
Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines
क्या आप बता सकते हैं कि कोई घर ऐसा है, जहां कोई बीमार नहीं पड़ता? जहां दवाओं की ज़रूरत नहीं पड़ती? नहीं ना! सच पूछिए, अगर जीना है तो दवा खानी ही पड़ेगी. यानी दवा इस्तेमाल करने वालों की संख्या सबसे अधिक है. किसी न किसी रूप में लगभग सभी लोगों को दवा का उपयोग करना ही पड़ता है. कभी बदन दर्द के नाम पर तो कभी सिर दर्द के नाम पर… लेकिन यही दवाएं आम लोगों की पहुंच से दूर होते जा रहे हैं. यही दवाएं लोगों को और गरीब बना रही हैं.
आंकड़े बताते हैं कि देश-विदेश की जानी-मानी दवा कंपनियां भारतीय बाज़ार में 203% से 1123% तक मुनाफा कमा रही है. दवा कंपनियां ब्रांड के नाम पर मरीजों को लूट रहे हैं. जैसे एक साल्ट से बनी दवा को कोई कंपनी 50 रुपए में बेच रही है तो कोई 100 में.
आधिकारिक तौर पर भारत में गरीबी दर 29.8 फीसदी है या कहें 2010 के जनसांख्यिकी आंकड़ों के हिसाब से यहां 35 करोड़ लोग गरीब हैं. वास्तविक गरीबों की संख्या इससे भी ज्यादा है. ऐसी आर्थिक परिस्थिति वाले देश में दवा कारोबार की कालाबाजारी अपने चरम पर है. मुनाफा कमाने की होड़ लगी हुई है. धरातल पर स्वास्थ्य सेवाओं की चर्चा होती है तो मालूम चलता है कि हेल्थ के नाम पर सरकारी अदूरदर्शिता के कारण आम जनता लूट रही है और दवा कंपनियां, डाँक्टर और दवा दुकानदार मालामाल हो रहे हैं. यह कितना अजीब है कि जहां आज भी 70 फीसदी जनता 30 रुपये प्रति दिन नहीं कमा पाती. ऐसी आर्थिक स्थिति वाले देश में दवा व्यापार की काला-बाज़ारी अपने चरम पर है.
लेकिन यह सब शायद अब पुरानी बातें हो जाएं. क्योंकि देश में अब नई व मज़बूत सरकार है. और देश की जनता को पूरा यकीन है कि यह नई सरकार इस ओर ध्यान ज़रूर देगी. शायद यही कारण है कि नए रसायन व उर्वरक मंत्री अनंत कुमार पदभार संभालते ही आवश्यक दवाओं की कीमतों में 25-40 फीसदी कटौती की बात कही है. उन्होंने यह भी कहा कि इसके लिए दवा निर्माताओं से बात भी की जाएगी. वो इस संबंध में जल्द ही दवा बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों से बातचीत करेंगे.
वहीं दूसरी तरफ ‘शत प्रतिशत’ पारदर्शी प्रशासन का दावा करते हुए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन ने भी कहा कि वह देश में स्वास्थ्य प्रणाली सुधारने के लिए अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों से सलाह लेंगे.
स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम कर रही प्रतिभा-जननी सेवा संस्थान के राष्ट्रीय संयोजक आशुतोष कुमार सिंह का कहना है कि ‘नई सरकार के समक्ष दवाइयों के दाम को कम करने की बहुत बड़ी चुनौती है. क्योंकि पिछली सरकार ने जो दवा नीति बनाई है, उसमें दवाइयों का मूल्य निर्धारण बाजार की ताकते तय करेंगी. जब तक डीपीसीओ-2013 में इस मूल्य निर्धारण नीति के तहत दवाइयों के दाम तय किए जायेंगे आम जनता को वास्तव में कोई लाभ मिलने वाला नहीं है.’ इस बावत वे हर्षवर्धन से मांग करते हैं कि वे जल्द से जल्द नई दवा नीति को जनहितकारी बनाने के दिशा में कार्य करें.
अब ऐसे में इन तमाम वायदों के बीच देखना दिलचस्प होगा कि नए रसायन व उर्वरक मंत्री अनंत कुमार जी को कितनी कामयबी मिलती है. दवा कम्पिनयां उनकी बातें मानती भी हैं या नहीं? गंभीरता से विचार किया जाए तो ऐसा होना थोड़ा मुश्किल-सा दिखता है. क्योंकि उनकी पार्टी बीजेपी को शायद यही दवा कम्पिनयां चला रही है. चुनाव में भारी फंडिग करती है ताकि सरकार बनने के बाद इस देश की गरीब जनता को और लूटा जा सके.
BeyondHeadlines के पास आरटीआई से मिले ऐसे कई दस्तावेज़ हैं, जो इस बात का जीता-जागता सबूत है कि बीजेपी को देश भर में फार्मास्यूटिकल यानी दवा कम्पनियों से भारी चुनावी फंडिंग होती है. आरटीआई से हासिल महत्वपूर्ण दस्तावेज़ बताते हैं कि हर साल दवा कम्पनी, दवा दुकानदार व डॉक्टरों से भारी-भरकम चुनावी फंडिंग बीजेपी के झोली में आती रही है. इस बार भी चुनाव के दौरान अधिकतर चंदा इन्हीं दवा कम्पिनयों व डॉक्टरों से लिया गया है.
हम आपको यह भी बताते चलें कि बीजेपी ने अपना घोषणा-पत्र 7 अप्रैल यानी स्वास्थ्य दिवस के दिन ही जारी किया था. इस घोषणा-पत्र में हेल्थ से जुड़े हुए ज़मीनी मुद्दे नदारद हैं और दवाईयों के दाम कम करने जैसी आम जनता की बेहद पुरानी और बेहद ज़रूरी मांग से पार्टी ने पल्ला झाड़ लिया था.
