BeyondHeadlines News Desk
पटना : ‘आज हम आईडिया आॅफ़ इंडिया के ख़तरे को लेकर चितिंत हैं. परन्तु जब हिन्दुस्तान आज़ाद हो रहा था और आज़ादी के बाद भी एक साथ चार-पांच माॅडल विमर्श में थें. पहला माॅडल गाँधी-नेहरू का था, दूसरा वामपंथियों का था, तीसरा भगत सिंह और उनके साथियों, चौथा अम्बेडकर का था. दुर्भाग्य से एक आईडिया आॅफ इंडिया राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी है, जो कहीं से भी आज़ादी की लड़ाई का हिस्सा नहीं था. इसलिए हमें यह ज़रूर सोचना चाहिए कि कौन सा आईडिया आॅफ़ इंडिया ख़तरे में है? देश के संविधान ने लोकतांत्रिक मूल्यों को तीन शब्दों के समीप निर्धारित किया था और वह ‘समानता’, ‘सद्भाव’ और ‘बंधुत्व’ के बीच कन्द्रित है; परन्तु आज तक हम गैर-बराबरी के साथ ही जी रहे और यह लगातार बढ़ती जा रही है. संविधान के आने बाद भी हमने लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन 1950 में कश्मीर में शेख़ अब्दुल्ला की सरकार और 1953 में केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार को बर्खास्त कर प्रारंभ कर दिया. कश्मीर और केरल की सरकारों को बर्खास्त करने का कारण एकमात्र था —भूमि सुधार और गैर-बराबरी समाप्त करने की पहल. हमने अम्बेडकर को सही अर्थों में लिया ही और गैर-बराबरी को बढ़ाने का काम किया. इस कारण हमारा लोकतंत्र किताबों ही सीमित रहा और आम जन से दूर होता है. इसलिए यह अनिवार्य है कि गैर-बराबरी, जातिय असमानता का विनाश किए बग़ैर लोकतंत्र मज़बूत नहीं हो सकता है.’
ये बातें इप्टा प्लैटिनम जुबली व्याख्यान-3 के तहत ‘लोकतंत्र का भारतीय माॅडल, संस्कृति और मीडिया’ विषय पर व्याख्यान प्रस्तुत करते हुए वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने कहीं.
उर्मिलेश ने कहा कि भारत के राज्यों में जहां सरकार ने गैर-बराबरी ख़त्म करने का थोड़ा भी प्रयास किया, उसका परिणाम सबके सामने है. कश्मीर में केवल सुरक्षा-रक्षा का मसला है और वहां का समुदाय सामान्य तौर पर सम्पन्न है. इसी प्रकार केरल में बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं इन्हीं प्रयासों का परिणाम है. वामपंथी आन्दोलन की आलोचना करते हुए उर्मिलेश ने कहा कि एक लम्बे समय तक कांग्रेसी शासक पार्टी रही और वामपंथी वैचारिकी को संयोजित करते रहे, परन्तु दबाव की राजनीति करते हुए अपने एजेंडे को लागू नहीं करा पाए. मज़दूरों और औरतों के लिए काम तो किया पर भारत के जातियों के विनाश के लिए ठोस पहल नहीं कर पाएं.
उन्होंने सवाल खड़ा कि क्या वजह थी कि अम्बेडकर के साथ वाम-पंथियों का एक लम्बे समय तक कोई विमर्श नहीं हुआ? क्यों अम्बेडकर साहित्य आम जन तक एक बड़े लम्बे अंतराल के बाद सामने आ सका. इसी प्रकार भगत सिंह लम्बे समय तक उग्र चरमपंथी क़रार दिए गए? यदि यूपीए-2 में केन्द्रीय स्तर पर पहल न होती, चमनलाल/जगमोहन ने पहल न की होती तो आज भी हम अम्बेडकर, भगत सिंह के प्रति अज्ञानी होते.
शिक्षाविद् प्रो. विनय कुमार कंठ की स्मृति में आयोजित इस व्याख्यान में सहभागी लोकतांत्रिक मूल्यों पर चर्चा करते हुए उर्मिलेश ने कहा कि हम देश को लोकतान्त्रिक गणराज्य तो कहते हैं, परन्तु सहभागी लोकतांत्रिक व्यवहारों से परहेज़ करते हैं. देश का आम जन सामान्य तौर पर आधार को नहीं चाहता है, परन्तु शासक वर्ग चाहता है, इसलिए हम इसे मानने को मजबूर हैं. क्यों नहीं हम जनमत कराना चाहते हैं? क्या लोकतांत्रिक मूल्यों की जड़ें इतनी कमज़ोर हैं कि जनमत संग्रह के कारण कमज़ोर हो जाएंगी?
सांस्कृतिक मुद्दों पर अपनी बात रखते हुए उर्मिलेश ने कहा कि इस हिन्दुत्व ने हमें हिंसक बना दिया है, जो धर्म न होकर आडम्बर है. वैमनस्य बढ़ाने वाला है.
उन्होंने कहा कि हिन्दुत्व ने सांस्कृतिक बबर्रता को मज़बूत किया है. यह हिन्दुत्व ब्राह्मणवादी वैचारिकता की देन है. मनुस्मृति और पुराणों में यह बर्बरता छुपी है, जो विभिन्न रूपों में सामने आ रही है. केन्द्र और 10 राज्यों में भाजपा की सरकारें इसे आगे बढ़ा रही हैं.
मीडिया की आलोचना करते हुए उर्मिलेश ने कहा कि आज मीडिया मृदंग मंडली में तब्दील हो गई है. मुख्य धारा में तथाकथित रूप से शामिल ये मीडिया एंटी सोशल कन्टेंट परोसने के अपराधी हैं. संस्कृति के निर्माताओं को इन मीडिया को किस रूप में देखना चाहिए यक्ष प्रश्न है. आज ज़रूरत है कि इन मीडिया को बेडरूम से बाहर निकालें और बेहतर जनसंचार माध्यमों से ही सूचना प्राप्त करें. झूठ और मिथ्या के इन प्रयासों को समाप्त करने की जन पहल करें.
उन्होंने कहा कि आज का मीडिया भारत के राजनीतिज्ञों से ज्यादा एक्सपोज्ड है और जातिवादी ब्रह्मणवाद का पैरोकार है. असमानता जारी रखने की यह जिद हमारे देश को अंधेरे में ले जाएगी.
व्याख्यान की शुरूआत में इप्टा की नूतन तनवीर, केया राय, राहूल और सूरज ने इंक़लाब गीत के गायन से की. उसके बाद सीताराम सिंह ने कैफ़ी आज़मी की नज़्म ‘दूसरा बनवास’ का गायन किया.