नेपाल में सामाजिक संविदा की राजनीति और भारत

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Raj Kumar Verma for BeyondHeadlines

नेपाल की जनता अपने देश की ‘सामाजिक संविदा’ (सोशल कॉन्ट्रैक्ट) के निर्माण में जुटी हुई है. इतिहास में ऐसे कम ही देश हैं, जिसकी संविधान सभा को दूसरी बार संविधान निर्माण का जिम्मा सौंपा गया हो. आज एक नया नेपाल गढ़ने की कोशिश हो रही हैं.जिसके मूल में एक समतामूलक, न्यायमूलक, समावेशी समाज की मांग है.

नेपाल में वर्तमान आंतरिक राजनीतिक गतिरोध संविधान के निर्माण से जुड़ी हुई है, जिसमें दो प्रमुख मुद्दा अहम है –पहलासंघवाद की प्रकृति और दूसरासरकार का ढांचा को लेकर है.यह गतिरोध वहां की प्रमुख राजनीतिक दलों की महत्वाकांक्षाओं का परिणाम है.ये दल अपने-अपने हितों के अनूरूप संघवाद (जनजातीय अथवा भौगोलिक) तथा सरकार का ढांचा (संसदीय अथवा राष्ट्रपति आधारित) की प्रकृति को निर्धारित करना चाहते हैं, ताकि इनके हितों की अधिकतम प्राप्ति हो.

जनजातीय एवं मधेशी दल पहचान आधारित (‘एक मधेश एक प्रदेश’) संघवाद की मांग कर रहे  हैं, जबकि नेपाली कांग्रेस तथा सीपीएन (यूएमएल) प्रशासनिक अथवा भौगोलिक आधार पर राज्यों के निर्माण के पक्ष में है. दूसरी ओरमाओवादी दल राष्ट्रपति आधारित मॉडल के स्थापना के पक्ष में है और नेपाली कांग्रेस तथा अन्य दल संसदीय शासन पर जोर दे रहे है.

इस कारण से दलों में एक सर्वसम्मति नहीं बन पा रही है.एक वर्ष के भीतर इस संविधान सभा ने देश का नया संविधान निर्माण का लक्ष्य रखा है.भारत को नेपाल के संविधान निर्माण में रचनात्मक सहयोग प्रदान करनी चाहिए.भारत विश्व का सबसे बड़ा, स्थापित लोकतान्त्रिक देश होने के साथ-साथ नेपाल का अहम पड़ोसी राष्ट्र है, जिससे इसकी भूमिका और भी बढ़ जाती  है.

दूसरी ओरएक स्थिर, शांतिपूर्ण नेपाल भारत के हित में है, क्योंकि नेपाल की राजनीतिक अस्थिरता भारत की आर्थिक, सामरिक, सामाजिक हितों को प्रभावित करती है.इस दिशा मेंनेपाल की नागरिक तथा बुद्धिजीवी समाज भी भारत की सकारात्मक भूमिका का अपेक्षा रखता है.

वास्तव मेंनेपाल की जनता को अपनी राजनीतिक भविष्व स्वयं तय करनी है.इसमें भारत एक सहायक हो सकता है.इससे पहले 1990 एवं 2006 के लोकतान्त्रिक आंदोलन को भारत के द्वारा समर्थन दिया गया था, जिसका नेतृत्व नेपाल की जनता ने स्वयं किया था.

इतिहास के इस क्रम में दोनों देशों ने अपने सम्बन्धों में बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं. 21वीं सदी आरम्भ से ही नेपाल की राजनीति एवं समाज बदलाव का साक्षी रहा है.अनेक राजनीतिक एवं सामाजिक आंदोलनों ने जिसमें माओवादी, लोकतांत्रिक, मधेसी एवं जनजातीय आंदोलन प्रमुख है, जिसने नेपाल की समाज और राजनीति में प्रगतिशील मूल्यों के समावेश करने के साथ-साथ पुराने शोषणकारी, विषमकारी तत्वों को ख़ारिज कर दिया.

आज नेपाल हिन्दू राष्ट्र से धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र, राजतन्त्र से  गणतांत्रिक राष्ट्र के रूप  में स्वयं को स्थापित किया है.यह परिवर्तन इतना आसान नहीं रहे हैं.नेपाल की घरेलू राजनीति एवं समाज में घटित हुए घटनाक्रम ने दोनों देशों के सम्बन्धों को प्रभावित किया है.इस परिपेक्ष्य में, भारत-नेपाल सम्बन्ध की महत्ता को समझना अनिवार्य है.

भारत एवं नेपाल के सम्बन्ध अभिन्न रूप से धार्मिक, सांस्कृतिक एवं नृजातीय तत्वों द्वारा जुड़े हुए हैं. दोनों के मध्य 1750 कि.मी.की लम्बी सीमा पर मुक्त आवाजाही है तथा दोनों देशों के मध्य पृथक राज्य की मान्यता को अलग कर दें तो दोनों राष्ट्रों के मध्य विभेद करना कठिन है. भारत की सामरिक हितों के साथ-साथ ऐतिहासिक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं भाषीय समानता के कारण 1950 में दोनों देशो ने ‘शांति और मित्रता की संधि’ के द्वारा इन सम्बन्धों को संस्थागत रूप प्रदान किया गया.

वर्तमान मेंनेपाल को इस संधि पर आपत्ति है.इसके अनुसारयह संधि नेपाल की संप्रभुता एवं स्वंत्रता के विपरीत है.लेकिन 1950 यह कि संधि नेपाल के लिए एक ‘सेफ्टी वाल्व’ की भांति काम करता है, क्योंकि इस संधि के तहत दोनों देश के बीच खुली सीमा का प्रावधान है, जिसके तहत दोनों देश की जनता निर्बाध रूप से आवागमन कर सकती है.इस संधि के प्रावधानों के तहत ही नेपाल की 2.8 मीलियन लोग भारत में काम और निवास करते है.

भारत में नेपाल मामलों के जानकरप्रो. एस. डी. मुनी के अनुसारइस संधि में ‘सकारात्मक विभेद’ की गयी है, जो नेपाल की पक्ष में है.भारत का मानना है कियह संधि भारत नेपाल के मित्रतापूर्ण सम्बन्धों का बड़ा प्रमाण है तथा निवर्तमान भारतीय सरकार इस संधि के पुनर्विलोकन हेतु तैयार है.

भारत एवं नेपाल की भौगोलिक समीपता, एकरूपता तथा दोनों देशों के बीच लम्बी खुली सीमा एवं चीन का नेपाल के साथ साझी सीमा होने के कारण, नेपाल भारत की उतरी सुरक्षा व्यवस्था में महत्पूर्ण स्थान रखता है.

यही कारण है कि भारत नेपाल को किसी भी प्रकार के बाहरी हस्तक्षेप अथवा क्षेत्रीय शक्तियों से मुक्त रखना चाहता है ताकि इसकी सुरक्षा व्यवस्था को किसी प्रकार की चुनौती का सामना न करना पड़े. इसलिए भारत नेपाल से अपेक्षा रखता है कि वह भारत की सामरिक एवं सुरक्षा चिंताओं के प्रति संवेदनशील रहे.लेकिन भारत की इन अपेक्षाओं को नेपाल की घरेलू राजनीति में दुष्प्रचारित किया गया और इसे नेपाल की संप्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता एवं स्वतंत्रता पर चोट के रूप में देखा गया.

भारत एवं नेपाल के मध्य आर्थिक सहयोग हेतु व्यापक संभावनाएं विधमान है, क्योंकि नेपाल के पास जल-विद्युत के निर्माण (84 हज़ार मेगावाट) के अपार संभावना के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधन (शुद्ध पानी का दूसरा सबसे बड़ा जल कुण्ड, प्राकृतिक जड़ी- बूटी) में भी धनी है, जो पारस्परिक सहयोग से भारत के ऊर्जा एवं जल सुरक्षा को सुनिश्चित कर सकती है.

भारत एवं नेपाल में अनेक धार्मिक स्थल है जैसे बनारस, गया, लुम्बनी, पशुपतिनाथ, हरिद्वार आदि जहां दोनों देशों के लाखों लोग यात्रा करते हैं, जो पर्यटन उद्योग के दृष्टि से महत्पूर्ण है, इन जगहों पर आधारभूत संरचना का विकास करके दोनों राष्ट्र के बीच में रोज़गार सृजन के साथ-साथ पीपुल डिप्लोमेसी (पीपल टू पीपल कांटेक्ट) को बढ़ावा दिया जा  सकता है,जो एक स्वस्थ सम्बन्ध के निर्माण में सहायक सिद्ध होगा.

भारत के स्वतन्त्रता के बाद ही भारत द्वारा नेपाल के आर्थिक विकास में पूर्ण सहायता प्रदान किया गया है. नेपाल के अधिकांश आधारभूत संरचना का निर्माण भारत के सहयोग द्वारा किया गया. वर्तमान समय में भारत नेपाल के  स्वास्थ्य, शिक्षा, ग्रामीण विकास एवं आधारभूत ढांचा के विकास में सहायता प्रदान कर रहा है. नेपाल एक भूमि आबद्ध देश है.इसलिए भारत के ऊपर आर्थिक एवं भौगोलिक रूप से निर्भर है.

स्थलरूद्ध होने के कारण नेपाल को भारत मुक्त पारगमन सुविधा उपलब्ध करवाता है.नेपाल कोलकाता एवं हल्दिया बंदरगाह से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार करता है.और भारत नेपाल के कुल व्यापार का 60 प्रतिशत व्यापार का हिस्सेदार है. साथ ही साथ नेपाल दिन-प्रतिदिन के मूलभूत जरूरतों (पेट्रोलियम, खाध-सामाग्री आदि) के लिए भारत पर निर्भर करता है.इसलिए भौगोलिक रूप में नेपाल के लिए भारत का अन्य विकल्प नहीं हो सकता है.

भू-राजनीतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टिकोण से दोनों देश के मध्य सम्बन्ध अत्यंत मित्रतापूर्ण एवं परस्परपूरक है, लेकिन राजनीतिक क्षेत्र में दोनों के मध्य परस्पर अविश्वास एवं संदेह देखे जा सकते है. भारतीय प्रधानमंत्री की नेपाल यात्रा दोनों देशो के सम्बन्धों को मज़बूती प्रदान करने तथा आपसी विवादित मुद्दों को सुलझाने में मददगार सिद्ध होगी.इस यात्रा को विदेश मामलों के जानकारों का कहना है कि यह सफल रही है. लेकिन संशय अभी भी बरक़रार है, क्योंकि महत्पूर्ण संधियों पर हस्ताक्षर नहीं हुए है.और मोदी के यात्रा के पश्चात माओवादी गुट के नेता मोहन वैद्य किरण का भारत विरोधी बयान इस मत की पुष्टि भी करता है.

हालांकि नेपाल में कोई भी राजनीतिक दल सरकार संचालित करेगा तो उसे भारत से बेहतर सम्बन्ध का निर्माण करना होगा.लेकिन जब तक ये दल विपक्ष में रहते हैं. तब तक भारत विरोध इनका मुख्य मुद्दा होता है.

पिछले वर्ष (2013) प्रचण्ड ने अपने भारत यात्रा के दौरान, चीन, भारत और नेपाल के साथ बेहतर सम्बन्ध निर्मित करने की पहल भी की थी.दूसरी और ऊर्जा, पर्यावरण, पर्यटन, यातायात एवं संचार के क्षेत्र में, जिस पर अभी तक कम धयान दिया गया है, में सहयोग के माध्यम से इन संबंधो को नई उंचाई दी जा सकती है.

(लेखक स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, जेएनयू के सेन्टर फॉर साउथ एशियन स्टडीज में रिसर्च स्कॉलर हैं.) 

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