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मलियाना नरसंहार के 34 साल : क्या कहते हैं चश्मदीद?

मलियाना के रहने वाले पत्रकार सलीम अख़्तर सिद्दीक़ी बताते हैं, 23 मई 1987 को लगभग दोपहर बारह बजे से पुलिस और पीएसी ने मलियाना की मुस्लिम आबादी को चारों ओर से घेरना शुरु किया. यह घेराबंदी लगभग ढाई बजे ख़त्म हुई. पूरे इलाक़े को घेरने के बाद कुछ पुलिस और पीएसी वालों ने घरों के दरवाज़ों पर दस्तक देनी शुरु कर दी. दरवाज़ा नहीं खुलने पर उन्हें तोड़ दिया गया. घरों में लूट और मारपीट शुरु कर दी. नौजवानों को पकड़कर एक खाली पड़े प्लॉट में लाकर बुरी तरह से मार-पीट कर ट्रकों में फेंकना शुरु कर दिया गया. पुलिस और पीएसी लगभग ढाई घंटे तक फायरिंग करती रही. दरअसल, पीएसी हाशिमपुरा की तर्ज पर ही मलियाना के मुस्लिम नौजवानों को कहीं और ले जाकर मारने की योजना पर काम रही थी, लेकिन वहीं पीएसी की फायरिंग से इतने ज़्यादा लोग मरे और घायल हुए कि पीएसी की योजना धरी रह गई. इस ढाई घंटे की फायरिंग में 73 लोग मारे गए और दर्जनों घायल हो गए और सौ से ज़्यादा घर जला दिए गए.

मलियाना दंगों से संबंधित जो मामला मेरठ सत्र न्यायालय में चल रहा है उसमें मुख्य शिकायतकर्ता याक़ूब अली हैं. याक़ूब बताते हैं, 23 मई 1987 के दिन जो नरसंहार मलियाना में हुआ था उसमें मुख्य भूमिका पीएसी की थी. शुरुआत पीएसी की गोलियों से ही हुई थी और दंगाइयों ने पीएसी की शरण में ही इस नरसंहार को अंजाम दिया था.

पेशे से ड्राइवर याक़ूब अली इन दंगों के वक़्त 25-26 साल के थे. उन्होंने ही इस मामले में एफआईआर दर्ज कराई थी. इसी रिपोर्ट के आधार पर पुलिस ने दंगों की जांच की और कुल 84 लोगों के ख़िलाफ़ आरोप पत्र दाख़िल किया. इस रिपोर्ट के अनुसार 23 मई 1987 के दिन स्थानीय हिंदू दंगाइयों ने मलियाना क़स्बे में रहने वाले मुस्लिम समुदाय के लोगों की हत्या की और उनके घर जला दिए थे.

लेकिन याक़ूब का कहना है कि उन्होंने यह रिपोर्ट कभी लिखवाई ही नहीं थी. वे बताते हैं, ‘घटना वाले दिन मुझे और मोहल्ले के कुछ अन्य लोगों को पीएसी ने लाठियों से बहुत पीटा. मेरे दोनों पैरों की हड्डियां और छाती की पसलियां तक टूट गई थी. इसके बाद सिविल पुलिस के लोग हमें थाने ले गए. अगले दिन सुबह पुलिस ने मुझसे कई कागज़ों पर दस्तख़त करवाए. मुझे बाद में पता चला कि यह एफ़आईआर थी जो मेरे नाम से दर्ज की गई.’ इस एफ़आईआर में कुल 93 लोगों के नाम आरोपित के तौर पर दर्ज किये गए थे.

याक़ूब कहते हैं, ‘ये सभी नाम पुलिस ने खुद ही दर्ज किये थे.’ याक़ूब की इस बात पर इसलिए भी यक़ीन किया जा सकता है क्योंकि इस रिपोर्ट में कुछ ऐसे लोगों के नाम भी आरोपित के रूप में लिखे गए थे, जिनकी मौत इस घटना से कई साल पहले ही हो चुकी थी. हालांकि याक़ूब यह भी मानते हैं कि इस रिपोर्ट में अधिकतर उन्हीं लोगों के नाम हैं जो सच में इन दंगों में शामिल थे. लेकिन एफ़आईआर में किसी भी पीएसी वाले के नाम को शामिल न करने को वे पुलिस की चाल बताते हैं.

वे कहते हैं, ‘मलियाना में जो हुआ उसमें किसी हिन्दू को एक खरोंच तक नहीं आई. वह एक सोची-समझी रणनीति के तहत किया गया नरसंहार था. इसमें मुख्य साज़िशकर्ता पीएसी के लोग थे और वे आरोपित तक नहीं बनाए गए.’

मलियाना में परचून की दुकान चलाने वाले मेहराज अली बताते हैं, ‘मेरे पिता की भी उस दंगे में मौत हुई थी. उस दिन वे पड़ोस के एक घर की छत पर थे. उनके गले में गोली लगी थी. यह गोली पीएसी वालों ने ही चलाई थी. स्थानीय लोगों के पास ऐसे हथियार नहीं थे जिनसे इतनी दूर गोली मारी जा सके.’

इस घटना के 23 साल बाद 23 मई 2010 को मलियाना के लोगों ने इस नरसंहार में मरने वालों की याद में एक कार्यक्रम किया था. इस कार्यक्रम में ज़्यादातर मृतकों के परिजन और नरसंहार में घायल हुए लोग शामिल हुए. सब के पास सुनाने के लिए कुछ न कुछ था.

मोहम्मद यामीन के वालिद अकबर को दंगाईयों ने पुलिस और पीएसी के सामने ही मार डाला था. नवाबुद्दीन ने उस हादसे में अपने वालिद अब्दुल रशीद और वालिदा इदो को पुलिस और पीएसी के संरक्षण में अपने सामने मरते देखा था.

आला पुलिस अधिकारियों के सामने ही दंगाईयों ने महमूद के परिवार के 6 लोगों को ज़िन्दा जला दिया. शकील सैफ़ी के वालिद यामीन सैफ़ी की तो लाश भी नहीं मिली थी. प्रशासन यामीन सैफ़ी को ‘लापता’ की श्रेणी में रखता है. आज भी उस मंज़र को याद करके लोगों की आंखें नम हो जाती हैं. जब कभी उस हादसे का ज़िक्र होता है तो लोग देर-देर तक अपनी बदक़िस्मती की कहानी सुनाते रहते हैं.

मलियाना निवासी वकील अहमद मेरठ में दर्जी का काम करते हैं. 1987 में हुए सांप्रदायिक दंगों में पहले तो मेरठ स्थित उनकी दुकान लूट ली गई और फिर मलियाना में हुए दंगों में उन्हें गोलियां लगीं. वकील अहमद इस मुक़दमे में अभियोजन पक्ष के पहले गवाह हैं.

वे कहते हैं, ‘मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि इस मामले में कभी भी न्याय नहीं होगा. मेरी आधी से ज़्यादा उम्र इस इन्तज़ार में बीत चुकी है और बाक़ी भी यूं ही बीत जाएगी.’

वकील अहमद की तरह ही रईस अहमद भी इन दंगों के एक पीड़ित हैं. दंगों में रईस को गोली लगी थी और उनके पिता की हत्या कर दी गई.

वे बताते हैं, ‘23 मई की सुबह मेरे अब्बू घर से निकले थे और फिर कभी वापस नहीं लौटे. हमें उनकी लाश तक नसीब नहीं हुई. सिर्फ़ यह ख़बर मिली कि पास में ही फाटक के पास उनकी हत्या कर दी गई थी.’ न्यायालय से अपनी नाउम्मीदी जताते हुए रईस कहते हैं, ‘न्यायालय के सामने यह मामला हमेशा ही अधूरा पेश हुआ था और इस अधूरे मामले की सुनवाई भी आज तक पूरी नहीं हो सकी. अब तो हम यह मान चुके हैं कि हमें कभी इंसाफ़ नहीं मिलेगा.’

मलियाना के पीड़ितों की इन टूटती उम्मीदों के कई कारण हैं. इनमें से कुछ इस मामले में चली न्यायिक प्रक्रिया को मोटे तौर पर देखने पर साफ़ हो जाते हैं. 1987 में हुए मलियाना दंगों की जांच मेरठ पुलिस ने लगभग एक साल में पूरी की थी. 23 जुलाई 1988 को पुलिस ने इस मामले में आरोप पत्र दाखिल किया. इस आरोप पत्र में कुल 84 लोगों को मुल्ज़िम बनाया गया था. इनका दोष साबित करने के लिए पुलिस ने 61 लोगों को अभियोजन पक्ष का गवाह बनाया. लेकिन बीते 34 साल में इनमें से सिर्फ़ तीन लोगों की ही गवाही हो सकी है. इनमें भी आख़िरी गवाही साल 2009 में हुई थी.

पिछले 34 वर्षों से मेरठ की एक सत्र अदालत में मलियाना मामले में मुक़दमा चल रहा है. याचिकाकर्ताओं के अनुसार, इस मामले में प्रमुख दस्तावेज़ एफ़आईआर ही ग़ायब हो गई है. कार्यवाही शुरू होने के बाद से 800 से अधिक तारीख़ें दी गई हैं. पिछली सुनवाई चार साल पहले हुई थी. मलियाना के मुसलमानों को लगता है कि उन्हें न्याय नहीं मिलेगा, जैसा कि हाशिमपुरा के पीड़ितों को 31 अक्टूबर 2018 को दिल्ली उच्च न्यायालय के एक फ़ैसले के द्वारा मिला था.

पीड़ितों के वकील नईम अख़्तर सिद्दीक़ी बताते हैं, ‘इस मामले की सुनवाई कर रहे न्यायाधीश ने लगभग दो साल पहले साल 2019 में एफ़आईआर की मूल कॉपी की मांग की थी. लेकिन यह एफ़आईआर रिकार्ड्स से ग़ायब है. इस कारण भी यह मामला रुका पड़ा है.’

मलियाना दंगों की सुनवाई आज पहले से भी ज़्यादा विकट हो चुकी है. मेरठ के ‘अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश-15’ की कोर्ट में चल रहे इस मामले की असल कार्रवाई अब तभी आगे बढ़ेगी जब कोई नया न्यायाधीश 34 साल पुराने इस मामले को शुरुआत से समझेगा. ग़ायब हो चुकी एफ़आईआर के बिना मामले को आगे बढ़ाने की रणनीति बनाएगा और अब तक हुई कार्रवाई के आधार पर आगे की कार्रवाई के आदेश देगा. यदि यह सब संभव हुआ तब भी मलियाना के पीड़ितों को कुछ हद तक ही न्याय मिल सकता है. इन पीड़ितों के साथ पूरा न्याय इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि आज तक कोर्ट के सामने मलियाना की पूरी हक़ीक़त कभी रखी ही नहीं गई.

मलियाना दंगों में पीएसी की भूमिका पर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं. साल 1988 में जब इस मामले में पुलिस द्वारा आरोप पत्र दाख़िल किया गया, उससे पहले भी स्थानीय अख़बारों में यह बात उठने लगी थी कि पीएसी ने स्थानीय दंगाइयों की मदद से ही मलियाना में यह ख़ूनी खेल खेला था. इसकी जांच के लिए अस्सी के दशक में ही एक जांच आयोग भी बनाया गया था. जस्टिस जी.एल. श्रीवास्तव की अध्यक्षता में बने इस आयोग की रिपोर्ट को आज तक सार्वजानिक नहीं किया गया है.

स्थानीय पत्रकार सलीम अख़्तर सिद्दीक़ी बताते हैं, ‘पुलिस ने जो जांच की, उसमें किसी भी पीएसी वाले को आरोपी नहीं बनाया गया. जबकि इस घटना में पीएसी ने ही मुख्य भूमिका निभाई थी. तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह ने तो पीएसी के एक कमांडर को इसी कारण निलंबित भी किया, लेकिन कुछ समय बाद ही यह निलंबन वापस ले लिया गया. ख़बर है कि श्रीवास्तव आयोग ने इस घटना के लिए पीएसी को ही दोषी पाया था लेकिन वह रिपोर्ट आजतक सार्वजानिक नहीं की गई.’

वकील नईम अख़्तर का कहना है कि ‘मेरठ की अदालत में जो मामला चल रहा है, उसमें यदि दोषियों को सज़ा हो भी जाए तो भी पीएसी के वे लोग कभी दंडित नहीं हो पाएंगे जो इस नरसंहार के असली गुनहगार होते हुए भी आरोपी नहीं बनाये गए. वैसे भी जिस धीमी गति से यह मामला अदालत में चल रहा है उस गति से तो आरोपितों का दंडित होना भी लगभग असंभव ही है.’

याक़ूब बताते हैं कि कई गवाह तो मेरठ से बाहर रहते हैं और पैसे की कमी के चलते सुनवाई के लिए कोर्ट भी नहीं आ पाते हैं. उनको यह भी लगता है कि अब इस केस का कुछ नहीं होना है.

वो कहते हैं, ‘बीते 34 साल में कई दोषी और कई गवाह तो मर भी चुके हैं. बाक़ी लोग भी मेरी तरह ही इन्तज़ार में हैं कि मौत पहले आती है या गवाही की बारी. न्याय का तो अब कोई इन्तज़ार भी नहीं करता.’

इन दंगों के पीड़ित अब न्याय की उम्मीद तक छोड़ चुके हैं. वैसे पूरे न्याय की उम्मीद उन्हें कभी थी भी नहीं. क्योंकि 23 मई 1987 को मलियाना में जो कुछ भी हुआ था, उसका पूरा सच कहीं दर्ज ही नहीं हुआ. शायद हुआ भी हो तो जांच आयोग की उन रिपोर्टों में जिन्हें आज तक सार्वजनिक ही नहीं किया गया.

यूं तो देश में ऐसे बहुत से नरसंहार हुए हैं, जिनमें सीधे-सीधे सरकारों का हाथ रहा है, लेकिन 23 मई 1987 को हुआ मलियाना नरसंहार ऐसा कलंक जो शायद कभी छुटाया नहीं जा सकेगा. इस कलंक का दर्द तब और बढ़ जाता है, जब नरसंहार के 34 साल भी पीड़ितों को न्याय तो दूर, दोषियों को बचाने की कोशिश की जाती है.

मलियाना के लोगों का यह भी लगता है कि सरकार ने मृतक के आश्रितों को मुआवज़ा राशि देने में भी भेदभाव से काम लिया. उनका कहना है कि उन्हें केवल 40-40 हज़ार रुपयों का मुआवज़ा दिया गया था, जो अपर्याप्त था. जबकि हाशिमपुरा के पीड़ित परिवारों को पांच-पांच लाख रुपया मुआवज़ा दिया गया.

पीड़ित परिवारों की मांग है कि उन्हें भी मुआवज़े की तरह उसी तरह का राहत पैकेज दिया जाए, जिस तरह से हाशिमपुरा के पीड़ितों को दिया गया है.

(क़ुरबान अली एक सीनियर पत्रकार हैं, जिनके पास सभी पारंपरिक मीडिया जैसे टीवी, रेडियो, प्रिंट और इंटरनेट में 35 से अधिक वर्षों का अनुभव है. क़ुरबान अली ने 1987 के मेरठ दंगों को तीन माह तक कवर किया था और वह कई घटनाओं के चश्मदीद गवाह थे.)

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