Nikhat Perween for BeyondHeadlines
पटना : रमज़ान का महीना आते ही बाज़ारों की रौनक बढ़ जाती है. यह ऐसा महीना होता है, जिसका इंतज़ार ना सिर्फ मुसलमान बल्कि हर धर्म के लोग करते हैं, क्योंकि इस महीने में हर किसी के कारोबार को काफी लाभ मिलता है. लेकिन पिछले कुछ सालों से लगातार बढ़ती महंगाई ना सिर्फ रमज़ान की रौनक़ को कम किया है, बल्कि रोज़ेदारों के लिए भी परेशानी का सबब बनी हुई है.
राजधानी पटना के मंगल तालाब में रहने वाले खुर्शीद आलम बताते हैं कि ‘मैं पिछले 10-12 सालों से पटना के सब्ज़ीबाग इलाक़े में अपनी खजूर व मेवे की दुकान चला रहा हूं, लेकिन पिछले 2-3 सालों से लगातार बढ़ती महंगाई कारण दाम इतने बढ़ गए हैं कि रमज़ान के दिनों में भी इनकी बिक्री नहीं हो पा रही है. ग्राहक आते तो बड़ी तादाद में हैं, लेकिन सस्ते खजूर की मांग करते हैं… अब हम इन रोज़ेदारों के लिए सस्ता खजूर कहां से लाएं?’
सब्ज़ीबाग के ही इलाक़े में पिछले चार साल से इत्र व टोपियों की छोटी सी दुकान लगाने वाले 22 साल के तौहीद का कहना है –‘बचपन से ही घर में यह माहौल देखा था कि रमज़ान शुरू होते ही दोस्तों-रिश्तेदारों का दावतें बड़े पैमाने पर हर घर में की जाती थी. इफ़्तार के लिए तरह-तरह की चीजें बनती थी. लेकिन अब महंगाई इतनी बढ़ गई है कि दावतों के बारे कोई सोचता भी नहीं. इस महंगाई ने हमारी इफ़्तार पार्टी के उन रौनक़ों को भी फीका कर दिया है.’
राजा बाज़ार में फलों की दुकान लगाने वाले मो. मुमताज़ बताते हैं कि ‘आधे से ज़्यादा रमज़ान गुज़र चुका है. इसके बावजूद अब तक फलों की बिक्री इतने बड़े पैमाने पर नहीं हुई है कि बहुत मुनाफ़ा हो. अब 150-200 रुपये किलो का सेब कौन खरीदेगा?’
इस महंगाई की वजह से सिर्फ दुकानदार ही नहीं, बल्कि हर आम आदमी परेशान है. घर का मैनेजमेंट संभालने वाली महिलाओं की परेशानी तो और भी बढ़ गई है.
रेहाना खातून बताती हैं –‘मेरे परिवार में सिर्फ 5 लोग ही हैं. छोटा परिवार होने की वजह से पकवाने भी तरह-तरह की बनाती थी, लेकिन अब इस महंगाई में काफी मुश्किल है. बच्चों की फ़रमाईश को नज़रअंदाज़ करके थोड़ी कंजूसी करनी पड़ रही है ताकि बच्चों की ईद थोड़ी अच्छी हो सके.’
दूसरे के घरों में झाड़ू-पोंछा कर किसी भी तरह अपना व अपनी 12 साल की बेटी का पेट पालने वाली ज़ैबुन कहती हैं –‘पहले लोगों के यहां से खूब सारी इफ़्तारियां मिला करती थी. उसी से हमारा सेहरी तक का काम चल जाया करता था. लेकिन अब लोग इफ़्तार देने में भी कंजूसी करते हैं. समझ नहीं आता कि हम क्या करें?’
शिक्षिका शबाना का कहना है कि ‘दो साल पहले जब सरकारी स्कूल में मेरी नौकरी लगी थी तो मैं काफी खुश थी कि चलो अब घर के खर्च में भी मेरा योगदान होगा. लेकिन इस रमज़ान में महंगाई इतनी है कि सोचना पड़ता है कि फल लूं या न लूं… खरीदने से पहले पूरा हिसाब-किताब लगाना पड़ता है कि कौन सा कितनी मात्रा में खरीदूं और उसे कितने दिन चलाना है.’
घर से दूर हॉस्टल में रहने वाली छात्रा सदफ़ ज़रीन कहती हैं –‘काश! घर वाले रमज़ान में थोड़े ज़्यादा पैसे भेजते… ताकि इफ़्तार में कुछ अच्छा नसीब होता.’
पटना कॉलेज में पढ़ने वाले अकबर अली भी काफी परेशान हैं. वो कहते हैं कि ‘एक रमज़ान में घर से दूर रहो तो गांव के पकवानों की याद आती है, दूसरी तरफ शहरों में दिन भर रोज़ा रखकर शाम में कुछ अच्छा खाना चाहो तो वो अपने बस की बात नहीं होती. बार-बार ज़ेहन चुनाव के दौरान टीवी पर चलने वाले ‘अच्छे दिन’ का विज्ञापन याद आ जाता है. ‘ये जनता अब माफ़ नहीं करेगी’.’