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पहली बार मुख्यधारा की ये फ़िल्म बहुजनों के आत्मा की बात करती है…

By Javed Anis

“पुरोहितों ने पुराणों की प्रशंसा लिखी है. कम्युनिस्टों और विवेकवादी लेखकों ने इन पुराणों की टीकाएं लिखी हैं. लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा कि हमारी भी कोई आत्मा है जिसके बारे में बात करने की ज़रूरत है.” (कांचा इलैया की किताब “मैं हिन्दू क्यों नहीं हूं” से)

फिल्में मुख्य रूप से मनोरंजन के लिए बनाई जाती हैं, लेकिन सांस्कृतिक वर्चस्व को बनाए रखने में फिल्मों की भी भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता है. हर फिल्म की बनावट पर अपने समय, काल और परिस्थितियों की छाप होती है, लेकिन “काला” इससे आगे बढ़कर अपना सांस्कृतिक प्रतिरोध दर्ज करती है. यह अपनी बुनावट में सदियों से वर्चस्व जमाए बैठे ब्राह्मणवादी संस्कृति की जगह दलित बहुजन संस्कृति को पेश करती है और पहली बार मुख्यधारा की कोई फ़िल्म बहुजनों के आत्मा की बात करती है.

भारतीय समाज और राजनीति का यह एक उथल-पुथल भरा दौर है, जिसे “काला” बहुत प्रभावी ढंग से कैच करती है. एक तरफ़ जहां हिन्दुत्व के भेष में ब्राह्मणवादी ताक़तें अपनी बढ़त को निर्णायक बनाने के लिए नित्य नए फ़रेबों और रणनीतियों के साथ सामने आ रही हैं, जिससे संविधान की जगह एक बार फिर मनु के क़ानून को स्थापित किया जा सके. इस दौरान राज्य के संरक्षण में दलितों और अल्पसंख्यकों पर हिंसा के मामलों और तरीक़ों में भी इज़ाफ़ा हुआ है.

वहीं दूसरी तरफ़ दलितों के अधिकार, अस्मिता और आत्म-सम्मान की लड़ाई में भी नई धार देखने को मिल रही है. दलित आन्दोलन प्रतिरोध के नए-नए तरीक़ों, चेहरों और रंगों के साथ मिलकर चुनौती पेश कर रहा है, फिर वो चाहे, जिग्नेश मेवाणी, चंद्रशेखर रावण जैसे चेहरे हों या आज़ादी कूच, भीमा-कोरेगांव जैसे आंदोलन या फिर दलित-मुस्लिम एकता और जय भीम—लाल सलाम जैसे नारे. दलित आंदोलन का यह नया तेवर और फ्लेवर सीधे हिन्दुत्व की राजनीति से टकराता है.

हमेशा से ही हमारी फिल्में पॉपुलर कल्चर के उन्हीं विचारों, व्यवहार को आगे बढ़ाती रही है, जिसे ब्राह्मणवादी संस्कृति कहते हैं. इसके बरक्स दूसरे विचारों और मूल्यों को ना केवल इग्नोर किया जाता है बल्कि कई बार इन्हें कमतर, लाचार या मज़ाकिया तौर पर पेश किया जाता है.

पी. रंजीत की फ़िल्म “काला” इस सिलसिले को तोड़ती है और स्थापित विचारों और मूल्यों को चुनौती देती है. यह जागरूक फ़िल्म है और कई मामलों में दुर्लभ भी. जिग्नेश मेवाणी इसे ब्राह्मणवादी विचारधारा के ख़िलाफ़ शानदार सांस्कृतिक प्रतिक्रिया बताते हैं.

वैसे तो ऊपरी तौर पर रजनीकांत की दूसरी मसाला फ़िल्मों की तरह ही है और इस जैसी कहानियां हम पहले भी कई बार देख-सुन चुके हैं, लेकिन इस काला में जिस तरह से इस पुरानी कहानी का पुनर्पाठ किया गया है वो विस्मित कर देने वाला है.

काला का स्टैंडपॉइंट इसे ख़ास बनाता है. यह दलित नज़रिए को पेश करने वाली फ़िल्म है. लीड में झुग्गी बस्तियों में रहने वाले लोग हैं, जो किसी के अहसान से नहीं, बल्कि अपनी चेतना से आगे बढ़ते हैं और ज़मीन को बचाने के लिए व्यवस्था और स्थापित विचारों से टकराते हैं.

अमूमन जाति उत्पीड़न और अस्पृश्यता जैसे सवाल ही दलितों के मुद्दे के तौर पर सामने आते हैं, लेकिन ऊना आंदोलन के बाद से इसमें बदलाव आया है. फिल्म कालाभी ज़मीन के अधिकार की बात करती है “जो मेरी ज़मीन और मेरे अधिकार को ही छीनना तेरा धर्म है और ये तेरे भगवान का धर्म है तो मैं तेरे भगवान को भी नहीं छोड़ूंगा… जैसे तेवरों के साथ आगे बढ़ती है.

यह धारावी करिकालन यानी काला और उसके लोगों की कहानी है जो ताक़तवर नेताओं और भू माफ़ियाओं के गठजोड़ से अपने अस्मिता और ज़मीन को बचाने की लड़ाई लड़ते हैं. उनके सामने जो शख्स है, उसे गंदगी से नफ़रत है और वो धारावी को स्वच्छ और डिजिटल बना देना चाहता है.

उदारीकरण के बाद से भारत में शहरीकरण की प्रक्रिया में बहुत तेज़ी आई है और आज देश के बड़ी जनसंख्या शहरों में रहती है, जिनमें से एक बड़ी आबादी झुग्गी-झोपड़ियों में रहने को मजबूर है. इनमें से ज्यादातर लोग दलित, आदिवासी आर मुस्लिम समुदाय के लोग हैं.

कभी ये माना जाता था कि शहरीकरण से जाति-प्रथा को ख़त्म किया जा सकता है. झुग्गियों में रहने वाली आबादी शहर की रीढ़ होती है जो अपनी मेहनत और सेवाओं के बल पर शहर को गतिमान बनाए रखती है, लेकिन झुग्गी-बस्तियों में रहने वालों को शहर पर बोझ माना जाता है. शहरी मध्य वर्ग जो ज्यादातर स्वर्ण हैं, उन्हें गन्दगी और अपराध का अड्डा मानता है. 

फ़िल्म के बैकग्राउंड में मुंबई का सबसे बड़ा स्लम धारावी है. काला करिकालन (रजनीकांत) धारावी का स्थानीय नेता और गैंगस्टर हैं, जिसे वहां के लोग मसीहा मानते हैं. वो हमेशा अपने लोगों के साथ खड़ा रहता है और उनके सामूहिक हक़ के लिए लड़ता भी है. धारावी की क़ीमती ज़मीन पर खुद को “राष्ट्रवादी” कहने वाली पार्टी के नेता हरिदेव अभ्यंकर (नाना पाटेकर) की नज़र है, जिसने “क्लीन एंड प्योर कंट्री” और “डिजिटल धारावी” का नारा दिया हुआ है.

अपने स्वच्छता अभियान में धारावी उसे गंदे धब्बे की तरह नज़र आता है, इसलिए वो धारावी का विकास करना चाहता है. लेकिन काला अच्छी तरह से समझता है कि दरअसल हरिदादा का इरादा धारावी के लोगों को उनकी ज़मीन से हटाकर लम्बी तनी दड़बेनुमा मल्टी इमारतों में ठूस देने का है जिससे इस क़ीमती ज़मीन का व्यावसायिक उपयोग किया जा सके.

इसके बाद काला हरिदादा के ख़िलाफ़ खड़ा हो जाता है. फिल्म में ईश्वरी राव, हुमा कुरैशी, अंजली पाटिल, पंकज त्रिपाठी भी अहम भूमिका में हैं. फिल्म में नाना पाटेकर के किरदार में बाल ठाकरे का अक्स नज़र आता है जो उन्हीं की तरह राजनीति में अपने आप को किंगमेकर मानता है.

फिल्म के निर्देशक पा. रंजीत हैं जो इससे पहले “मद्रास” और कबाली जैसी फिल्में बना चुके हैं. कबाली में भी रजनीकांत थे जिसमें वे वाई.बी. सत्यनारायण की माई फ़ादर बालय्या‘ (हिंदी में वाणी प्रकाशन द्वारा “मेरे पिता बालय्या” नाम से प्रकाशित) पढ़ते हुए दिखाये गए थे, जिसमें तेलंगाना के दलित मादिगा जाति के एक परिवार का संघर्ष दिखाया. लेकिन काला एक ज्यादा सधी हुई फ़िल्म है. यह विशुद्ध रूप से निर्देशक की फ़िल्म है और पा. रंजीत जिस तरह से रजनीकांत जैसे सुपर स्टार को साधने में कामयाब हुए हैं वो क़ाबिले तारीफ़ है.

अपने बनावट में काला पूरी तरह से एक व्यावसायिक फ़िल्म है, लेकिन इसका टोन भी उतना ही राजनीतिक और समसामयिक है. एक बहुत ही साधारण और कई बार सुनाई गई कहानी में आज के राजनीति और इसके मिज़ाज को बहुत ही करीने से गूथा गया है. इसमें वो सब कुछ है, जो हम आज के राजनीतिक माहौल में देख-सुन रहे हैं. लेकिन सबसे ख़ास बात इनके बयानगी की सरलता है. यह निर्देशक का कमाल है कि कोई भी बात ज़बरदस्ती ठूंसी हुई या गढ़ी नहीं लगती है, बल्कि मनोरंजन के अपने मूल उद्देश्य को रखते हुए बहुत ही सधे और आम दर्शकों को समझ में आने वाली भाषा में अपना सन्देश भी देती है.

भारत में त्वचा के रंग पर बहुत ज़ोर दिया जाता है. बच्चा पैदा होने पर माँ-बाप का ध्यान सबसे पहले दो बातों पर जाता है, शिशु लड़का है या लड़की और उसका रंग कैसा है, गोरा या काला. फिल्म “काला” इस सोच पर चोट करती है और काले रंग को महिमामंडित करती है. फिल्म का नायक जिसके त्वचा का रंग काला है. काले कपड़े पहनता है जबकि खलनायक उजले कपड़ों में नज़र आता है.

काला का सांस्कृतिक प्रतिरोध ज़बरदस्त है. धारावी एक तरह से रावण के लंका का प्रतीक है, यहां भी लंका दहन की तरह धारावी भी जलाया जाता है. खलनायक के घर रामकथा चलती है, लेकिन इसी के समयांतर फ़िल्म के नायक को रावण की तरह पेश किया जाता है.

क्लाइमैक्स में जब खलनायक हरि अभ्यंकर को मारते हैं तो उसी के साथ रावण के दस सिर गिरने की कहानी भी सुनाई जाती है. “हाथ मिलाने से इक्वॉलिटी आती है, पांव छूने से नहीं” जैसे डायलाग ब्राह्मणवादी तौर तरीक़ों पर सीधा हमला करते हैं.

इसी तरह से काला के एक बेटे का नाम लेनिन है और उनकी पूर्व प्रेमिका मुस्लिम है. फिल्म में नायक “काला” को एक जगह नमाज़ पढ़ते हुए दिखाया गया है और दृश्यों-बैकग्राउंड में बुद्ध, अंबेडकर की मूर्तियां और तस्वीरें दिखाई गई हैं जो अपने आप में बिना कुछ कहे ही एक सन्देश देने का काम करते हैं. अंत में रंगों के संयोजन को बहुत ही प्रभावी तरीक़े से पर्दे पर उकेरा गया है, जिसमें एक के बाद एक काला, नीला और लाल रंग एक दूसरे में समाहित होते हुए दिखाए गए हैं.

“काला” हमारे समय की राजनीतिक बयान है जिसका एक स्पष्ट राजनीतिक स्टैंड है और जो अपना मुक़ाबला ब्राह्मणवाद और भगवा राजनीति से मानती है. यह एक ऐसी फिल्म है जिसे बार-बार कोड किए जाने की ज़रूरत है.

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