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Reading: जब तक सच का अस्तित्व है, आम आदमी पार्टी अस्तित्व में रहेगी
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जब तक सच का अस्तित्व है, आम आदमी पार्टी अस्तित्व में रहेगी

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published May 30, 2014 1 View
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13 Min Read
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Chanchal Sharma for BeyondHeadlines

सब कह रहे हैं- “आप” ख़त्म होने वाली है. इसका अंत करीब आ गया है. हम जहां से शुरू हुए थे, बस वहीं आ पहुंचे हैं. हम हार गए हैं”….

चुनाव ख़त्म होते ही इसी तरह के कई तकिया कलाम गाहे-बगाहे हर तरफ से सुनने को मिल रहे हैं. जायज़ है जब इतना कुछ कहा जाएगा तो कुछ असर तो होगा ही. मानव मन के हौसले की भी एक सीमा है, टूटे भले ना पर चोट तो होती है.

ऊपर से एक काम हुआ कि अरविन्द को जेल हो गयी. हथकड़ी हाथ में पहने अरविन्द जेल की वैन में घुस रहे थे तो मन में कहीं एक आवाज़ आई कि हमारी आवाज़ अब कैद में जा रही है. कौन उठाएगा हमारे लिए आवाज़… कौन कहेगा कि हमारे साथ ये गलत हो रहा है… कौन कहेगा हमें इसका विरोध करना चाहिए…

एक कार्यकर्ता और समर्थक के रूप में आज मैं अकेले बैठकर दिन भर सोच रहा हूं कि एक पार्टी के रूप में क्या मेरा अस्तित्व क्या वाक़ई ताक पर रखा है या ऐसा भ्रम फैलाकर हमारा अंत प्रायोजित किया जा रहा है?

नवम्बर में जब ये पार्टी बनी तो हज़ारों की भीड़ में मैं भी बैठा था. इससे पहले कई पार्टियां और बनी होंगी, पर मेरे लिए उनमें किसी का कोई मायना नहीं था. राजनीति एक सब्जेक्ट के सिवा कुछ नहीं थी, जिसके 10 सवाल रट कर एग्जाम पेपर में लिख आने पर मुझे अगली क्लास में भेज दिया जाता था. लेकिन उस दिन भावुकता चरम पर थी. एक आन्दोलन जिसे हमने हमारे पसीने से सींचा था, अब एक क़दम आगे बढ़कर राजनीतिक रूप में हमारा प्रतिनिधित्व करने जा रही थी.

अरविन्द मंच पर थे… उनकी आंखों में हम सब का भविष्य था. एक पिता, मां, बड़ा भाई, गुरु, सलाहकार, रक्षक, साथी, सब उनके छोटे से कद में समाया था.

आन्दोलन से मुश्किल सफ़र राजनीतिक पार्टी बनने के बाद शुरू हुआ. आन्दोलन में लाठियां, पड़ती थी… जेल होती थी… वाटरकेनन चलती थी… आंसू गैस के गोले छोड़े जाते थे… पर फिर भी पुलिस प्रशासन में द्वेष की भावना इस हद तक नहीं पहुंची थी.

मुश्किल दौर तब शुरू हुआ, जब पार्टी ने पोल खोल अभियान शुरू किया और कांग्रेस भाजपा की सांठ-गांठ को बेपरदा करना शूरु किया. सब राजनीतिक दल, अम्बानी अदानी, तमाम व्यावसायिक मजमा खिलाफ हो गया.

बाहर से राजनीतिक दलों के चुनाव चिन्ह भले अलग हों, मतलब चमड़ी भले काली गोरी भूरी हो, पर रगों में सबके वही काला भ्रष्ट खून बहता है. ये साबित कर दिया अरविन्द केजरीवाल ने…

आप चोर को चोर नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे? आप भ्रष्ट को भ्रष्ट नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे? आप काले को काला नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे? पोल खोल में जिन पर आरोप लगे, उनके खिलाफ पर्याप्त सबूत पेश हुए. किसी को बस ऊंगली और नज़र उठाकर गलत नहीं ठहराया गया… किसी को बस राजनीतिक प्रतिद्वंदता के आधार पर भ्रष्ट नहीं कहा. जिस पार्टी की नींव ही भ्रष्टाचार विरोध हो, वो भला कैसे भ्रष्ट को भ्रष्ट कहने में हिचकेगी?

दिल्ली चुनाव में 8 सीट ना मिलना अगर बहुमत नहीं था, तो क्या वो 28 सीट मिलना जनता का मत नहीं था? अल्पमत क्या मत नहीं होता? बहुमत सदैव सही कैसे हो सकता है? झूठ की पैरवी लाख करें, पर सच अकेला भी सच ही रहता है. तो कैसे आम आदमी पार्टी जो चंद महीनों का नतीजा थी, एक बड़े तबके का समर्थन पाकर भी असफल रह गयी?

दरअसल, ये हुआ नहीं था, बल्कि दिखाया गया था. सिक्कों की खनक ईमान कीआवाज़ को दबा देती है. मीडिया की नीलामी में सब बिक गया. झूठ का पलड़ा इतना भारी हो गया कि सच को दबाना अब छोटी बात थी.

एक साल में आप राजनीति नहीं सीख सकते… बस अपने नैतिक मूल्यों पर टिक कर राजनीति का सामना कर सकते हैं. यही “आमआदमी पार्टी” कर रही थी. हम नए थे. हमें दाव पेंच नहीं आते. और इसे स्वीकारने में हमें कोई हिचक भी नहीं है. हम नहीं जानते थे कि नैतिक मूल्यों पर लिए फैसले राजनीति के मापदंडों पर खरे नहीं उतरते. हमें नही पता था कि समझौते की राजनीति की उम्र ही लम्बी होती है.

अरविन्द ने जन-लोकपाल ना पाने के धरातल पर दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया. उस दिन अरविंद के शब्द आज भी कानों में गूंजते हैं. बहुमत के समक्ष अल्पमत की बेबसी अब भी याद है. सच कैसे कठघरे में था और झूठ कैसे दलील दे रहा था, सब याद है.

अरविन्द भगोड़े नहीं थे. आम आदमी पार्टी कर्तव्यों से मुंह नहीं फेर रही थी. बस चक्रव्यूह भेद कर अन्दर जाने के बाद हमें बाहर निकलना नहीं आया. तो क्या उससे हमारी नियत पर प्रश्न चिन्ह लग सकता है? क्या अभिमन्यु का चक्रव्यूह ना भेद पाना उसके सामर्थ्य को कम कर सकता है? क्या कौरवों का सभा में जीत जाना उन्हें धर्म पराणय बना गया?

इस्तीफ़ा हमारी गलती थी, पर वो हमारी हार नहीं थी. भावनाएं जीत रही थी. लोकसभा चुनाव में बनारस और अमेठी में दी गयी चुनौती भले जीत दर्ज नहीं करा पायी, लेकिन दोनों ही जगह जो लड़ाई लड़ी गयी, उसकी महत्वता को शायद ही कभी भुलाया जा सके.

आप अपने दो हाथों की आढ़ में करोड़ों पत्थरों की मार से खुद को नहीं बचा सकते. वर्षों से तैयार किया जा रहा धरातल आप की एक महीने की ज़मीन से मज़बूत होगा ही. बेशुमार पैसा, गोद में खेलता मीडिया और अफवाह फैलाने को करोड़ों ज़ुबाने… पर एक महीने में बंज़र भूमि पर जितनी उम्मीदें अरविन्द ने बोई थी, उस पर भविष्य में फसल नहीं लगेगी ये कहना ज्यादती होगा.

लोकसभा चुनाव में नाउम्मीदगी सिर्फ दिल्ली से हुई. 4% वोट बढ़ा, मगर वो सीटों में नहीं बदल पाया. हालांकि ना लोगों का भरोसा टूट पाया, ना प्यार कम हुआ. लेकिन लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव में फर्क है. किसी व्यक्ति को जनादेश से पहले ही प्रधानमंत्री प्रायोजित करने के लिए धन कुबेरों का सहारा चाहिए और उनसे बैर तो हम पहले ही बाँध चुके. विधानसभा में आम आदमी पार्टी दिल्ली में सरकार नहीं बना पाएगी ये कहना जल्दबाजी होगा.

लोकसभा चुनाव में दिल्ली परिणामों ने कार्यकर्ताओं का हौसला डिगा दिया. बेइंतहा हताशा और टूटते आत्मविश्वास के बीच खुद पर से साथ-साथ नेताओं से भरोसा डिगने लगा. सबको लगने लगा कि भावनाओं के बहाव में हम अपनी ज़मीन खो रहे हैं. कार्यकर्ता जो कि इस राजनीतिक पार्टी की जान है, उनके मन का ये अविश्वास कहीं न कहीं अरविन्द के मन तक ज़रूर पहुंचा होगा.

मात्र 3 दिन वो सबसे दूर रहे. इन 3 दिनों में तमाम तारक के अंदेशे, अनुमानों और अफवाहों का बाज़ार गरमा गया. पर क्या सच में हमारा भरोसा अरविन्द पर से उठ रहा था? क्या सच में हम मान बैठे थे कि भावनाओं का बवंडर इस उम्मीद को बहा ले जा रहा था?

शायद नहीं, अरविन्द की गैर मौजूदगी में हम असहाय महसूस करने लगे थे. सिर के ऊपर का आसरा हटता दिख रहा था. लग रहा था बस एक बार कहीं से ये शब्द सुनने को मिलें कि सब ठीक हो जाएगा. सिर्फ जीतने के मक़सद से हम इस लड़ाई में नहीं उतरे थे, हम यहां लड़ने के मक़सद से आये थे.

एक बात और है. इस आन्दोलन में ना हम अरविन्द परसे अपनी आत्म निर्भरता हटा सकते हैं और ना ही भावनाओं से. इस पार्टी का पूरा आधार ही हमारी भावनाएं हैं. देश के प्रति भावना, सच के प्रति, संघर्ष के प्रति. जहां हमने ज़रा भी व्यवहारिक होने की सोची वहीं हम गिर जायेंगे. क्यूंकि व्यवहारिक ज़मीन पर चलने के सभी साधन विरोधियों के पास हैं, हमारे पास सिर्फ भावनाओं का समुद्र है.

भावनाएं नहीं होती तो कोई सात समुद्र पार से अपनी रोज़ी रोटी घर-बार छोड़कर यहां वतन वापिस नहीं आता. भावनाएं न होती तो कोई लाखों की नौकरियों को देश के नाम पर न्योछावर नहीं करता. भावनाएं नहीं होती तो देश के उच्च संस्थानों से जी जान लगाकर डिग्री हासिल करके आये युवा सड़क पर पड़े लाठियां नहीं खाते. भावनाएं नहीं होती तो कोई अरविन्द के देश के नाम पर रिश्तों को ताक पर नहीं रखता.

ये लड़ाई बहुत लम्बी है. अभी शुरुआत मात्र है. अभी छोटी छोटी हार हमें विचलित कर देती है, क्यूंकि शायद हमारे पास वो दूरदर्शिता नहीं है, जो गांधी के पास थी. मीलों की डांडी यात्रा करके मुट्ठी भर नमक बनाना देश भर के मुंह का स्वाद नहीं बदल सका, पर विरोध की एक चिंगारी भी बड़े से बड़े निरंकुश भ्रष्ट साम्राज्य को नष्ट कर गयी.

सड़क पर हर छोटी छोटी बात पर धरना विरोध करके भले अभी हमें सिर्फ उपहास और तानों के सिवा कुछ नहीं मिलता, पर इसी विरोध एकआवाज़ ने एक अरसे से देश पर कब्ज़ा कर रही सरकार की ज़डें काटने का काम किया. जड़ काट देने पर ऊपर के पत्ते डाली भले कोई काट ले जाए, पर जड़ पर उस पहले चोट का महत्त्व ख़त्म नहीं हो सकता.

देश में अरसे बाद बहुमत की सरकार आ रही है. सब तरफ हाहाकार मचा है. मन में थोडा डर भी है कि अब संविधान के साथ खिलवाड़ आम हो जाएगा. हर फैसले को थोपा जाएगा. पर सच ये भी है कि जो लोकतंत्र उन्हें राज करने का अधिकार देता है, वही लोकतंत्र हमें आवाज़ उठाने का अधिकार भी देता है. अगर संसद में दागी बढ़ेंगे तो सड़कों पर नारों का शोर भी तेज़ होगा. अगर अधिकार मारने वाले बढ़ेंगे, तो अधिकार मांगने वाले भी बढ़ेंगे, अगर सिर काटने वाले बढ़ेंगे तो सिर उठाने वाले भी बढ़ेंगे.

हम यही विरोध की राजनीति करके आगे बढ़ेंगे. जो धरने प्रदर्शन आन्दोलन आपको नाटक लग रहे हैं, वही हमें हमारा हथियार लग रहे हैं. इतिहास साक्षी रहा है कि निरंकुशता जितनी बढ़ी है, उसके खिलाफ संघर्ष भी उतना मुखर हुआ है. एक अरविन्द आज एक ज़मानती मुचलके के विरोध से उन तमाम लोगों की आवाज़ बन रहा है जो सालों से सिर्फ इस एक मुचलके को ना भर पाने की बेबसी के चलते सलाखों के पीछे है. कानून की मनमानी हर वक़्त मान्य नहीं हो सकती.

हो सकता है कभी आम आदमी पार्टी ख़त्म हो जाए. पर इससे निकला आम आदमी हर नुक्कड़ चौराहे गली कूचे में जब जब गलत होता देखेगा आवाज़ उठाएगा. हो सकता है अरविन्द ख़त्म हो जाए, पर उसकी दी वो विचारधारा कभी नहीं मर सकती कि भले गले पर तलवार रखी हो, पर सच की नज़रें झूठ की नज़रों में सीधे देखकर उसे चुनौती दे तो तलवार की धार भी निराधार हो सकती है.

जब तक सच का अस्तित्व है, आम आदमी पार्टी अस्तित्व में रहेगी. मतों की संख्या इसे सिर्फ अधिकार दे सकती है, इसके अधिकार छीन नहीं सकती.

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