मौत को करीब से देखा तो ज़िन्दगी की असली कीमत का लगा अंदाज़ा

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Fahmina Hussain for BeyondHeadlines

रोटी, कपड़ा व मकान के साथ-साथबेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा… ये पांच बुनियादी मानवीय आवश्यकताएं… जिसे देश के हर नागिरक तक उपलब्ध कराना एक जनवादी सरकार का फर्ज़ होता है.

भारत की जनता से भी 1947 में यही वादा किया गया था. मगर 67 वर्षों के दौरान भारत की सरकारें एक-एक करके अपनी सभी ज़िम्मेदारियों को भूलते गए. पहले जो महामारियां हज़ारों और लाखों लोगों को मौत की नींद सुला देती थीं, अब उनका आसानी से इलाज तो हो जाता है, लेकिन दूसरी तरफ आज भी हैजा, दस्त, बुखार जैसी मामूली बीमारियों से हज़ारों बच्चों की मौत हो जाना एक आम बात है.

पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में मस्तिष्क ज्वार से हर साल हज़ारों बच्चे मरते हैं,जबकि इसका टीका आसानी से उपलब्ध है. देशभर में लाखों लोग बीमारियों के कारण मर जाते हैं या जीवनभर के लिए अपंग हो जाते हैं.इसलिए नहीं कि इन बीमारियों का इलाज सम्भव नहीं है, बल्कि इसलिए कि इलाज का खर्च उठा पाना उनके बस के बाहर है.

ग्रामीण विकास की ‘उजली तस्वीर’ का संबंध स्वास्थ्य सुविधाओं से भी है.ग्रामीण स्वास्थ्य  सुविधाएं  बढ़ी  तो  हैं, लेकिन ज़्यादातर सरकारी दस्तावेज़ों में… अस्पताल का भवन तो है, लेकिन डॉक्टर और अन्य स्टाफ नदारद हैं. जहां इलाज़ तो की जा रही है, लेकिन पूरे लापरवाही के साथ…

चमरडीहारी…इस गांव में रहने वाले शिवजी दुबे नामक वृद्ध की मौत हैजे से हो गई. और यहां आधा दर्जन लोग अभी इस बीमारी से पीड़ित हैं. पीड़ितों से मिलकर हालचाल पूछने पर पता चलता है कि पिछले 15 दिनों से PHC बंद पड़ा है.

हैरानी तो तब और होती है, जब एक ऐसी घटना सामने आती है, जिसे जानकर यही लगा कि सरकारी अस्पतालों में इलाज कराने वाले लोगों के जान की कोई कीमत नहीं है.

रिटायर होने के बाद भी एक मामूली सी दाई लोगों के घरों में जाकर प्रसव कराने का काम अभी भी कर रही है. यह महिला तेतरी देवी बड़े शान व शौकत के साथ महिला वार्ड में मरीज़ों से पैसे लेकर प्रसव कराती है. जबकि वो किसी भी लिहाज़ से सुरक्षित नहीं है. कितनी बार आम लोगों व अस्पताल के दूसरे कर्मियों द्वारा लिखित कम्प्लेन की गई, लेकिन अस्पताल  प्रशासन के कान में जूं तक नहीं रेंग रही है.

स्वास्थ्य सुविधाओं और अस्पतालों का यहां तक हाल है कि सरकार ने निशुल्क दवा योजना तो शुरू कर दी है, लेकिन दवाइयां मौजूद नहीं है. डेहरी ऑन सोन के सरकारी अस्पताल के डॉक्टरों ने बातचीत के दौरान बताया कि उन्हें सुबह अस्पताल पहुंचते ही दवाओं की लिस्ट थमा कर कह दिया जाता है कि वो ये ही दवाईयां मरीज़ों को लिखें.

मौजूदा दवाईयों में केवल सर्दी, बुखार, पेट दर्द संबंधित बीमारियों और बच्चों की एलर्जी की दवाएं हैं, लेकिन अन्य दवाईयां यहां से नदारद हैं. इन्हीं जानकारियों को जुटाते हुए जब अस्पताल के दरवाजे पर आई तो वहां एक बूढ़े व्यक्ति को आंखें बंद किये रोते हुए पाया. उनका रोना मुझे पूछने पर मजबूर कर दिया.

मैं जानना चाहती थी कि उनकी आंसू की वजह क्या है? मेरे पूछने पर उन्होंने यही कहा –मौत को करीब से देखा तो ज़िन्दगी की असली कीमत का अंदाज़ा लगा और समझ में आया कि क्या कीमत है मेरी और मेरे अपनों की…

उनकी बेटी का प्रसव होने वाला था, लेकिन पिछले 6 घंटो से कोई डॉक्टर या एएनएम का पता नही था. इतना ही नहीं, उनके बेटी को अस्पताल में भर्ती करने के पैसे भी मांगे गए थे जबकि जननी सुरक्षायोजना के अंतर्गत कोई राशि लेने का प्रावधान नहीं है.

मुझे हमेशा लगता था कि मेरी ज़िन्दगी में बहुत सी परेशानियां हैं, लेकिन जब स्वास्थ सेवाओं के इन हालातों को अपनी नंगी आंखों से देखा तो असली मुश्किलों का अंदाज़ा हुआ.

एक गुज़ारिश है अपने सियासतदानों से… ‘अच्छे दिन’ लाना ही है तो इन सरकारी अस्पतालों में लाओ, जहां लोग तिल तिल कर अपनी ज़िन्दगी की कीमत चूका रहे हैं….

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