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क्या यह कांग्रेस में गांधी परिवार के अवसान का समय है?

Rajiv Sharma for BeyondHeadlines

चुनाव हो चुका है, नई सरकार सत्ता संभाल चुकी है, लेकिन लगातार नीचे की तरफ़ ख़िसक रही कांग्रेस की उलझनें दूर होने का नाम नहीं ले रहीं. जो राहुल गांधी नरेंद्र मोदी को रोज़ चुनौती दे रहे थे कि वे मेरे साथ आंख मिलाकर 15 मिनट बात नहीं कर सकते, वे हार की ज़िम्मेदारी लेने के बाद बिल्कुल चुप बैठे हैं. 

राहुल समेत कांग्रेस के जो नेता हर रोज़ मोदी और उनकी सरकार पर कोई न कोई बड़ा हमला बोल रहे थे उनकी बोलती बंद है. पश्चिम बंगाल में ममता दीदी ने जो धमाल मचा रखा था, वह भाजपा के 18 सीटें जीत लेने के बाद ठंडा पड़ चुका है. हालांकि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह कह चुके हैं कि बंगाल की चुनावी हिंसा में हमारे 54 कार्यकर्ता मारे गए हैं. 

ख़बरें बताती हैं कि राहुल गांधी ने हार की ज़िम्मेदारी तो ले ली है और कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा भी दे दिया है, लेकिन पिछले 50 दिनों में न तो कांग्रेस अपना नया अध्यक्ष चुन सकी है और न ही पार्टी के भीतर ऐसी कोई क़वायद ही नज़र आ रही है. 

आख़िर भाजपा के बाद इस समय भी देश की दूसरे नंबर की अखिल भारतीय पार्टी इस तरह अपना आगे का सफ़र कैसे जारी रखेगी? हां, राहुल गांधी अपनी हार क़बूलने के बाद यह ज़रूर कह चुके हैं कि लोकसभा में 300 से ज्यादा सीटें जीतने वाली भाजपा के मुक़ाबले हमारे 52 सांसद ही काफ़ी हैं. हार क़बूलने के बावजूद उनका यह बयान बहुत हल्का और बचकाना लगता है.

सबसे बड़ा सवाल यही है कि कोई पार्टी आख़िर बिना अध्यक्ष के इतने दिन कैसे चल सकती है और आगे कैसे चलेगी? 

असल में पिछले 60 सालों में कांग्रेस पर गांधी परिवार का दबदबा ही ऐसा रहा है कि राहुल तो अपने अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे चुके हैं, लेकिन नया अध्यक्ष किसे बनाया जाए पार्टी में इस बारे में कुछ भी कहने-सुनने का माद्दा शायद किसी में है ही नहीं. 

यह बात ठीक वैसी ही है जैसे राहुल गांधी ने हार की ज़िम्मेदारी तो ले ली, लेकिन पूरी पार्टी में एक भी नेता खुलकर या छिपे तौर पर भी यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा सका कि इस हार की ज़िम्मेदारी पार्टी नेतृत्व की है. 

कुछ अरसा पहले राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने से पहले सिर्फ़ पी. चिदंबरम ने यह बात कहने की हिम्मत एक बार ज़रूर दिखाई थी कि यह ज़रूरी नहीं है कि कांग्रेस का अगला अध्यक्ष गांधी परिवार से ही हो. उसके बाद यह बात भी आई-गई हो गई और राहुल गांधी न सिर्फ़ कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए, बल्कि उन्होंने सार्वजनिक तौर पर यह इच्छा भी ज़ाहिर कर दी कि यदि मौक़ा आया तो वे देश के प्रधानमंत्री भी बन सकते हैं. 

हालांकि तभी देश का एक नामी टीवी चैनल यह दिखा रहा था कि राहुल गांधी चाहे भाषण कितना ही अच्छा दे लेते हों, लेकिन भाषण देने या बोलने से पहले उनकी ख़ासतौर पर तैयारी करवाई जाती है. उनकी यही खूबी एक बार संसद में सार्वजनिक हो चुकी है.

असल में सोनिया गांधी के बीमार होने के बाद कांग्रेस पार्टी अब नेतृत्व के तौर पर राहुल की विफलताओं को सहते-सहते आजिज़ आ चुकी है. अभी हाल में जब कांग्रेस ने उनके नेतृत्व में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनाव जीत लिए थे तो लगा था कि उन्हें और कांग्रेस को एक नई संजीवनी मिल गई है. 

सू़त्रों और जानकारों का कहना है कि जिन राज्यों में पार्टी ने विधानसभा चुनाव जीते हैं, वहां भी सभी जगह किसानों के सभी क़र्ज़ माफ़ करने का वादा अब तक पूरा नहीं हो सका है. शायद इन्हीं वजहों से ये हालात बने कि लोकसभा चुनाव कांग्रेस इतनी बुरी तरह से हारी कि वह सब किया धरा या तो बेकार हो गया या धराशायी हो गया. 

सन् 2004 का चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस ने प्रधानमंत्री की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ जाकर भी मनरेगा जैसा मंत्र ढूंढ निकाला था, लेकिन इस बार हर साल हर गरीब के खाते में 72000 हज़ार रुपये डालने वाली उनकी न्याय योजना पर भी किसी ने कान नहीं धरा. 

इन चुनावों से पहले पार्टी ने किसी तरह गठजोड़ करके कर्नाटक में सरकार बनाई थी और अब लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद वहां और गोवा में भी कांग्रेस के ख़िलाफ़ मुख़ालफ़त का बिगुल बज चुका है. कांग्रेस के विधायक पाला बदलकर दूसरे खेमें में जा रहे हैं और शायद आज ही ये तय हो जाएगा कि बिना अध्यक्ष के चल रही कांग्रेस की सरकार कर्नाटक में रहेगी या नहीं. 

इसी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने अपने सबसे बड़े ट्रंप कार्ड के तौर पर प्रियंका गांधी को भी दांव पर लगाया था. यही नहीं, भाजपा की तर्ज पर उन्होंने और खुद राहुल गांधी ने मंदिरों के चक्कर भी लगाए, लेकिन हासिल कुछ नहीं हुआ. 

वे लगातार नरेंद्र मोदी को नोटबंदी और जीएसटी के मुद्दे पर चुनाव लड़ने की चुनौती देती रहीं और प्रधानमंत्री अपने मुद्दों पर चुनाव लड़ते रहे. प्रियंका गांधी यह तक कहती रहीं कि मैं वाराणसी से चुनाव लड़ जाउं जहां से प्रधानमंत्री चुनाव लड़ रहे थे, लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रभारी होने के बावजूद उन्होंने कहीं से चुनाव नहीं लड़ा और इसीलिए पार्टी की इतनी बड़ी हार के बावजूद वह अब भी प्रभारी बनी हुई हैं, जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कमान संभालने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया चुनाव हारने के बाद इस्तीफ़ा दे चुके हैं. 

राहुल गांधी के लिए इससे शर्मनाक हार और क्या होगी कि वे अपने परिवार की परंपरागत सीट अमेठी भी नहीं बचा सके. ज़ाहिर है कि उन्हें इसका कुछ न कुछ अंदाज़ा पहले से भी रहा होगा इसीलिए वे केरल की वायनाड सीट से भी चुनाव लड़े और वहां जीत जाने की वजह से ही वे अपने 52 सांसदों के साथ लोकसभा में बैठ पा रहे हैं.

बेशक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे, लेकिन पिछला लोकसभा चुनाव भी कांग्रेस ने राहुल गांधी के नेतृत्व में ही लड़ा था तब पार्टी को मात्र 44 सीटें मिली थीं और पार्टी का नेता विपक्ष का पद भी नियमों से बाहर जाकर दिया गया था. इस बार उन्हीं के नेतृत्व में पार्टी को 52 सीटें मिली हैं. इसलिए देश की इस सबसे पुरानी पार्टी को यदि बिखरने के बजाए आगे चलना है तो उसे गांधी परिवार के मोह से मुक्त होना ही पड़ेगा. 

हालांकि अब भी ऐसा होने जैसे हालात दिखाई नहीं देते. ज्यादा संभावना इसी बात की है कि कांग्रेस के बहुत सारे सुर एकसाथ यह कहेंगे कि पार्टी की हार सामूहिक ज़िम्मेदारी है और फिर से पूरी हार या मसले पर लीपापोती करके अध्यक्ष की माला फिर से उनके गले में ही डाल दी जाएगी. 

एक दूसरी हालत यह हो सकती है कि जिस प्रियंका वाड्रा में कुछ लोगों को इंदिरा गांधी की छवि दिखाई देती है अब उन्हें मोर्चे पर उतारा जाए. लेकिन इसकी संभावना बहुत थोड़ी है. क्योंकि सोनिया गांधी ही नहीं, उनकी पुत्री प्रियंका गांधी को भी सबसे ज्यादा फ़िक्र अपने भाई के करियर की ही है. और समय बीतने के साथ-साथ लगातार आगे बढ़ती गई यह फ़िक्र आज कांग्रेस को इस हालत में ले आई है. 

इसलिए लगातार मिलती नाकामियों से कम से कम अब तो कांग्रेस को चेत जाना चाहिए और यह आवाज़ गांधी परिवार से नहीं आनी चाहिए कि उनका नेता या अध्यक्ष कौन होगा, यह आवाज़ कांग्रेस के अंदर से ही उठनी चाहिए कि उनका अगला अध्यक्ष या नेता कौन होगा.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और विभिन्न अख़बारों में अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखते रहे हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)

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