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क्या आज एएमयू अपने संस्थापक के नज़रिए से विपरीत दिशा में खड़ा है?

17 अक्टूबर 2024 को एएमयू और दुनिया भर में फैले उसके एल्युमिनाइयों ने दुनिया के लगभग सभी महत्वपूर्ण शहरों में सर सैयद अहमद ख़ान बहादुर की 207वीं वर्षगांठ मनाई. यह सुधारवादी बुद्धिजीवी मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज का संस्थापक है जो कि बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में विकसित हुआ. शायद ही किसी और सुधारवादी बुद्धिजीवी और संस्थापक को दुनिया भर में इतने बड़े पैमाने पर सालाना ख़िराज-ए अक़ीदत (श्रद्धांजलि) दी जाती हो.

उनके दृष्टिकोण में वैज्ञानिक चेतना, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और उदारवादी सोच के साथ-साथ भारतीय मूल्यों और धार्मिकता का मिश्रण था. उन्होंने चोटी के शिक्षक मुक़र्रर किए, तर्क पर ज़ोर दिया और अनुभव एवं प्रयोग द्वारा सिद्ध सबूतों को महत्व दिया. आवासीय एम.ए.ओ कॉलेज की स्थापना कर उन्होंने छात्रों को एक ऐसा मंच प्रदान किया जहां वह बिना इंडो-इस्लामी मूल्यों से समझौता किए आधुनिक विज्ञान एवं साहित्य भी पढ़ सकें.

कुछ ही दिनों में सुप्रीम कोर्ट एएमयू के अल्पसंख्यक (माइनॉरिटी) संस्थान की हैसियत पर फ़ैसला सुनाएगी. इस दौरान देखा जाए तो एएमयू में प्रशासनिक, वित्तीय एवं अकादमिक मोर्चों (शिक्षण एवं शोध) पर स्थिति बहुत अच्छी नहीं है. लगता है मानो कोई नाविक चक्रवात में फंसा हो.  सबसे बड़ा सवाल यह है कि अल्पसंख्यक दर्जा होते या ना होते हुए भी क्या एएमयू चंद लोगों की ही जागीर या बपौती रहेगी?

आज की प्राथमिकताएं

इस समय एक ज़रूरी सवाल यह है कि क्या यह सालाना जलसा इस बात की मांग नहीं करता कि हम आत्मनिरीक्षण करके जायज़ा लें कि यह जज़्बाती प्रशंसक अपने पूज्य संस्थापक के आदर्शों और उद्देश्यों पर कितने खरे उतर रहे हैं? इनमें से कितने लोग ख़ुद से यह सवाल कर रहे हैं कि आज सर सैयद की इस अविरत विरासत यानी सर्वाधिक फंड पाने वाली एएमयू का अकादमिक उत्पादन और योगदान क्या है? क्या इस ऐतिहासिक विश्वविद्यालय में सब कुछ ठीक है? क्या “परेशानियों में घिरी क़ौम” के उत्पीड़न की रूदाद वाक़ई आत्मनिरीक्षण के काम को टालना अभी भी बर्दाश्त कर सकती है?

सर सैयद की मृत्यु के एक साल बाद 1899 में साहिबज़ादा आफ़ताब अहमद ख़ान (1867-1930), (जो उस समय भूतपूर्व छात्र थे और आगे चलकर यूनिवर्सिटी के कुलपति बने) के नेतृत्व में ओल्ड बॉयज़ ऐसोसिएशन की स्थापना की गई. इसका उद्देश्य अनुदान इकट्ठा करना तथा एम.ए.ओ कॉलेज को विश्वविद्यालय में तब्दील करने के लिए अभियान करना था. एक सामुदायिक भोज का आयोजन किया गया जिसमें सभी ने अपनी तनख़्वाह का एक प्रतिशत हिस्सा इसी काम के लिए निकल कर रखने का प्रण लिया. दुर्भाग्यवश इस ख़ास सामुदायिक परोपकार की कोशिश को पूरी तरह भुला दिया गया है.

धार्मिक ग्रंथों, कर्म कांडों और रीति-रिवाजों की तार्किक व्याख्या तो सर सैयद रूढ़िवादियों के दबाव में आ कर खुद ही तज चुके थे. उन्हें डर था कि ऐसा न किया तो जो भी अनमना समर्थन मुस्लिम ज़मींदारो और संभ्रांतो से कॉलेज के लिए उन्हें मिल रहा है वो भी हाथ से जाएगा. इस व्यावहारिकता के साथ उन्होंने सबसे पहले अपना ध्यान अलीगढ़ में एक आवासीय कॉलेज खोलने पर केंद्रित किया. उनका ख़्याल था कि इसके बाद उनकी मोहम्मडन एजुकेशनल कॉन्फ्रेंस (AIMEC) (जिसकी स्थापना 1886 में हुई थी) इसी तरह का काम बर्रे-सगीर (भारतीय उपमहाद्वीप) के बाक़ी हिस्सों में करेगी. बावजूद इसके सर सैयद की प्राथमिकता रही कि वैज्ञानिक चेतना, तकनीकी और फ़लसफ़े के क्षेत्र में पश्चिम की ऊंचाइयों को अपनाना और उसका अनुसरण करना कॉलेज के पाठ्यक्रम में शामिल रहे. इस बात के लिए सर सैयद को मशहूर शायर ग़ालिब ने 1855 में राज़ी किया था, जब उन्होंने सर सैयद से मुग़ल काल को छोड़कर इस ओर ध्यान देने को कहा. यह घटना तब की है जब सर सैयद, अबुल फ़ज़ल की आइन-ए-अकबरी की टीका पर प्रस्तावना लिखवाने ग़ालिब के पास पहुंचे.

दुर्भाग्यवश आवासीय कॉलेजों का अनुसरण बाक़ी जगहों पर न हो सका. इसका कारण यह था कि AIMEC अपनी प्राथमिकताएं भूल कर सांप्रदायिक और अलगाववादी राजनीति करने वाली मुस्लिम लीग का अंग बन गई. AIMEC तीन उपलब्धियों के अलावा और कुछ न कर सकी. ये तीन उपलब्धियाँ थीं – गर्ल्स कॉलेज की स्थापना, एमएओ कॉलेज को यूनिवर्सिटी में तब्दील कराना और 1920 में जामिया की स्थापना. जामिया की स्थापना में एक ख़ास बात यह भी थी कि इसमें एएमयू का वह तबक़ा शामिल था जो मुत्तहिद राष्ट्रवाद की तरफ़ झुक चुका था और औपनिवेशिक सत्ता के ख़िलाफ़ हो चुका था.

औपनिवेशिक सत्ता के पसंदीदा और आदरणीय हीरो माने जाने वाले सर सैयद की कुछ मुद्दों जैसे जाति, लिंग, धर्म, भाषा और राष्ट्र पर अपनी सीमाएं थीं, लेकिन ये भी सच है कि इन मुद्दों पर ही दूसरी तरह की या बिल्कुल विपरीत राय भी हमें मिलती है, ख़ासकर सर सैयद के जीवन के आख़िरी सात सालों के लेखन में.

आज के एएमयू के ख़स्ता हालात

दक्षिणी और पश्चिमी भारत के मुसलमानों ने कई ऐजूकेशनल ट्रस्ट और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने वाले तालीमी इदारों का एक तवील सिलसिला क़ायम किया है जो आधुनिक और पेशेवर शिक्षा प्रदान करते हैं. इन मामलों में उत्तर और पूर्वी भारत के मुसलमान बहुत पीछे रह गए हैं. इसके उलट मुस्लिम अल्पसंख्यक संस्थानों में सामान्यतः और एएमयू में ख़ासकर यह देखने को मिलता है कि ऐसे इदारे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दे सकने में काफ़ी हद तक नाकाम रहे हैं और औसत दर्जे के लोगों को रोज़गार प्रदान करने का एक माध्यम बन गए हैं. अकादमिक विरोधी मूल्यों का प्रतिनिधित्व करते लोग फ़िरकापरस्त, स्थानीय और इलाक़ाई अंतरों को बढ़ावा देते हैं.  ये लोग जो बहुत भीतर तक घुस चुके हैं दीमक की तरह काम करते हैं.

यह दोनों लेखक एएमयू के अंदरूनी सदस्य हैं जिनके पास वहां लगभग 30 साल शोध और पठन-पाठन का अनुभव रहा है. औसत दर्जे वालों की मौज, भाई भतीजावाद और पसंद-नापसंद के विस्तृत सबूतों की दास्तान के तो कहने ही क्या जिनका दस्तावेज़ीकरण विभिन्न जांच कमेटियों जैसे इब्राहिम रहीम तुला रिपोर्ट 1927 प्रोफ़ेसर सीसी चटर्जी की एएमयू की आधिकारिक जांच रिपोर्ट 1961 जस्टिस मैथ्यू की 1997 की रिपोर्ट आदि ने किया है. इनब्रीडिंग (अपने अपनों को लेना) भाई-भतीजावाद, भर्ती में, नियमित परीक्षाओं में, प्रतिस्पर्धात्मक एंट्रेंस टेस्ट में, और वित्तीय मामलों में अपारदर्शिता और गड़बड़ी जो आज कल चल रही हैं उन्होंने नीचता की एक नई मिसाल क़ायम की है.

केन्द्र सरकार से फंड प्राप्त करने वाली बहुत सी ग़ैर-धार्मिक यूनिवर्सिटियों से इधर एएमयू के कई स्कूल हैं जो यूनिवर्सिटी के ख़ुद के प्रोफ़ेसर में से ही चुने हुए निर्देशकों द्वारा चलाए जाते हैं. कई वीसी आए और गए मगर निर्देशक रिवॉल्विंग फंड पर कुंडली मार के बैठ इसके स्कूल से इतर निजी स्वार्थों के लिए भी फंड के (दुर)उपयोग को देखता रहता है और अपनी कुर्सी से चिपका रहता है. साथ ही साथ वो वीसी दर वीसी के दौर में स्पेशल ड्यूटी पर तैनात अफ़सर या रजिस्ट्रार के पद पर रहते हुए और इसके अलावा एएमयू के डेवलपमेन्ट कमेटी में रहते हुए वित्तीय और प्रशासनिक मामलों में अपना दबदबा बनाए रखता है. लगातार बहुत सारे शिक्षकों और दूसरे स्टाफ को अस्थाई तौर पर भर्ती करने बाद वो सिलेक्शन बोर्ड में बैठ कर उन्हें स्थाई/दायमी कर देने में जुट जाता है. केंद्रीय विद्यालय संगठन के प्रावधान अपनाते हुए, एएमयू के ऐग्ज़िक्यूटिव काउंसिल ने जो अंदरूनी लोगों (जिसमें कार्यकारी, मनोनीत और चयनित सभी प्रकार के लोग शामिल हैं) के प्रभुत्व में चलता है, स्कूलों में भर्ती के लिए केंद्रीय विद्यालय संगठन के नियमों को पूरी तरह उलट दिया है (केवीएस में केवल 30% भार साक्षात्कार का और 70% लिखित परीक्षा का होता है). इसके विपरीत एएमयू के स्कूलों में 30% अंक लिखित परीक्षा के तथा 70% अंक सिलेक्शन बोर्ड के सामने दिए साक्षात्कार के होते हैं. इसी से इनके इरादे साफ़ ज़ाहिर होते हैं.

इस बात को देखते हुए कि एडमिशन में 50% सीट “अंदरूनी” बच्चों के लिए आरक्षित हैं, यह साफ़ हो जाता है कि इन्हीं स्कूलों से एएमयू को अपनी सबसे बड़ी पौध मिलती है. क्योंकि उन स्कूलों का प्रशासन स्थानीय, इलाक़ाई लॉबियों से चलता है लिहाज़ा इनकी भर्ती में होने वाली इन गड़बड़ियों का नतीजा ये निकलता है कि इससे एएमयू के अकादमिक उत्पादन पर बहुत बुरा असर पड़ता है. एएमयू कैंपस में हुड़दंग और उत्पात मचाने वालों में अच्छी-ख़ासी संख्या उन छात्रों की है जो एएमयू के स्कूलों से होने के कारण अंदरूनी छात्रों को मिलने वाले आरक्षण के माध्यम से उच्च-शिक्षा संबंधी कोर्सों में दाख़िला ले लेते हैं.

अन्य निर्देश भी अपने निर्धारित कार्यकाल में बार-बार इज़ाफ़ा करा कर अपने-अपने पदों पर ग़ैर-ज़रूरी तौर पर लंबे वक़्त से विराजमान हैं. प्रॉक्टर, जो कि ऐग्ज़िक्यूटिव काउंसिल का एक ख़ास ओहदेदार है, उसे भी कार्यकाल में लगातार विस्तार पर विस्तार मिले जा रहा है. क़ानून व्यवस्था को देखते हुए ऐसा मालूम होता है कि इन लोगों की सरपरस्ती में गुंडे-मवालियों के गिरोह हैं और उन गिरोहों की मदद से वीसी को भी धमकाया जा सकता है. बहुत से प्रधानाचार्यों को (जिनमें से कुछ ऐग्ज़िक्यूटिव काउंसिल के पूर्व सदस्य भी रहे हैं) अस्थाई तौर पर (ऐड-हॉक) नियुक्त किया जाता है.

यह तथ्य उनके कार्यकाल को लगातार बढ़ाए जाने के ख़िलाफ़ और भी मज़बूत दलील पेश करता है. इससे भी ज़्यादा ज़रूरी बात यह है कि अकादमिक तौर पर कमज़ोर प्रशासक की ताक़त और नैतिक बल का शरारती/अराजक और गंभीर दोनों ही प्रकार के छात्रों पर कोई असर नहीं पड़ेगा. वित्तीय गड़बड़ियां अपने चरम पर हैं. एक के बाद एक आए प्रोफ़ेसरों ने अपने प्रशासनिक कार्यकाल के दौरान ख़ूब सारे दिहाड़ी मज़दूरों की भर्तियां की. क्योंकि यह भर्तियां यूजीसी के भर्ती संबंधी नियमों और तरीक़ों का पालन नहीं करतीं, लिहाज़ा यूजीसी के नियम उनकी तनख़्वाह के लिए अनुदान देने पर रोक लगाते हैं. इसने एएमयू को एक गहरे आर्थिक संकट और ऊहापोह में धकेल दिया है. शैक्षणिक और गैर-शैक्षणिक स्टाफ़ की इस प्रकार की भर्तियों की एक विस्तृत जांच ज़रूर अनियमितताओं, पसंद-नापसंद (इलाक़ाई और पारिवारिक आधार पर) और भाई-भतीजावाद का भांडा फोड़ देगी.

परीक्षा एवं दाख़िला नियंत्रक (कंट्रोलर ऑफ एग्ज़ामिनेशंस एंड ऐडमिशंस) के वैधानिक पद पर 2018 से एक ही शिक्षक काबिज़ है. यह यूजीसी के नियमों का उल्लंघन है जो साफ़ कहते हैं कि हर पांच साल पर उपयुक्त विज्ञप्ति (इश्तेहार) देकर और चयन कमेटी के ज़रिए इस पद के लिए अधिकारी का चयन होगा. मज़ेदार बात यह है कि यही शिक्षक कंट्रोलर के स्पेशल ड्यूटी अफ़सर की हैसियत से दरअसल कंट्रोलर ही बना हुआ था. इसके साथ ही यह शिक्षक कई पीढ़ियों से अलीगढ़ का बाशिंदा (स्थानीय निवासी) है.

परीक्षा प्रणाली गड़बड़ियों से इस हद तक प्रभावित है कि जितना कहा जाए उतना कम है. कुछ वाक़िए ग़ौरतलब हैं. अगस्त 2021 में बी.टेक के एंट्रेंस एग़्ज़ाम में पेपर लीक हुआ, इसका ख़ुलासा करने के लिए पेपर को व्हाट्सऐप पर शिक्षकों के ग्रुप में भी शेयर किया गया. बीएससी इंडस्ट्रियल केमिस्ट्री की मई 2024 की परीक्षा में प्रश्न-पत्र बनाने में बहुत गड़बड़ियां हुई, लेकिन फिर भी परीक्षा को दूसरे सवालों की सूची के साथ दोबारा रखने पर ग़ौर नहीं किया गया. अनुचित तरीक़ों से परीक्षा-केंद्र से बाहर लिखी गई उत्तर-पुस्तिका को भी जांच कर उस छात्र को मार्कशीट और डिग्री दोनों प्रदान कर दी गईं. ये कुछ ऐसे वाक़िए हैं जिनमें परीक्षा-प्रणाली में गड़बड़ियां मसलन प्रश्न-पत्र बनाने और जांचने के स्तर पर और अनुचित तरीक़ों का इस्तेमाल आदि सामने आती हैं पर बावजूद इसके प्रशासन ने अपनी आंखें मूंद रखी हैं.

प्रभावशाली शिक्षकों द्वारा तैयार इस प्रकार की लॉबियां बहुत गहराई तक पहुंच रखती हैं और फ़ैसलों के स्तर पर इतनी भ्रष्ट शक्तियां हासिल कर चुकी हैं कि उनका इनब्रीडिंग (अंतः प्रजनन) का इरादा बुलंद होते-होते वीसी पैनल तक पहुंच गया. इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मनोनीत किए गए शिक्षकों में सभी अंदरूनी थे, एक भी बाहरी व्यक्ति इसमें शामिल नहीं था (एएमयू में अब तक बाक़ी यूनिवर्सिटियों की तरह वीसी के ओहदे के लिए कोई विज्ञप्ति देने का रिवाज नहीं है). 2017 से 2023 तक रहे नियमित वीसी भी अंदरूनी थे और कई पीढ़ियों से अलीगढ़ में ही रह रहे थे. अतः केंद्र सरकार के पास किसी बाहरी अकादमिक को वीसी बना पाने के लिए कोई ख़ास विकल्प मौजूद नहीं थे. अलीगढ़ में ही रिहायश रखने वाले वीसी इतनी हिम्मत ही नहीं जुटा पाते कि इन गिरोहों पर शिकंजा कस पाएं क्योंकि अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद भी उन्हें इन्हीं लोगों के बीच रहना है.

इसी वजह से यूजीसी और केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की तरफ़ से चेतावनी के बावजूद ऐसे अधिकारियों को हटाना या उनकी बदली करना लगभग नामुमकिन हो गया है.

नए दौलतमंद हुए मुसलमानों के मध्यम वर्ग और एनआरआई एल्युमिनाई हालात सुधारने में कारगर साबित नहीं हो रहे जबकि इस तबक़े का भी अमु कोर्ट की सदस्यता में हिस्सा है, जो कि उच्चतम शासकीय बॉडी है.

क्या यह सब इस बात की ओर इशारा करता है कि एएमयू के मामलों में दबदबा रखने वाला उत्तर भारत का मौक़ापरस्त मुस्लिम उच्च वर्ग सुधार के लिए राजी नहीं है और क़ौम के शैक्षणिक उद्धार के लिए ज़रूरी क़दम नहीं उठा रहा? सारा दोष सरकार, सत्तारूढ़ पार्टी और बहुसंख्यकवादियों (अक्सरियत) की मुसलमानों के लिए नफ़रत पर मढ़ना ठीक न होगा, हालांकि यह भी आज की डरावनी सच्चाइयां हैं इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता.

एएमयू के मुस्लिम बाहुल्य अकादमिकों और उसके प्रशासन में बैठे लोगों को भी अपने हिस्से की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए. उनकी जवाबदेही तय हो. अगर ऐतिहासिक रूप से जड़ें और दबदबा बनाए रखने वाले शिक्षक प्रशासकों से एएमयू को निजात दिलानी है और उपयुक्त परेशानियों का हल खोजना है तो फ़ैसले से इतर एएमयू के शासकीय ढाँचे में सुधार की बहुत ज़रूरत है.

इस तरह के दयनीय हालत देखते हुए एएमयू समुदाय के बहुत से लोगों का इस बात को लेकर हताश और निराश होना जायज़ है कि न मालूम अगले कुछ दिनों में सुप्रीम कोर्ट अपने निर्णय में एएमयू पर क्या फ़ैसला सुनाएगा. ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए कि अगर हमारा अल्पसंख्यक दर्जा बरक़रार रहता है तो हम ख़ुद को अभी तक जितने बेकार ढंग से शासित करते आए हैं अब ऐग्ज़िक्यूटिव काउंसिल में शामिल दबदबा रखने वाले अंदरूनी शिक्षकों के माध्यम से उससे भी ज़्यादा बुरे ढंग से शासित करेंगे. यदि सुप्रीम कोर्ट एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे के विरुद्ध फ़ैसला देता है तो शक्तिशाली एलीटों के पास दाख़िलों और भर्तियों के स्तर पर मात्र 40% पदों पर ही दबदबा रहेगा, लिहाज़ा वे अपना एकछत्र राज्य बनाए रखने के लिए और भी अधिक दुष्टतापूर्वक काम करेंगे. क्या ऐग्ज़िक्यूटिव काउंसिल में इंटरनल फ़ैकल्टी के कुछ सदस्यों की जगह विज़िटर या सरकार द्वारा मनोनीत सदस्य भले के लिए कुछ अंतर पैदा कर पाएंगे? इसमें काफ़ी संशय है लेकिन क्या किसी को चिंता है?

मोहम्मद सज्जाद एएमयू के इतिहास विभाग में और मोहम्मद सज्जाद अतहर एएमयू के भौतिक विज्ञान विभाग में प्रोफ़ेसर हैं. BeyondHeadlines के इस लेख को भावुक ने अनुवाद किया है.

क्या आज एएमयू अपने संस्थापक के नज़रिए से विपरीत दिशा में खड़ा है?
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