खौफ में बिहारः सुशासन गायब जिंदगी बेबस

Beyond Headlines
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Fahmina Hussain for BeyondHeadlines

तीन दिन पहले मैं अपने शहर डेहरी ऑन सोन आई हूं. दिल्ली में रहकर बिहार की जो तस्वीर हमें दिख रही थी वो सच्चाई से कोसों दूर लगी. वहां हमने जो बिहार के बारे में पढ़ा-सुना और देखा था, सब प्लांटेड खबरों जैसा लगने लगा. वापस बिहार आने के बाद ही अहसास हुआ कि स्थिति कितनी गंभीर है.  डिस्पले बोर्ड में शाइनिंग बिहार भले ही दिख रहा हो लेकिन लोगों की सोच आज भी पुरानी है. सच पूछिए तो ब्रमहेश्वर मुखिया की हत्या ने बिहार को फिर से नरसंहार व आतंक के साये में धकेल दिया है. भय से गांव, शहर, गली सभी कांप रहे हैं. नीतिश के आने के बाद ऐसा लगा था कि शायद ये सब कुछ खत्म हो चुका है, लेकिन बंदूकराज की भयावह हकीकत एक बार फिर सामने आ गई है.

बिहार की पुरानी राहें खास तौर से 1970 से 2000 के बीच नरसंहार, जातीय, गोला-बंदी, आपसी दुश्मनी से गुजरी है. गांव के गांव मौत की नींद सुलाने वालों का राज था. बिहार के जीवन के अंधकार के वो दिन आज भी सिहरन पैदा करते हैं. आतंक गरीबी और पिछड़ेपन का नतीजा था. 1970 से 2000 के दैरीव बिहार की विकास दर मुश्किल से दो प्रतिशत रही.  इसी दौर में बिहार ने अपनी पहचान सबसे पिछड़े राज्य के रूप में बनाई.

नीतिश के सत्ता में आने के बाद यह सबकुछ अचानक गायब हो गया और मीडिया के कैमरे और संपादकों के कलम को हर ओर सिर्फ विकास ही विकास नज़र आने लगा.  ऐसा लग रहा था कि किसी ने कोई जादू की छड़ी घुमा दी है, और सारी समस्याएं छू-मंतर हो गई हैं. लेकिन अब लोगों से इस जादू की खुमारी उतर रही है, विकास के झूठे दावों की परतें खुल रही है. सच पूछे तो यहां आकर पता चला कि दरअसल आधारभूत संरचना में कोई बदलाव नहीं हुआ है.

बिहार कृषि पर निर्भर रहने वाली राज्य है, यहां की 90 प्रतिशत आबादी इसी पर निर्भर रहती है. पर अफसोस, नीतिश के सरकार में कृषि के लिए कुछ नहीं हुआ. सिर्फ कागजों में ही इनके लिए काम दिखाया जाता रहा, और हकीकत में बेचारे किसान ठगे जाते रहे. न रोजगार के अवसर बढ़े हैं न किसानों की हालत सुधरी है. किसान आज भी परेशान हैं और मज़दूर पलायन कर रहे हैं. हां, ये अलग बात है कि शहरों में दिखावे के लिए थोड़ी-बहुत सड़कें बन गई हैं. बस शहरों का यही विकास लोगों को दिखने लगा है. गांवों से लोग शहर आने लगे हैं. ब्लैक मार्केटिंग बढ़ी है. इसी कारण आम जनता को फायदा नहीं होने के बावजूद विकास के आकड़े बढ़े हुए दिखते हैं.

अर्थशास्त्रियों की माने तो ये गलत किस्म का विकास है. दिल्ली शहर में रहकर विकास की कहानी सुनकर काफी खुशी होती है. लेकिन आम जनता के मुंह से बयां होने वाली हकीकत मीडिया के चश्मे को उतार देती है. नंगी आंखों से जो सच दिखता है वो भयावह है. जो मोबाइल जनता है, शहर की जनता है, फेसबुक की जनता है, जो बिहार से बाहर रहते हैं वो ही नीतिश के विकास का प्रचार करते हैं.

लेकिन गांवों के लोग, बिहार की आत्मा, जो कहानी आपको सुनाती हो वो सच से कोसों परे है. मीडिया के कैमरों से दूर रहने वाले लोगों से बात करके पता चलता है कि ये झूठा विकास आगे के लिए बिहार के लिए काफी नुकसानदेह है. आंकड़े बताते हैं कि बिहार में अपराध में भी बढ़ोतरी हुई है. अपहरण और बलात्कार की घटनाएँ ज़्यादा हो रही हैं. ख़ासकर हत्याओं का सिलसिला काफ़ी तेज़ हो गया है. पिछले एक साल में लगभग चार हज़ार लोगों की हत्या हो जाने के आंकड़े तो सरकारी खाते में दर्ज हैं. ग़ैर-सरकारी आंकड़ों इससे कहीं अधिक है.

एक सच्चाई जो लोगों को नहीं दिखाई जाती वो यह भी है कि नीतीश कुमार ने जब सत्ता संभाली थी, उससे पहले के पांच सालों में कुल संज्ञेय अपराध की संख्या 5 लाख 15 हज़ार 289 थी, जो नीतीश राज के पांच सालों में बढकर 7 लाख 78 हज़ार 315 हो गई. इसी तरह अपहरण की कुल संख्या भी 10 हज़ार 365 से बढकर, 18 हज़ार 83 तक जा पहुँची. ये सरकार के आंकड़े हैं, विपक्षी पार्टी के आरोप नहीं. ऐसे में ये सवाल उठना स्वाभाविक है कि मौजूदा मुख्यमंत्री के ‘अमन-चैन’ वाले बहुप्रचारित दावे की विश्वसनीयता क्या है? खैर, बातें बहुत सारी हैं. पुलिस का जुल्म लगातार आम लोगों पर तो बढ़ता ही जा रहा है, पर हत्यारों की हत्या के बाद नीतिश कुमार की यही पुलिस डरी-सहमी नज़र आ रही है. फारबिसगंज में तो इन्हें गोली चलाने में शर्म नहीं आई, पर जब सारा शहर जल रहा हो तो उन्हें सांप सूंघ गया है. मुद्दे बहुत हैं और इनका अहसास दिल्ली या दूसरे शहर में रहने बिहार के लोगों को शायद ही हो.

ब्रमहेश्वर मुखिया की हत्या के बाद बिहार की हवा में फिर हिंसा घुल गई. उससे भी हैरानी की बात यह है कि विपक्षी राजनीतिक दलों के लोग भी इस घटना के बाद वोट-बैंक के लिए बहुत नाप-तौल कर बयान दे रहे हैं. दुसरी तरफ मुखिया के समर्थकों का उत्पात जारी है. सड़क पर खोमचे लगाने वाले गरीब लोगों को भी नहीं बख्शा जा रहा है. उनके ठेले को तोड़ा-फोड़ा जा रहा है.

कहीं बसों में आग लगायी जा रही है, तो कहीं ऑटो और बस का शीशा फोड़ते हुए मुखिया समर्थक नज़र आ रहे हैं. इन समर्थकों से मीडिया वाले भी नहीं बच पाये. कई इलेक्ट्रोनिक मीडिया पत्रकारों के कैमरे तोड़े गए, कई को मारा-पीटा भी गया. पर अफसोस ज़्यादातर खबरें दबाने की ही कोशिश हमारी इसी मीड़िया ने की. सारे घटनाक्रम के दौरान सबसे बड़ी  हैरानी की बात यह है कि ‘सुशासन’ की पुलिस, और बिहार में कानून व्यवस्था के दुरूस्त होने का दावा करने वाली सरकार कहीं नजर नहीं आयी. लोग पिटते रहे और पुलिस मुकदर्शक बनी रही.

ये समय पूरे बिहार के लिए धर्म, जाति और उभरते युवा वर्ग के लिए सावधान रहने का समय है. कुछ लोगों को भले ही इससे लाभ हो, पर पूरे राज्य का नुक़सान हो रहा है. बिहार को फिर से अंधकार में ले जाने की जो गंदी चाल चली जा रही है उससे जनता की एकता ही नाकाम कर सकती है. और नीतिश सरकार के लिए तो अब यह तय है कि उसे अगले चुनाव अग्नी-परीक्षा से गुजरना होगा  क्योंकि लोगों को आपकी सरकार का असली चेहरा नज़र आ गया है.

(लेखिका दिल्ली में जर्नलिज्म की स्टूडेंट हैं.)

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