Health

गांव के इन बीमारों के लिए अच्छे दिन कब आएंगे?

Fahmina Hussain for BeyondHeadlines

कहते हैं कि एक स्वस्थ राष्ट्र की कल्पना तभी संभव है, जब उस राष्ट्र का हर व्यक्ति स्वस्थ हो. शायद यही वजह थी कि पूर्व की यूपीए सरकार ने ‘नेशनल अर्बन हेल्थ मिशन’ और ‘नेशनल रूरल हेल्थ मिशन’ की शुरूआत की, ताकि शहरों के साथ-साथ गांवों में बसने वाली भारत के भी स्वास्थ्य को सुधारा जा सके. लेकिन सच्चाई यही है कि इस ‘मिशन’ ने लोगों को ‘बीमार’ बनाने का काम अधिक किया है. ‘स्वस्थ्य’ तो सिर्फ सरकारी बाबू हुए हैं.

पिछले दिनों हम गांव के स्वास्थ्य का जायज़ा लेने राजस्थान के प्रतापगढ़ ज़िला पहुंचे. यहां जिला अस्पताल के साथ-साथ 7 कम्युनिटी हेल्थ सेंटर्स और  डिस्पेंसरीज़, 23 PHCs (Primary Health Centre’s), 153 सब-सेंटर्स भी मौजूद हैं.

धरियावद, अरनोद, पीपलखूंट और छोटी- सदरी में एम्बुलेंस सुविधा भी है. ज़्यादातर गांव जिला अस्पताल से दूर होने में कारण  यहां Mobile Medical Unit (MMU) की सुविधा भी मौजूद है.

प्रतापगढ़ जिला हॉस्पिटल में 277 बेड हैं. बताया जाता है कि यहां 46 डॉक्टरों पद रखे गए हैं. ICTC सेन्टर 2003 में शुरू किया गया, जिनमें टीबी, HIV आदि के मरीजों का इलाज़ की सुविधा उपलब्ध है. जिला अस्पताल में ब्लड बैंक की सुविधा भी मौजूद है, जहां 36% कंपेनिंग कर ब्लड इकट्ठा किया जाता है.

डॉ. ओ.पी. दायमा बताते हैं कि एनीमिया, मलेरिया के केसेज़ यहां ज्यादा आते हैं. 2-3 सालों में HIV के मरीज़ों में बहुत कमी आई है.  क्योंकि ICTC के द्वारा काउंसलिंग और मेडिसिन की सुविधा सरकार के द्वारा दी जा रही है. न्यू ब्रोन के लिए 14 और आउट ब्रोन के लिए 6 बेड हैं. ‘कुबेर’ सेल्फ-हेल्फ ग्रुप के द्वारा जननी के लिए भोजन का वितरण किया जा रहा है, जो JSY के द्वारा संचालित था.

पहली नज़र में तो हमें सब कुछ सही लगा. यहां के अधिकारियों ने हमें ‘टूरिस्ट’ समझ कर काफी अच्छे से अस्पताल को दिखाते रहे और अपनी तारीफ खुद ही करते रहे.  लेकिन ज्यों ही हमने यहां के मरीज़ों से बात करनी शुरू की, सारा पोल खुद बखुद खुलने लगा.

खुद डॉ. सदाक़त अहमद बताने लगे कि आई.पी.ए.एस. गाईडलाइन को यहां फॉलो नहीं किया जा रहा है, क्योंकि यहां स्टाफ की बहुत कमी है. इंफ्रास्ट्रक्चर तो है, लेकिन डॉक्टर और स्टाफ्स के ज्यादातर पोस्ट खाली पड़े हुए हैं. ऐसे में यहां के डॉक्टरों को पेसेंट देखने के साथ डबल बर्डन वर्क, पेपर वर्क भी करना पड़ता है. क्योंकि यहां फिलहाल 12 डॉक्टर ही बहाल हैं.

साथ ही वो यह भी बताने लगे कि मुख्यमंत्री निशुल्क दवा वितरण योजना के लागू होने के बाद आउटडोर में 60 प्रतिशत एवं इनडोर में 20 प्रतिशत से अधिक रोगियों की बढो़तरी हुई है. वर्तमान में जिले के ग्रामीण क्षेत्रों के स्वास्थ्य केन्द्रों पर आने वाले 97 से 100 प्रतिशत तक रोगियों को नि:शुल्क इलाज उपलब्ध करवाया जा रहा है, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह प्रतिशत 92 से 100 प्रतिशत है.

मनोज पासवान (D.P.C) बताते हैं कि जिले में 570 प्रकार की दवाइयां उपलब्ध हैं, जो राज्यभर में सर्वाधिक है. राज्य सरकार के निर्देशानुसार जिला औषधि भण्डार से जिले के चिकित्सा संस्थानों को दवा मांग पत्रानुसार सप्लाई की जाती है.

लेकिन हक़ीक़त तो कुछ और ही बयान कर रहे थे. दूरदराज के ग्रामीण इलाकों में चिकित्सा सुविधा का अभाव औरलोगों में जागरूकता की कमी साफ तौर पर देखने को मिल रहा था. कालाजार, खसरा, हैजा, तपेदिक, हेपेटाइटिस आदि वे रोग हैं, जो न जाने कितने लोगों और बच्चों में देखने को मिले. इनमें से ज्यादातार बीमारियां पीने के साफ पानी की अनुपलब्धता, साफ-सफाई की अनदेखी और प्रतिरोधक टीके समय पर न लगाये जा सकने की वजह हो रही थी.

अभी भी बाल मृत्युदर कम करने के लिए स्वास्थ्य लक्ष्यों, पोषण व आहार के स्तर को सुधारने के लिए तय किया गया लक्ष्य, एमडीजी-5 (माताओं के स्वास्थ्य स्तर को उठाने के लिए निर्धारित लक्ष्य) को प्राप्त करने में राजस्थान का यह प्रतापगढ़ जिला काफी पीछे दिखा. राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन को लागू हुए तकरीबन 9 साल हो गए, लेकिन प्रतापगढ़ जिले में ह्यूमन रिसोर्स की सबसे ज्यादा कमी देखने को मिली. स्थापित सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में 50 से 60 प्रतिशत विशेषज्ञों के पद रिक्त हैं.

हमने यह भी देखा कि यहां के जाखम गांव में जाने के लिए यातायात की कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है. वहां सिर्फ नदी या पहाड़ियों से जाने का रास्ता है. पोलियो अभियान भी यहां नहीं पहुंच पाया है. ‘प्रयास’ के कार्यकर्ता दो साल पहले पोलियों ड्रॉप पिलाने आए थे, तब से अब तक यहां कोई भी पोलियों ड्रॉप के लिए नहीं आया है.

महिलाओं को पानी के लिए घर से काफी दूर जाना पड़ता है. महिलाओं पर तिगुना वर्क लोड होने के कारण उनमें एनीमिया, लिओकुरियाऔर मिसक्रेज की अधिकतर बीमारियां रही हैं. गांव में शिक्षा का स्तर ज्यादा नहीं है, इस कारण आशा वर्कर ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं हैं. अधिकतर आशा वर्कर गांव में नहीं रहती हैं.

यहां प्राइवेट प्रैक्टिसनर को ‘बंगाली डॉक्टर’ कहा जाता है. ऐसा इसलिए कि इनमें ज्यादातर बंगाल से आये हुए हैं. बंगाली डॉक्टर के पास लोग इसलिए जाते हैं, क्योंकि वो ऐसा मानते हैं कि इनके सुई और गुलकोज लगाने से बीमारी ठीक हो जाती है. और ये यहां के मरीज़ों से अच्छा व्यवहार भी करते हैं.

लोगों से बात करने पर पता चला कि सरकारी डॉक्टरों का व्यवहार उनके साथ अच्छा नहीं होता. वो केवल गोली देतें हैं, जिनसे बीमारी ठीक नहीं होती है. हालांकि अधिकतर सरकारी डॉक्टरों की अपनी निजी डिस्पेंसरी है, जहां वो मनमानी फीस वसूलने का काम करते हैं.

ऐसी अनगिनत कहानियां व बातें हैं, जो स्वस्थ भारत का सपना देखने वाले सरकारी अधिकारियों व सरकारों की पोल खोल देती हैं. अब यह देखना दिलचस्प होगा कि गरीबों के विकास की बात करने वाले, उनके लिए आंसू बहाने वाले प्रधानमंत्री इस बीमार ज़िले की कहानी कैसे बदलते हैं. और वैसे भी इस ज़िला की जनता उनकी ही पार्टी के नेता को चुनकर विधानसभा व लोकसभा दोनों जगह भेज चुकी है.

(लेखिका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में रिसर्च स्कॉलर हैं.)  

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