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क्या बिहार में कोई भी परिवार ‘आयुष्मान भारत योजना’ का लाभार्थी नहीं बना है?

By Hemant Kumar Jha

कोई तो बताए कि मरने वाले इतने बच्चों में से कितने बच्चे ‘आयुष्मान भारत’ योजना के तहत सुविधासंपन्न निजी अस्पतालों में भर्त्ती थे और कितने सरकारी अस्पतालों में.

और कोई नहीं तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को तो यह बताना ही चाहिए. आख़िर वे भी बीते आम चुनाव में इस योजना को ‘ऐतिहासिक’ बताते घूम रहे थे.

ठीक है कि अभी पिछले साल ही यह योजना शुरू हुई है और एकबारगी सारे ग़रीब इसकी छतरी में नहीं आ सकते.

लेकिन, क्या बिहार के इतने बदनसीब ग़रीब परिवारों में से कोई भी परिवार अब तक इस बीमा योजना का लाभार्थी नहीं बना है? आख़िर सारे बच्चे सरकारी अस्पतालों में ही क्यों भर्त्ती हुए? कोई तो फोर्टिस, अपोलो, पारस आदि पांच सितारा अस्पतालों में भर्त्ती होता. 5 लाख का बीमा इतना कम भी तो नहीं होता.

मरने वाले लगभग सारे के सारे बच्चे बेहद निर्धन परिवारों के चिराग़ थे. ऐसे ही परिवारों के, जिन्हें लक्ष्य बनाकर इस स्वास्थ्य बीमा योजना की शुरुआत की गई थी.

फिर क्या हुआ…? कौन जवाब देगा?

कोई जवाब नहीं देगा क्योंकि इन सवालों का कोई तर्क संगत जवाब है ही नहीं. निजी अस्पतालों और बीमा कंपनियों की पैरोकारी करने वाली राजनीतिक जमात चुप हैं और अगर कुछ बोलती भी है तो ऐसी बात… जो बच्चों की लाशों को ढो रहे लोगों के तन बदन में आग लगाने वाली, उनकी आत्मा को बेध देने वाली है.

सच तो यही है कि मरें या जीएं. गरीबों का आसरा तो सरकारी अस्पताल ही हैं.

आप चाहे जितना अर्थशास्त्र बांच लो, जितने तर्क-वितर्क कर लो. सच यही है कि ग़रीब के बच्चों के लिए सरकारी स्कूल और सरकारी अस्पताल का विकल्प नहीं हो सकता.

गांव-गांव में न्यूनतम साधन संपन्न प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, उनमें तैनात सरकारी डॉक्टरों और पारा मेडिकल स्टाफ़ का कोई विकल्प नहीं हो सकता. रेफरल, अनुमंडलीय और ज़िला अस्पतालों को सुदृढ़ करने का कोई विकल्प नहीं हो सकता.

कोई भी अर्थशास्त्री, कोई भी नेता, कोई भी अधिकारी अगर ग़रीब बच्चों और बीमार माताओं की स्वास्थ्य समस्याओं का निदान निजी चिकित्सा तंत्र में बताता है, बीमा आदि के माध्यम से ही सही, तो वह इन बच्चों के बेमौत मरने की इबारत लिख रहा है.

‘आयुष्मान भारत योजना’ सदी की सबसे फ्रॉड योजना है जो गरीबों के नाम पर बीमा कंपनियों के व्यवसाय को बढ़ाने का एक षड्यंत्रकारी उपक्रम है.

10 करोड़ परिवारों, यानी लगभग 50 करोड़ लोगों को इस बीमा योजना के अंतर्गत लाना है.

प्रति परिवार कितना प्रीमियम होगा? क्या अब तक किसी ने बताया है?

लाभार्थियों की पहचान कैसे होगी? वास्तविक लाभार्थी तक योजना पहुंचेगी या फ़र्ज़ी लाभार्थी पैदा हो जाएंगे?

क्यों नहीं फ़र्ज़ी लाभार्थी पैदा होंगे? जब असली शिक्षक की जगह हज़ारों फ़र्ज़ी शिक्षक पैदा हो गए, असली की जगह नक़ली लोगों ने इंदिरा आवास झटक लिया तो 5 लाख का बीमा क्यों नहीं झटकेंगे नक़ली लोग?

आप इस योजना की तह तक पहुंचने की जितनी भी कोशिश करेंगे उतने ही झोल में घिरते जाएंगे. आप समाधान नहीं पा सकते.

सवाल पूछे जाने चाहिए कि ये जो सैकड़ों बच्चे अकाल मौत के शिकार हुए हैं इनमें कोई भी बच्चा निजी अस्पतालों, निजी नर्सिंग होम्स में क्यों नहीं भर्त्ती हुआ? क्यों सरकारी अस्पताल के एक-एक बेड पर दो-दो, तीन-तीन बच्चे रखने की नौबत आई?

बीबीसी की रिपोर्ट बताती है कि मुज़फ़्फ़रपुर के उस बड़े अस्पताल के परिसर में बीमारों के परिजनों के लिए साफ़ पानी तक की कोई व्यवस्था नहीं थी. भीषण गर्मी से जूझते लोग बाहर से एक चापाकल से पानी ला रहे थे और वह पानी गन्दला था. ज़ाहिर है, प्रदूषित भी होगा.

क्या पानी की व्यवस्था में भी करोड़ों लगते हैं? नहीं, नीयत की बात है, ध्यान देने की बात है. अस्पताल प्रबंधन या जिला प्रशासन ने इस की कोई ज़रूरत नहीं समझी. खुद की टेबल पर ठंडी बिसलेरी की बोतल तो है ही न.

बाक़ियों का क्या है. वे मनुष्य नहीं है. भेड़-बकरी से अधिक की औक़ात नहीं. गंदा और प्रदूषित पानी पिएंगे, बच्चा तो बीमार होकर भर्त्ती है ही, खुद भी बीमार होंगे.

शायद आयुष्मान भारत योजना में मरीज़ों के परिजनों के लिए साफ़ पानी की व्यवस्था का कोई प्वाइंट हो.

(लेखक पाटलीपुत्र यूनिवर्सिटी के हिन्दी विभाग में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं. ये लेख उनके फेसबुक टाईमलाईन से लिया गया है.)

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