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मुशीरुल हसन — सच्चे मुसलमान थे, क्योंकि उनमें ज़िन्दगी संवार देने का हुनर था

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published December 13, 2018
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5 Min Read
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By Abdul Wahid Azad

सोमवार की अलस्सुबह घर से दफ़्तर के लिए निकलते ही हसब-ए-मामूल मोबाइल को खंगालना शुरू किया. तभी प्रोफ़ेसर मुशीरुल हसन के इंतेक़ाल की ख़बर ने ग़म से निढाल कर दिया. आप लंबे वक़्त से बिस्तर-ए-मर्ग थे, इस अनहोनी का ख़दशा भी था, लेकिन आपका यूं चला जाना रुला गया.

अपनी तमाम ख्वाहिश और कोशिशों के बावजूद दिल्ली में रहते हुए भी नमाज़-ए-जनाज़ा में शरीक नहीं हो सका. मुसरुफ़ियत इतनी रही कि ख़िराज-ए-अक़ीदत में दो लफ़्ज़ तक नहीं पेश कर सका.

हक़ गोई उनकी फ़ितरत थी

मुशीरुल हसन जैसी अज़ीम शख़्सियत की ज़िन्दगी का अहाता करना मेरे जैसे नाचीज़ के लिए मुश्किल है. लेकिन उनकी शख़्सियत के जिस पहलू ने मुझे सबसे ज़्यादा मुतासिर किया, वो उनकी हक़ गोई थी.

ये नग़्मा फ़स्ल-ए-गुल-ओ-लाला का नहीं पाबंद

बहार हो कि ख़िज़ाँ ला-इलाहा-इल्लल्लाह

इक़बाल का ये शेर उनकी शख़्सियत की ऐन अक़्क़ाशी करता है.

दो ऐसे वाक़्यात रहे जब वो सीधे बातिल से टकराए. न दरिया की तुग़्यानी उन्हें हिला पाई, न तूफ़ान का क़हर उन्हें उड़ा पाया. दोनों अवक़ात में वो हीरो और विलेन दोनों शुमार किए गए. दिलचस्प बात ये है कि पहले जिसने उन्हें विलेन गर्दाना, दूसरी बार उसने उन्हें हीरो जाना और जिसने पहले हीरो पहचाना बाद में उसने विलेन बना दिया.

पहला वाक़्या ये है कि जब उन्होंने इज़हार-ए-राय की आज़ादी का हवाला देकर सलमान रशदी की किताब के बैन की मुख़ालफ़त की तो जज़्बाती क़ौम के जियालों ने उन्हें अपने दम-ए-इताब का शिकार बनाया और जब बटला हाउस फ़र्ज़ी एनकाउंटर में फंसाए गए छात्रों की क़ानूनी मदद का ऐलान किया तो नकली राष्ट्रवादी हिंदुओं ने उन्हें अपने निशाने पर लिया. मैं आज भी मानता हूं कि वो दोनों वक़्त सच के साथ थे. उनकी इस हक़ गोई को मेरा सलाम…

 

जम्हूरियत उनकी ख़मीर में था

जब जामिया मिल्लिया इस्लामिया के वीसी बने तो उन्होंने तलबा और तालिबात के घुटन और कैंपस में जम्हूरी फ़ीज़ा की कमी को शिद्दत से मसहूस किया. सबसे पहले फैकल्टी के हिसाब से क्लास रिपर्जेंटेटिव से मुलाक़ात का सिलसिला शुरू किया. जब मैं हिन्दी विभाग में मास मीडिया का छात्र था तब बतौर क्लास रिपर्जेंटेटिव अपनी फैकल्टी के सभी क्लास रिपर्जेंटेटिव, डिपार्टमेंट्स कॉआर्डिनेटर, डिपार्मेंट्स हेड और डीन के साथ मुलाक़ात की. उसके बाद उन्होंने स्टूडेंट्स यूनियन का इलेक्शन कराया, जो मुद्दतों से बंद था. लेकिन उनकी इस जम्हूरी कोशिश पर शब-ए-खून भी स्टूडेंट्स यूनियन के नेताओं ने ही मारा और जिसका नतीजा ये हुआ कि छात्र संघ चुनाव दोबारा होने बंद हो गए, और बंद का ये सिलसिला उनके बाद दो वीसी बदल जाने के बावजूद बदस्तूर जारी है.

दरअसल, मुशीर साहेब के ज़माने में स्टूडेंट्स यूनियन में जो लीडरशिप आई थी उनमें मफ़ाद-परस्तों, मौक़ा-परस्तों और अना-परस्तों की अक्सरियत ग़ालिब थी. उनकी ख्वाहिश पलक झपकते बुलंदियों को छूने की थी, जिसकी क़ीमत बीते 12 साल से जामिया के तलबा चुका रहे हैं.

जामिया से बेपनाह मोहब्बत थी

वो दिन भी मुझे याद जब ये ख़बर फैली की मुशीर साहेब पश्चिम बंगाल के गवर्नर बनाए जा रहे हैं, तभी एक प्रोग्राम में प्रोफ़ेसर एस.एम. ज़ैदी (जो बाद में रज़ा लाइब्रेरी के डायरेक्टर बने) ने मुशीर साहेब की मौजूदगी में ये बताया कि सरकार की तरफ़ से उन्हें गवर्नर बनाने का ऑफर आया है, एक डेलीगेशन ने उनसे मुलाक़ात की है, लेकिन उस ऑफ़र को मुशीर साहेब ने ठुकरा दिया है. मुशीर साहेब के लिए गवर्नर का ओहदा जामिया के वीसी से बड़ा नहीं है. जामिया से उनकी इस मुहब्बत को सलाम…

जामिया की आबोहवा में खुशबू बिखेर दी

जामिया को एक नई फ़िज़ा दी, जिसमें अज़मत-ए-रफ्ता की निशानियां थीं और हाल की ज़रूरत का इलाज था और मुस्तक़बिल के लिए राहें भी थीं. अबू अली सीना (Avicenna) ब्लॉक बनाया. शैखुल हिंद मौलाना महमूद हसन के नाम एक गेट की तामीर की. बाब-ए-आज़ाद, बाब-ए-क़ुर्रतुल ऐन हैदर बनवाया. प्रेमचंद को भी याद किया. जामिया की मदद करने वाले जमुना लाल बजाज भी याद किए गए. एडवर्ड सईद, नोम चोमस्की, के.आर. नारायण के नाम भी सेंटर, सेमीनार हॉल बने. ये गिनती लंबी है. वो कम्युनिस्ट थे, लेकिन मैं कहता हूं वो सच्चे मुसलमान थे, क्योंकि उनमें ज़िन्दगी संवार देने का हुनर था.

अलविदा मुशीरुल हसन!

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