Edit/Op-Ed

मीडिया का चरित्र वर्णन है तनु शर्मा मामला

BeyondHeadlines Editorial Desk

कुछ दिन पहले एक महिला टीवी न्यूज़ एंकर ने फ़ेसबुक पर सुसाइड नोट लिखने के बाद अपने दफ़्तर में ही ज़हर खाकर जान देने की कोशिश की. एंकर ने अपने चैनल के प्रबंधन पर कई संगीन आरोप भी लगाए.

अगर एक टीवी या वेब पत्रकार के नज़रिए से देखा जाए तो इस ख़बर में टीआरपी या हिट्स के लिए ज़बरदस्त मसाला था. जिस तरह से पत्रकार बाक़ी ख़बरें लिखते हैं, उसी तरह से ये ख़बर लिखी जाती तो निश्चित तौर पर समाचार वेबसाइटों को मोस्ट रीड सेक्शन में ये ख़बर हफ़्तों तक बनी रहती. भला लाइव सूसाइड कहीं होते हैं?

लेकिन ऐसा नहीं हुआ. ख़ुद को दूसरों की ज़बान बताने वाले अपनी आपबीती पर ख़ामोश हो गए. न क़लम ने क्रांति की, न ज़मीर जागा. जो दो-चार तूतियाँ बोल रही हैं वो भी नक्कारखाने से बाहर की ही हैं.

तनु शर्मा मामले पर मीडिया के तथाकथित दिग्गजों की ख़ामोशी मौजूदा पत्रकारिता के चरित्र का सटीक वर्णन है. जो कुछ-एक लोग इस पर हैरान हैं वो शायद पिछले कुछ सालों से पत्रकारिता के लगातार हो रहे पतन से वाक़िफ़ ही नहीं हैं. जब अदालत तमाशा बनी तब यही लोग तालियाँ बजा रहे थे.

लेकिन तनु शर्मा मामले में मीडिया की ख़ामोशी से भी बड़ा सवाल है न्याय तंत्र के प्रभावित होने का. एक लड़की ने ख़ुदक़ुशी की कोशिश की है. अब ये मामला सीधे तौर पर न्याय प्रक्रिया का हिस्सा है. लेकिन जिस तरह न्याय को प्रभावित करने की कोशिशें की जा रही हैं, वो देश में मौजूद सबसे बड़े ख़तरे से भी हमें रूबरू करा रही हैं.

प्रभावशील-ताक़तवर लोगों द्वारा न्याय को अपनी जेब में रख लेने का ख़तरा.

तनु शर्मा मामले में उनके सहयोगियों से शपथ-पत्र पर हस्ताक्षर करवाए जा रहे हैं ये साबित करने के लिए कि शोषण का शिकार होकर अपनी जान देने की कोशिश करने वाली महिला टीवी एंकर के आरोप झूठे हैं.

दस्तख़त उन लोगों से भी करवाए जा रहे हैं जिनका इस मामले से कोई सीधा ताल्लुक़ नहीं हैं. सिर्फ़ ये साबित करने के लिए कि तनु शर्मा के ‘प्रबंधन को अपराधी’ कहने के मुकाबले आरोपियों को ‘महान’ बताने वालों की तादाद ज़्यादा है. ताक़ि इसे ही अदालत में तनु को झूठे साबित करने का आधार बनाया जा सके.

इस मामले का छुपा सच क्या है ये अदालत तय करेगी. लेकिन खुला सच, जो हम नहीं देख रहे हैं, वो यह है कि एक लड़की ने अपनी जान देने की कोशिश की है और कोई भी अपनी जान यूँ ही नहीं देता है. कुछ तो है जिसकी परदेदारी है. काश की मीडिया में काम करने वाले ये बात समझ पाते, कुछ कह पाते, कुछ कर पाते.

तुम्हारी ख़ामोशी भी इस ग़ुनाह में शरीक़ है

ये न कहना कि बंद आँखों सी दीखता नहीं!

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