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मैं नहीं चाहती कि वह भी उसी त्रासदी से गुज़रे जिससे मैं गुज़र रही हूं…

BeyondHeadlines News Desk

“मुझे समझ मे नहीं आता कि मैं अपने 6 साल के लड़के को उसके पिता के लापता होने की सच्चाई कैसे बताऊँ? मैंने उसे बता रखा है कि उसके पिता काम के सिलसिले में कश्मीर से बाहर रहते हैं. मैं नहीं चाहती कि वह भी उसी त्रासदी से गुज़रे जिससे मैं गुज़र रही हूँ.”

ये शब्द कश्मीर के अर्ध-विधवा एक युवा माँ की है, जिसके पति पिछले 6 सालों से ग़ायब हैं.

स्पष्ट रहे कि आतंकवाद और सैन्यवाद के चलते पिछले तीन दशकों से कश्मीर के लोग मानवाधिकार से वंचित होने का दंश झेल रहे हैं. इस दौरान हज़ारों की संख्या मे कश्मीरी लोग लापता हुए हैं. इन लापता लोगों में  बड़ी संख्या में विवाहित पुरुषों की है, जिनके पीछे उनका पूरा परिवार है. इन्हीं लापता पतियों के पत्नियों की स्थिति को देखते हुए उन्हें अर्द्ध-विधवा कहा जाता है. यहां अर्द्ध-विधवाओं की कुल संख्या 1,500 के क़रीब है. ये महिलाएं अपनी नयी पहचान और अस्मिता के लिए संघर्ष कर रही हैं. घर मे पुरुष सदस्य के अभाव में हाशिये की इन महिलाओं को अपनी दिन-ब-दिन की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता है.

अर्ध-विधवाओं की इस चिंताजनक स्थिति और तकलीफ़ों को देखते हुए भारतीय सामाजिक संस्थान ने अमन ट्रस्ट के साथ “अर्ध-विधवाओं की संवेदनशील स्थिति: न्यायपालिका, राज्य, नागर समाज और समुदाय की भूमिका” विषय पर एक अध्ययन किया है, जिसकी रिपोर्ट  उन्होंने दिनांक 5 जून 2015 को इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट के खचाखच भरे सभागार में प्रस्तुत की.

यह अध्ययन डॉ. पॉल डीसूजा ने अमन ट्रस्ट के सहयोग से कश्मीर के 150 परिवारों से एकत्र आंकड़े के आधार पर किया है, जिनमें जम्मू क्षेत्र के पुंछ ज़िले और कश्मीर घाटी के आठ ज़िले जिनमें बारामुला, पुलवामा, श्रीनगर, शुपीयान, कुपवारा, बांदीपुर, बदगाँव और गनदर्बल के लगभग 140 गाँव और कस्बे शामिल हैं. इसमें इस बात की पड़ताल की गई है कि कैसे अर्ध-विधवाओं को भिन्न-भिन्न किस्म की तकलीफ़ों और कठिनाईओं का सामान करना पड़ता हैं.

इस अध्ययन से पता चला कि इन अर्ध-विधवाओं के हाशिये पर होने के पांच आयाम हैं- लैंगिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और स्वास्थ्यगत. इस अध्ययन मे महिलाओं की इस दयनीय दशा के वर्णन के अलावा न्यायपालिका, राज्य, नागर समाज और समुदाय के लिए सकारात्मक भूमिका अदा करने की सिफ़ारिश की गई है.

रिपोर्ट बताती है कि अधिकांश अर्ध-विधवाएं बेहद कमज़ोर आर्थिक परिवार वाले ग्रामीण क्षेत्रों से आती हैं और अब इस हालात में उनके हालात दिन-ब-दिन और और भी कमजोर होते जा रहे हैं. पितृसत्तात्मक समाज इन महिलाओं को किसी भी स्थिति में परिवार का मुखिया मानने से इंकार करता है, चाहे वह परिवार के उत्तराधिकार का मामला हो, या संपत्ति या अन्य कोई. हर मामले में  उन्हें  दूसरों की ही सुनना पड़ती है. और तो और विधवा और शादीशुदा इन दोनों से ही अलग स्थिति होने के कारण अर्ध-विधवा को बड़ी असमंजसपूर्ण स्थिति से गुज़रना पड़ता है. इस पीड़ा से उन्हें अन्य नुक़सानों के साथ-साथ शारीरिक और मानसिक कष्टों से भी गुज़रना पड़ता है.

इस रिपोर्ट को जारी करते हुए योजना आयोग की पूर्व सदस्या सईदा हमीद ने एफस्पा (आर्मड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट) को तत्काल रद्द किए जाने की मांग का समर्थन करते हुए कश्मीर की जनता के जख्मों को भरने के लिए मानवीय नीति लागू करने की बात कही.

अध्ययन के निष्कर्ष पर प्रकाश डालते हुए सहबा हुसैन ने कश्मीर के उस राजनैतिक परिद्रश्य पर सवाल उठाने की ज़रूरत कही, जिसके कारण यहां इतनी बड़ी संख्या मे अर्ध-विधवाएँ उभरी हैं. परंतु कड़े सरकारी कानूनों के चलते उन्हे कहीं से भी न्याय नहीं मिल पा रहा हैं और न्यायालय से तो कुछ भी उम्मीद नहीं बची.

चर्चा की शुरुआत करते हुए प्रसिद्ध महिलावादी और ज़ुबान प्रकाशन की संस्थापक उर्वशी बुटालिया ने कहा एक समय कश्मीर के मुद्दे को राष्ट्र-विरोध प्रचारित किया गया जा रहा था, इसलिए इस मुद्दे पर कोई ध्यान नहीं दिया करता था. किन्तु अब लोगों को सच्चाई सामने आने लगी है, इसलिए कश्मीरी महिलाओं की दयनीय स्थिति पर ध्यान जाने लगा है. इस दिशा में यह रिपोर्ट एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ साबित होगी और हमें उम्मीद करना चाहिए कि सरकार इसके सुझाव को तत्काल अमल में लाएगी.

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