BeyondHeadlines Social Media Desk
धार्मिक ठेकेदारी पर बहुत ही बेहतर प्रहार है पी. के…. धर्म अपनी जगह और उसकी ठेकेदारी अपनी जगह… –Md Najm Al Qamar
इस मूवी से एक बात तो क्लियर हो गई है. कोई भी धर्म हो, वो सिर्फ पैसे कमाने का ज़रिया हैं… धर्म को सिर्फ पैसों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है… –Farooque Equbal
इंसान के धर्म को लेकर बनाए गए आडम्बरों पर एक बेहतरीन कटाक्ष है पी.के…. थोड़ा आखिर में अगर जग्गू और सरफराज़ की लव स्टोरी में ज़्यादा न उलझ कर धर्म के ठेकेदारों को अगर और समझने का मैसेज दिया जाता तो शायद और बेहतर फिल्म हो सकती थी. –Syed Faraz
ग़लत टाईम पर बनाई गई एक अच्छी फ़िल्म… –Ejaz Ahmad
फिल्म में 1% ग़लत करके 99% सही करने की कोशिश की है… –Ashfaq Khan
After watching this movie I just remember one song… “yahi zazbat rahe din raat to phir kya baat meri jaan balle balle”… there is need of change a big change in our thought behavior and most important in our socio-cultural notion. –Rashmi Das
मैंने तो आज तक ऐसी फिल्म नहीं देखी. मुझे तो इसमें कोई खराबी नज़र नहीं आती. जब कुछ ग़लत मुसलमानों की वज़ह से पूरे कम्यूनिटी पर फ़िल्म जाती है और इनमें आतंकवादियों को यह कहते हुए दिखाया जाता है कि हम खुदा का काम कर रहे हैं… खुदा ने ऐसे करने को कहा है… जबकि यह पूरी तरह से ग़लत है, तब फिल्म पर क्यों नहीं पाबंदी लगाई जाती? क्योंकि वो सिर्फ मनोरंजन का ज़रिया है… तो फिर पी.के. को भी वैसे ही ना लो भाई…. –Shahid Khan
धार्मिक हथकंडे अपनाने के उपर एक प्रहार है पी.के. लोगों को बहुत अच्छी नसीहत की गई है कि पत्थर रखकर लाल कलर लगा देने से भर से कोई भगवान नहीं होता. यह बात समझने की ज़रूरत है. और सच्चे ईश्वर की पहचान करने की कोशिश करें… –Hibah Firdous
हमारे धर्म में कहा गया है कि भगवान कण-कण में बसे हैं. सो पत्थर में भी हैं. और सब जगह पर हैं. सिर्फ एक जगह नहीं है चूमने के लिए. फितना, सैटेनिक वर्सेज के बारे में क्या कहेंगे? –Kedar Goythale
जब ओ माई गॉड! फिल्म आई थी तब किसी ने ये सवाल नहीं उठाया था. अब जब धर्म के ठेकेदारों को आईना दिखाया गया तब उनको याद आया. ये सवाल भी और कुछ नहीं, अपना उल्लू सीधा करने के तरीके हैं. ये क्यों नहीं देखते ये लोग कि उसमें क्या सन्देश देने की कोशिश की गई है. बस जनता को गुमराह करना है और कुछ नहीं. और कुछ लोग हो भी जाते हैं बिना सोचे समझे और बिना अपना दिमाग इस्तेमाल किये. बस इनकी बातों में आके बहक जाते हैं. इस फ़िल्म की बहुत सी ऐसी बाते हैं, जो लोगो ने ग़लत समझ ली हैं. इसमें न तो किसी को नीचा दिखाया गया है न ऊँचा… सामान्य सा सन्देश देने की कोशिश की गई है, जो सब पहले से जानते हैं. पता नहीं लोगों को बुरा क्या लग रहा है? –Md Ali
PK is just like the last year film Oh My God Starring Akshay Kumar and Paresh Rawal which just shows the evils in our Society on the name Of Religion by Some Of its so called Contractors. These Films are just to change the mentality of people and To Make The Religion Clean and Fair. –फ़राज़ रब्बानी
लोग इसलिए निराश हैं कि इस मूवी में इस्लाम धर्म के पाखण्डों की तुलना में हिन्दू धर्म के पाखण्डों को ज़यादा दिखाया गया. PK के बाद लोग “खुदा के लिए” और “बोल” मूवी देखें. उम्मीद करता हूं कि अगली PK-2 में इस्लाम के नाम पर हो रहे आडम्बरों को अधिक दिखाया जाये, ताकि इस्लाम का सही रूप सामने आये. क्योंकि बुराई हटेगी धर्म खिलेगा… –Naved Azam
पंडित और मौलवी दोनों अपने-अपने धर्मों में जन्नत के चौकीदार बनकर दोनों तरफ के धर्म के लोगों में बल्कि समाज में ज़हर घोलने का काम कर रहे हैं, जिसका खामियाजा भारत भुगत रहा है. अब भारत को धर्म के इस अफरा-तफरी से बाहर पी.के. जैसी फिल्म ही निकाल सकती है… –Saad Sayed Jamei
Message from PK or several other programs have been organized to clear the social taboos of some selfish people but unfortunately we Indian are more influential to fake things than reality. –Mohammed Ghouse
सामाजिक समस्या पर बनाई गई एक फिल्म है पी.के. जिसे कुछ लोग हिन्दू धर्म की बुराई के रूप में भी देखते हैं… पर इन बुराईयों पर समय-समय पर कबीर, नानक, विवेकानन्द, दयानन्द जी ने भी बोला है और अब पी.के. बोल रही है. तो इसे निगेटिव ना लेकर सुधार में लें लोग… –Sanjay Sharma
गलत देखने वाले ही आप पर गलत होने का आरोप लगा रहे हैं… आप पी.के. में एक छोटा बदलाव करें… दिखाए गए पतित बाबा के आगे घटित दृश्य को, जहाँ आमिर सबके पोशाक बदल रहे हैं, और ठप्पा खोज रहे हैं… अलग अलग धर्मों में… अलग सा कोई निशान… उस दृश्य को ऐसे फिल्माएं… आमिर खान की जगह आपका कैरेक्टर एक बार ब्राह्मण बनकर सभी स्थल केंद्र पर जाएगा, जैसे एक बार चर्च जायें, एक बार मंदिर, एक बार मस्जिद और एकबार गुरुद्वारे… एक बार बौद्ध मंदिर… यही प्रक्रिया वह दाढ़ी लगा और छोटा पाजामा पहन कर मुस्लिम बने के, फादर बन के, बौध भिक्षुक बन के…
आप सभी को अगला दृश्य पता है… क्या होगा… मंदिर में किसी भी धर्म-श्रेष्ठ को जाने पर कोई बाधा नहीं आएगी. पर परेशानी बहुत होगी. धक्का मुक्की… कोई ऐसे ही नहीं जाता आजकल… इतने कम लोग जाते हैं… तो यह हाल है…. मस्जिद में ब्रहमण को घूरा जाएगा… संभव हो दो-चार साइड में लेकर चले जाए… गुरुद्वारे में वह सबसे ज्यादा सुकून महसूस करेंगे… चर्च में ब्राहमण बनकर जायेंगे तो… एम्बैसी तक खबर होगी… निष्कर्ष यह है कि यह सिर्फ हिन्दू धर्म ही है जो सबको स्वीकार सकता है… आत्मसात कर सकता है… यह हम सभी को पता है. तो इसलिए हमारा ही घंटा बजाने सभी चले आते हैं…. –Kanishka Kashyap