ये स्कूल क्या होता है?

Beyond Headlines
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Masud Ahmad for BeyondHeadlines

दिल्ली की चिलचिलाती धूप…  और ऊपर से लू की मार… 8 साल का एक मासूम सा बच्चा चिल्लाता हुआ… पानी ले लो… पानी ले लो… उसका पूरा शरीर पसीने में डूबा हुआ है… और हाथ में एक रूपये वाली पानी की थैली… बेचारा खुद प्यासी हालत में चंद सिक्कों के लिए दूसरों की प्यास बुझा रहा था…

©BeyondHeadlines पानी के बगैर मेरी जान निकली जा रही थी… तुरंत हमने उससे पानी के दो पाउच देने को कहा… आखिर इस गर्मी में पानी ही एक सहारा है… खैर, आदतन… पैसे देते-देते पूछ ही लिया –स्कूल जाते हो? उसने मेरी तरफ काफी गौर से देखते हुए जवाब दिया –दो-चार दिन गया हूं, उसके बाद नहीं… क्योंकि स्कूल में पढ़ाई नहीं होती…. ये कहते ही वह भाग गया… उसे तलाशने की हमने काफी कोशिश की… पूरे मुस्तफाबाद की सड़कों पर मेरी नज़रें उसे ही तलाशती रहीं… लेकिन वो मिला नहीं…

धूल, गर्द व गुबार से भरे हुए सड़क से होता हुआ जैसे ही मुस्तफाबाद लोनी की गलियों में दाखिल हुआ…. देखा दो छोटे-छोटे बच्चे एक बड़े से आम के ठेले के पास खड़े होकर चिल्ला रहे हैं –आम ले लो आम…. तीस रुपये किलो…. उन लड़कों के आम बहुत ज़्यादा अच्छे नहीं थे… इसलिए लोग आ रहे थे और सिर्फ दाम पूछकर चले जा रहे थे… लेकिन उन लड़कों की आंखें हर आदमी में एक ग्राहक को तलाश रही थी.

10 साल की उम्र के इन बच्चों का हौसला देखने लायक था… इस चिलचिलाती धूप में जहां लोग एसी और कूलर की हवाएं खाते हैं और बाहर आने से डरते हैं, वहीं यह बच्चे आम बेचने के लिए धूप को मात दे रहे थे…

मैं भी उनके ठेले के पास पहुंचा… मेरे वहां रूकते ही उनके चेहरे खिल उठे… वो समझ गए कि मैं ज़रूर आम खरीदुंगा… लेकिन मेरा इरादा आम लेने का बिल्कुल भी नहीं था… हम तो किसी और मक़सद से इस चिलचिलाती धूप में मुस्तफाबाद का खाक छान रहे थे…

©BeyondHeadlines हमने सबसे पहले इनका नाम पूछा… एक ने अपना नाम अकरम बताया तो दूसरे ने सोनू…. हमने फिर उनसे उनके स्कूल जाने के बारे में पूछा…. यह सवाल पूछना ही था कि उनके चेहरे पर उदासी सी छा गई… पहले तो दोनों चुप रहे… फिर धीमी आवाज़ में एक ने कहा कि कभी कभार चला जाता हूं…. लेकिन स्कूल दूर होने के कारण अब नहीं जाता हूं… इसलिए अब्बा ने हमें आम बेचने के लिए लगा दिया है… और कह दिया है कि यही तुम्हारा काम है.

जब मैंने उनसे उनके अब्बा के बारे में पूछा तो अकरम का कहना था कि वह केवल शाम को ठेला वापस ले जाने के समय आते हैं. और हम अपने परिवार का खर्च इसी आम के ठेले से चलाते हैं.

इन दोनों की बातें मेरे दिल के हर गोशे को छू गई… लेकिन तरंत मुझे याद आया कि हमें तो इसी बात की ट्रेनिंग मिली है कि रिपोर्टिंग करते समय कभी इमोशनल नहीं होना है… आदमी जलता रहे, उसे बचाना नहीं है, बस उसकी तस्वीर लेनी है… ताकि अगले दिन हम उसकी बड़ी-बड़ी तस्वीरों के साथ खबर लगा सके कि एक युवक आग लगाकर अपनी जान दे दी, कोई बचाने नहीं आया… हालांकि न जाने हम जैसे वहां कितने पत्रकार व फोटोग्राफर खड़े होते हैं…

खैर, हम अब मुस्तफाबाद की गली के अंदर थे… गली में मोड़ से पहले एक लोहार की दुकान पर एक 13 साल की उम्र का एक लड़का राजू ऐसी मेहनत का काम कर रहा था, जो इस गर्मी के मौसम बहुत लोगों के लिए नामुमकिन है. असल में वह लड़का लोहार की दुकान पर बैठा भठ्ठी में लोहा तपा रहा था…

©BeyondHeadlines जैसे ही मैं उसकी दुकान पर पहुंचा… उस लड़के ने पूरे जोश के साथ बोला साहब क्या काम है? मैंने उस लड़के से पूछा कि क्या आप यही काम करते हो? (शायद मैं इस वक्त फिर से थोड़ा इमोशनल हो गया था.) जी साहब! अपना तो यही धंधा है… क्या करें, कोई कमाने वाला नहीं है मेरे घर में…

उसके इस जवाब ने सबकुछ स्पष्ट कर दिया था. लेकिन मैंने फिर भी पूछा –स्कूल जाते हो? उसने बिल्कुल एक एक्सपर्ट की तरह जवाब दिया… अरे साहब! स्कूल जाकर क्या करेंगे? मेरे गांव में बहुत से लोग हैं, जो एमए, बीए पास है, लेकिन गांव में ही पड़े रहते हैं. तो उनसे तो हम अच्छे ही हैं. उसके इस जवाब देने के अंदाज़ ने बता दिया था कि वो अब काफी बड़ा हो चुका है…. उसका बचपन आग के इस भट्टी में कहीं खो गया है…

आगे शायद मेरी हिम्मत नहीं थी कि और सवाल पूछूं… इसलिए वहां से कुछ आगे बढ़ा… कुछ ही दूर पर एक होटल में काम करते हुए एक बच्चे को देखा… शायद उसकी भी उम्र 11 साल ही रही होगी. उसके पास पहुंचकर उसका नाम पूछा… तो उसने अपना नाम छोटू बताते हुए कहा –दुकान उधर लगी हुई है. वह दुकान के आगे कुछ कपड़े धो रहा था.

मैने पूछा –स्कूल जाते हो? उसने जो जवाब दिया शायद वो मेरे लिए काफी चौंकाने वाला था… बल्कि यह बात ही अपने जीवन में पहली बार सुनने को मिला था…

बच्चें ने कहा था –स्कूल क्या होता हैं?

यह सारी कहानियां देश की राजधानी दिल्ली की हैं… दूसरे राज्यों के गांवों के हश्र का अंदाज़ा आप खुद ही लगा सकते हैं. आंकड़े बताते हैं कि भारत में 57 मिलियन बच्चे शिक्षा सें दूर हैं, और 12.50 मिलियन बाल मजदूर बनकर अपना और अपने परिवार का जीवन व्यतीत कर रहे हैं.

सरकार तो स्कूलों में शिक्षक को भर्ती करने को योजना बना रही है, लेकिन स्कूलों में छात्रों की भर्ती को लेकर सरकार के पास कोई योजना नहीं है.

सोचने की बात है कि अगर स्कूल में शिक्षक होंगे और छात्र नहीं, तो स्कूल कैसे चलेगा? स्कूल में छात्र और शिक्षक दोनों का ही होना जरूरी है. तभी हम उसे स्कूल बोल सकते हैं…. लेकिन उससे भी अधिक सोचने की बात यह है कि यदि यह गरीब बच्चे जब स्कूलों में रहेंगे तो उनका घर-परिवार चलेगा कैसे?  काश!  हमारी शिक्षा मंत्री एसी कमरों से बाहर निकल कर इनके बारे में भी सोचतीं. गरीबों के परिवार के बारे में भी सोचतीं… मुझे इससे कोई मतलब नहीं है कि वो बारहवीं पास हैं या ग्रेजुएट…

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