अफ़रोज़ आलम साहिल, BeyondHeadlines
आज से ठीक 125 साल पहले का ये दिन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जीवन का एक ऐतिहासिक दिन है. इसी दिन महात्मा गांधी ने अपने मन में सत्याग्रह के सिद्धांतों को जन्म दिया, जब उन्हें उस समय के नेटाल की राजधानी मेरित्सबर्ग स्टेशन पर ज़बरदस्ती उतार दिया गया था. इसके बाद ही उन्होंने दक्षिण अफ्रीक़ा में शांतिपूर्ण विरोध किया और वहां तथा भारत में लोगों को भेदभावपूर्ण ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ एकजुट किया.
इस ऐतिहासिक दिन को लेकर भारत में कोई जश्न मनाया जा रहा हो, इसकी कोई ख़बर तो नहीं है, लेकिन दक्षिण अफ्रीक़ा में इस ऐतिहासिक घटना के 125 साल पूरे होने पर तीन दिवसीय जश्न ज़रूर मनाया जा रहा है. इस जश्न में भारत की ओर से विदेश मंत्री सुषमा स्वराज भी शामिल हैं.
दक्षिण अफ्रीक़ा के पीटरमैरिट्जबर्ग में बुधवार को बायोपिक ‘मेकिंग ऑफ़ ए महात्मा’ की स्क्रीनिंग की गई. भारत और दक्षिण अफ्रीक़ा के सह-प्रोडक्शन वाली यह फिल्म वर्ष 1996 में बनी, जब नेल्सन मंडेला दक्षिण अफ्रीक़ा के लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित पहले राष्ट्रपति बने.
दरअसल, 7 जून 1893 को गांधी प्रिटोरिया जाने के लिए डरबन से वहां की ट्रेन में बैठे. इनका टिकट पहले दर्जे का था. लेकिन उस समय के नेटाल की राजधानी मेरित्सबर्ग स्टेशन पर उतार दिया गया. आमतौर कहा जाता है कि अश्वेत होने की वजह से बैरिस्टर करमचंद गांधी को ट्रेन से धक्का देकर उतार दिया गया था. लेकिन खुद गांधी जी की आत्मकथा इस बात की ओर भी इशारा करती है कि उन्हें ट्रेन से उतारने की एक वजह उनकी खुद की ‘कंजूसी’ भी है.
गांधी जी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं —‘ट्रेन लगभग नौ बजे नेटाल की राजधानी मेरित्बर्ग पहुंची. यहां बिस्तर दिया जाता था. रेलवे के किसी नौकर ने आकर पूछा, “आपको बिस्तर की ज़रूरत है?” मैंने कहा, “मेरे पास अपना बिस्तर है.” वह चला गया. इस बीच एक यात्री आया. उसने मेरी तरफ़ देखा. मुझे भिन्न वर्ण का पाकर वह परेशान हुआ, बाहर निकला और एक-दो अफ़सरों को लेकर आया. किसी ने मुझे कुछ न कहा. आख़िर में एक अफ़सर आया. उसने कहा, “इधर आओ. तुम्हे आख़िरी डिब्बे में जाना है.” मैंने कहा, “मेरे पास पहले दर्जे का टिकट है.” उसने जवाब दिया, “इसकी कोई बात नहीं. मैं तुमसे कहता हूं कि तुम्हें आख़िरी डिब्बे में जाना है.” “मैं कहता हूं कि मुझे इस डिब्बे में डरबन से बैठाया गया है और मैं इसी में जाने का इरादा रखता हूं.” अफ़सर ने कहा, “यह नहीं हो सकता. तुम्हें उतरना पड़ेगा, और न उतरे तो सिपाही उतारेगा.” मैंने कहा, “तो फिर सिपाही भले उतारे, मैं खुद तो नहीं उतरूंगा.” सिपाही आया. उसने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे धक्का देकर नीचे उतारा. मेरा सामान उतार लिया. मैंने दूसरे डिब्बे में जाने से इन्कार कर दिया. ट्रेन चल दी…’
बता दें कि गांधी जी को दक्षिण अफ्रीक़ा सेठ अब्दुल्लाह ने एक मुक़दमा लड़ने के लिए बुलाया था. गांधी जी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं —‘मेरे लिए पहले दर्जे का टिकट कटाया गया. वहां रेल में सोने की सुविधा के लिए पांच शिलिंग का अलग टिकट कटाना होता था. अब्दुल्लाह सेठ ने उसे कटाने का आग्रह किया, पर मैंने हठवश, अभिभानवश और पांच शिलिंग बचाने के विचार से बिस्तर का टिकट कटाने से इन्कार कर दिया. अब्दुल्लाह सेठ ने मुझे चेताया, “देखिए, यह देश दूसरा है, हिन्दुस्तान नहीं है. खुदा की मेहरबानी है. आप पैसे की कंजूसी न कीजिए. आवश्यक सुविधा प्राप्त कर लीजिए.” मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और निश्चित रहने को कहा.’
कड़कड़ाती ठंड में बैरिस्टर गांधी मेरित्बर्ग स्टेशन के वेटिंग रूम में ठंड से कांपते रहें और सारी रात वो यही सोचते रहे कि —‘या तो मुझे अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए या लौट जाना चाहिए, नहीं तो जो अपमान हो, उन्हें सहकर प्रिटोरिया पहुंचना चाहिए और मुक़दमा ख़त्म करके देश लौट जाना चाहिए. मुक़दमा अधूरा छोड़कर भागना तो नामर्दी होगी…’
यही सब सोचते हुए गांधी जी ने यह निश्चय किया कि जैसे भी हो, दूसरी ट्रेन से आगे जाना चाहिए. और गांधी अगले दिन जब ट्रेन आई तो उस ट्रेन से चार्ल्स टाऊन की ओर निकल पड़ें.
गांधी जी ने यहां अपनी आत्मकथा में लिखा है —‘बिस्तर का जो टिकट मैंने डरबन में कटाने से इन्कार किया था, वह मेरित्बर्ग में कटाया.’
दरअसल, इसी घटना के बाद से गांधी जी दक्षिण अफ्रीक़ा में रंग-भेद के ख़िलाफ़ अपने सत्याग्रह का आगाज़ किया, जिसकी कहानी पूरी दुनिया जानती है…