद को हमेशा मासूम सबित कर रहे हैं, लेकिन तथ्यों और सबूतों की कसौटी के आधार पर मोदी को कतई बरी नहीं किया जा सकता. वह किसी भी जि़म्मेदारी से पल्ला झाड़ नहीं सकते. कानून अंधा होता है, इंसान नहीं…

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