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Reading: बटला हाउस हत्या के चार वर्ष: न्याय कब मिलेगा?
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BeyondHeadlines > Latest News > बटला हाउस हत्या के चार वर्ष: न्याय कब मिलेगा?
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बटला हाउस हत्या के चार वर्ष: न्याय कब मिलेगा?

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published September 19, 2012
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8 Min Read
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Nehal Sagheer for BeyondHeadlines

आज से चार साल पहले हत्या पुलिस द्वारा हुआ. इस हत्या को एनकाउंटर का नाम दिया गया, जिसमें दो मासूम मुस्लिम युवकों को इंडियन मुजाहिदीन (यह नाम आईबी पुलिस का ही दिया हुआ है, आज तक उसकी स्वतंत्र सूत्रों से पुष्टि नहीं हो पाई है. सामाजिक न्याय के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं का तो कहना है कि इंडियन मुजाहिदीन के नाम से जो भी ईमेल या फैक्स समाचार चैनलों को जारी किया जाता है वह सब आईबी के ही द्वारा भेजा जाता है.) का सदस्य और दिल्ली धमाके का मास्टर माइंड बनाकर पेश किया गया.

जिस तरह कुत्ता को मारने से पहले यह प्रसिद्ध करना आवश्यक माना जाता है कि यह कुत्ता पागल था, अगर उसे नहीं मारा जाता तो यह नुक़सान पहुँचा सकता था. उसी तरह अब पुलिस और आईबी का यह आम फैशन बन गया है कि मुस्लिम युवाओं को फर्जी मामलों में संलिप्त करो और फिर उन्हें बिना मुक़दमा चलाए वर्षों जेल की सलाख़ों के पीछे रखो, ताकि जीवन के बहुमूल्य दिन जेल की दीवारों के अंधेरे में गुम होकर रह जाएं. इस भी बेहतर तरीका हमारी पुलिस खुफिया एजेंसी के लिए चुपचाप चोर और डकैतों की तरह किसी को भी कहीं से अपहरण कर लिया जाए और सुबह सवेरे या रात के अंधेरे में उसे एन्काउन्टर में मार कर प्रसिद्ध कर दिया जाए कि यह आतंकवादी फलां समूह का सदस्य था और कई धमाकों का मास्टर माइंड….

पुलिस की इस ज़ालिमाना कार्रवाई की पुष्टि सुप्रीम कोर्ट से लेकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तक ने दी. गृहमंत्री के बयान को तो यहाँ बयान करना समय की बर्बादी के सिवा कुछ भी नहीं. उनके पास बटला हाउस हत्या को एनकाउंटर कहने का बस यही एक कारण काफी है कि इसमें दिल्ली पुलिस का एक इंस्पेक्टर भी घायल हो गया था जिसकी मौत होली फैमली अस्पताल में संदिग्ध हालत में हो गई. पुलिस इंस्पेक्टर की मौत को संदिग्ध मानने का आधार है मेरे पास और वो यह है कि जिस तरह से घायल हालत में उन्हें अस्पताल ले जाया जा रहा था, वैसे किसी व्यक्ति को नहीं ले जाया जा सकता जो गंभीर रूप से घायल हो.

अगर सुप्रीम कोर्ट सहित मानवाधिकार आयोग और गृह मंत्रालय की दलील को मान भी लिया जाए कि इंस्पेक्टर की मौत से इस हत्या का एनकाउंटर होना साबित होता है, तब भी कम से कम इसी बात की जांच ज़रूरी है कि पुलिस इंस्पेक्टर की मौत के क्या कारण थे. लेकिन सरकार ने चौथाई आबादी के संदेह को दूर करने की कोशिश ही नहीं की, बल्कि इस पूरे मामले पर पर्दा डालने की कोशिश ही लगातार होती आ रही है.

कोशिश इसलिये कि उनकी हर तरह की धौंस और धांधली के बावजूद मुसलमानों सहित न्याय प्रिय लोगों ने इस मांग से मुंह नहीं मोड़ा है और न ही न्याय पाने में होने वाली समस्याओं से निराश हुए हैं.

आख़िर क्या वजह है कि गृह मंत्रालय सहित सभी बटला हाउस हत्या की जाँच से इनकार कर रहे हैं. आखिर इस सच्चाई को साबित करने में भला क्या तक़लीफ है अगर वह सही है.

ऐसे मौकों पर अगर कोई यह कहता है कि यहां दो तरह का कानून लागू है तो उस पर विश्वास करने को जी चाहता है. आखिर कब तक सरकार चौथाई आबादी की भावनाओं से खिलवाड़ करेगी और कब तक इसे नज़रअंदाज करेगी? क्या ऐसा करना देश के हित में होगा? क्या चौथाई आबादी की असंतोष और अविश्वास देश को एकजुट रख सकता है?

3 नवम्बर 2002… दिल्ली के अंसल प्लाजा में एसीपी राजवीर के नेतृत्व में दो कश्मीरी युवकों को प्वाईंट जीरो से गोली मारकर हत्या कर दी गई और एन्काउन्टर का नाम दे दिया गया. इस एंकाउंटर के चश्मदीद गवाह डॉ. श्री कृष्णा ने युवाओं के बारे में कहा कि जिस समय अंसल प्लाजा के बेसमेन्ट के पार्किंग एरिया में लाया गया था बहैसियत डॉक्टर मैं पूरी गांरटी से कह सकता हूं कि या तो नशा का इंजेक्शन दिया गया था या फिर कई दिनों से उन्हें सोने नहीं दिया गया. बाद में कई दिनों तक यह ख़बर गश्त करती रही कि डॉक्टर कृष्णा को दिल्ली पुलिस डरा-धमका कर सच्चाई बयान करने से रोक रही है. फिर यह ख़बर आई कि डॉक्टर कृष्णा लापता हैं. इसके बाद पता नहीं कि डॉक्टर का क्या हुआ?

जनता तो अपने मुद्दों में ही इतना घिरी हुई है कि उन्हें हर घटना को किस्सा समझ कर भूलना ही पड़ता है. सुशील कुमार शिन्दे के मुताबिक भी पब्लिक कुछ दिनों के बाद सब भूल जाएगी, जिस तरह बोफोर्स को लोग भूल गए.

कुछ घटनाओं में तो मामला कोर्ट तक जाता है. और 10-15 सालों के बाद फैसला भी आता है. लेकिन प्रथम तो इस तरह के उदाहरण बहुत कम हैं. द्वितीय आमतौर पर अदालत में उसे साबित कर पाना एक मुश्किल काम है. इस संबंध में वर्तमान समय में फर्जी एनकाउंटर की दो घटनाएं नज़रों के सामने हैं. जिसमें अदालत द्वारा दोषी पुलिस वालों को सज़ा सुनाई गई है.

इसमें से एक दिल्ली का है जब एक व्यापारी को डाकू बताकर हत्या कर दी गई. यह शर्मनाक घटना ठीक नई दिल्ली के बीचो-बीच कनॉट प्लेस में 31 मार्च 1997 को एसीपी एस.एस.राठी के नेतृत्व में हुआ. दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट ने दस पुलिसकर्मियों को गुनाहगार मानते हुए सजा सुनाई.

इसी तरह उत्तर प्रदेश का भी एक घटना है, जिसमें 17 पुलिस वालों को सज़ा सुनाई गई. गुजरात के कई एनकाउंटर विशेषज्ञ अभी जेलों में बंद हैं, और अपने अंजाम तक पहुँचने का इंतजार कर रहे हैं.

आमतौर पर पुलिस वालों के समर्थन में जो शब्द इस्तेमाल किया जाता है वह यह है कि अगर उनके खिलाफ कार्रवाई की गई तो उनका मोराल डाउन होगा. यह मेरे विचार में सबसे पहले इंदिरा गांधी ने मुरादाबाद ईदगाह में हुई पुलिस फायरिंग पर कार्रवाई की मांग में कहा था कि इससे पुलिस का मोराल डाउन होगा.

जिन दो घटनाओं का उल्लेख किया गया है. इसमें से कोई भी मुसलमानों के एनकाउंटर से संबंधित नहीं है. एक का संबंध दिल्ली के व्यावसायिक प्रदीप गोयल और जगजीत सिंह से है जबकि दूसरा उत्तरप्रदेश की घटना जयून्दर सिंह जसना का है, जिसे सिख आतंकवादी बताकर फर्जी एनकाउंटर में मारा गया था.

गुजरात और राजस्थान के कई आईपीएस अधिकारियों पर अभी मुक़दमा शुरू नहीं हुआ है, जो कि सोहराबुद्दीन सहित कई लोगों के फर्जी एनकाउंटर में शामिल हैं. समस्या यह है कि मुसलमानों को आईएसआई, लश्कर, हूजी, इंडियन मुजाहिदीन जैसे नामों के साथ जोड़ दिया जाता है, जिससे एंकाउंटर के नाम पर हत्या करने वालों का काम आसान हो जाता है. सीमा मुस्तफ़ा के अनुसार किसी को पाकिस्तानी कह कर हत्या कर देना आसान हो गया. यह उन्होंने अंसल प्लाजा एनकाउंटर पर एक लेख में लिखा था….

TAGGED:Batla House EncounterMamta Banarjeeबटला हाउस हत्या के चार वर्ष: न्याय कब मिलेगा?
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