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Reading: आरटीआई से जुड़ा एक उर्दू सहाफ़ी का अनुभव…
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BeyondHeadlines > Latest News > आरटीआई से जुड़ा एक उर्दू सहाफ़ी का अनुभव…
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आरटीआई से जुड़ा एक उर्दू सहाफ़ी का अनुभव…

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published October 14, 2012
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10 Min Read
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Mirza Ghani Baig for BeyondHeadlines

अगस्त 2008 में मैंने ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम (GHMC) में इस्तेमाल होने वाले वाहनों का विवरण आरटीआई दाख़िल कर मांगी थी. उर्दू में दिए गए आवेदन का जीएचएमसी ने अंग्रेजी में जवाब दिया. इस मामले में मैंने सूचना आयोग का रुख नहीं क्या. क्योंकि अंग्रेजी में ही सही, सूचना हासिल कर मुझे खुशी हुई थी.

दिसम्बर 2008 में मुख्य सूचना आयुक्त वज़ाहत हबीबुल्लाह से एक प्रेस कांफ्रेस में मुलाकात का मौका मिला. इस प्रेस कांफ्रेस में छोटी सी मुलाक़ात के दौरान मैं वज़ाहत हबीबुल्लाह से जानना चाहा कि उर्दू भाषा में दाखिल की गई आरटीआई का जवाब अंग्रेजी में दिया जा सकता है क्या? जवाब में  वज़ाहत हबीबुल्लाह ने कहा कि किसी भी सरकारी भाषा में आरटीआई के तहत आवेदन दाखिल किया जा सकता है और उन्हें उसी भाषा में जानकारी प्राप्त करने का अधिकार हासिल है.

इस के बाद 18 जनवरी 2008 को मैंने जिला कलेक्टर हैदराबाद को आरटीआई के तहत एक आवेदन दिया. इस आरटीआई द्वारा मैंने  उर्दू व तेलगू मीडियम के सरकारी स्कूल के बारे में विवरण मांगा था. जिला कलेक्टर ने जिला शिक्षा अधिकारी को सूचना देने का निर्देश दिया. लेकिन जिला शिक्षा अधिकारी ने उर्दू भाषा में दिए गए आरटीआई का जवाब देना ज़रूरी नहीं समझा.

एक महीने बाद मैंने पहली अपील की. लेकिन मेरी पहली अपील का जवाब नहीं मिला. जिसके बाद 24 मार्च 2008 को मैंने आंध्र प्रदेश सूचना आयोग को अपनी द्वितीय अपील दर्ज कराई. उसके बाद एक मई 2008 को आंध्र प्रदेश सूचना आयोग ने जिला शिक्षा अधिकारी, हैदराबाद और मुझको नोटिस जारी करते हुए 15 मई को आयोग के समक्ष पेश होने का निर्देश दिया. जिसके बाद शिक्षा विभाग के अधिकारी हरकत में आ गए. 6 मई के दिन मुझे 28 अप्रैल का लिखा पत्र रवाना करते हुए शिक्षा विभाग ने कहा कि मेरी आरटीआई का जवाब अंग्रेजी में दिया जाएगा. अगर मुझे उर्दू भाषा में सूचना चाहिए तो मुझे अंग्रेजी से उर्दू अनुवाद पर होने वाले खर्च यानी 1800 रुपये चुकाने होंगे. मैंने शिक्षा विभाग के इस पत्र का जवाब नहीं दिया. बल्कि सूचना आयोग के सुनवाई का इंतजार किया.

15 मई को राज्य सूचना आयोग ने मेरे मामले की सुनवाई की. आयोग ने मुझसे सवाल किया कि मुझे उर्दू भाषा में जानकारी क्यों चाहिए? जिस पर मैंने जवाब दिया कि उर्दू मध्यम से ग्रेजुएशन कर रहा हूं और उर्दू अख़बार का रिपोर्टर हूं. अंग्रेजी में सूचना प्राप्त करके मैं  सूचना का उपयोग नहीं कर सकता. मेरे इस बात पर आयोग ने जिला शिक्षा अधिकारी को फटकार लगाई और 25 मई 2008 तक मुझे उर्दू भाषा में सूचना उपलब्ध  कराने का निर्देश दिया. जिसके बाद शिक्षा विभाग के अधिकारियों ने 25 मई को शाम 4 बजकर 50 मिनट पर रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा, हैदराबाद के दफ़्तर में मुझसे मुलाकात की. और समस्त सूचना मुझे उर्दू भाषा में उपलब्ध कराई. जिसके बाद मैंने इस सूचना को किस्त-वार रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित कराया.

17 अगस्त 2010 को मैंने आंध्र-प्रदेश राज्य वक्फ बोर्ड में आरटीआई के तहत उर्दू भाषा मों एक आरटीआई दाखिल कर वक्फ बोर्ड के भवनों से संबंधित सूचना मांगा कि वक्फ बोर्ड की हैदराबाद और रंगारीडी जिलों में कितनी इमारतें हैं? इन इमारतों से कितनी आमदनी बोर्ड को प्राप्त होती है? इमारतों से प्राप्त आमदनी कहां खर्च किया जाता है? आदि-अनादि…

लेकिन वक्फ बोर्ड ने मुझे कोई सूचना नहीं दिया. 25 सितंबर 2010 को मैंने पहली अपील कर दी. अपील के बाद आंध्र प्रदेश वक्फ बोर्ड ने 8 अक्तूबर 2010 को मुझे एक पत्र भेज कर सूचित किया कि मेरी उर्दू अनुरोध को अस्पष्ट क़रार देते हुए खारिज किया जाता है. इसके बाद मैंने 18 अक्तूबर को आंध्र प्रदेश सूचना आयोग में दूसरी अपील दाखिल की. जिस पर आयोग ने दो वर्ष बाद 6 अगस्त को 2012 को सुनवाई की. सुनवाई के बाद आयोग ने आंध्र प्रदेश वक्फ बोर्ड को निर्देश दिया कि आवेदक को दस दिनों के भीतर जवाब दिया जाए और आवेदक को मुआवजा भी अदा किया जाए. लेकिन वक्फ बोर्ड को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा.

आयोग ने फिर से वक्फ बोर्ड को नोटिस जारी करके  बोर्ड के अधिकारियों को 7 सितम्बर को आयोग  के समक्ष हाज़िर होने का निर्देश दिया. लेकिन बोर्ड के अधिकारी 7 सितम्बर को आयोग के समक्ष उपस्थित नहीं हुएं. जिसके बाद आयोग ने सुनवाई को 5 अक्टूबर 2012 तक स्थगित कर दिया.

4 अक्टूबर 2012 को यानी सुनवाई से एक दिन पहले आंध्र प्रदेश राज्य वक्फ बोर्ड के अधिकारियों ने मुझे जानकारी का एक नाटक रचा. वक्फ बोर्ड के अधिकारियों ने 5 पृष्ठों का दस्तावेज मुझे उपलब्ध कराया. इन दस्तावेजों में मेरे प्रश्न के जवाब में बताया कि आंध्र प्रदेश वक्फ बोर्ड के पास हैदराबाद और रंगारीडी में मौजूद वक्फ इमारतों की जानकारी वक्फ बोर्ड के सर्वेक्षण रिकॉर्ड में उपलब्ध नहीं है. इसलिए सूचना देने में आंध्र प्रदेश वक्फ बोर्ड असमर्थ है. साथ ही जन सूचना अधिकारी ने यह भी बताया कि मैंने जो सूचना मांगी है, वह विभिन्न क्षेत्रों से मांगी गई है और अपने ही विभिन्न क्षेत्रों से जानने के लिए आंध्र प्रदेश वक्फ बोर्ड को 2 साल से अधिक समय लग गया. दरअसल, यह मुझे गुमराह करने की कोशिश है.

इसके बाद 5 अक्टूबर 2012 को मैंने आंध्र प्रदेश सूचना आयोग में एक और अपील दायर की. इस अपील में कहा कि आंध्र प्रदेश वक्फ बोर्ड अधूरी सूचना उपलब्ध करा कर आंध्र प्रदेश सूचना आयोग और आवेदक दोनों को गुमराह करने की कोशिश कर रहा है. लेकिन अफसोस! सूचना आयोग ने अब तक मेरी इस अपील पर सुनवाई की तारिख तय नहीं की है.

वक्फ बोर्ड के इस मामले पर 9 सितम्बर और 7 अक्टूबर 2012 को दो बार टाइम्स ऑफ इंडिया, हैदराबाद में रिपोर्ट प्रकाशित हुई है. इसके अलावा रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा हैदराबाद में भी उन्हें दो तारीखों में रिपोर्ट प्रकाशित हुई है. 16 सितम्बर 2012 को रोज़नामा एतमाद संडे संस्करण में एक लेख भी प्रकाशित किया गया है, जिनमें मेरी इन प्रयासों का अच्छा वर्णन है.

बहरहाल, आरटीआई कानून को पारित हुए 7 साल हो गए हैं और मैं 4 साल से आरटीआई कानून का प्रयोग करता आ रहा हूं. लेकिन मेरा व्यक्तिगत विचार है कि आंध्र प्रदेश सूचना आयोग सुनवाई के दौरान सरकारी विभागों और अधिकारियों की तरफदारी करता है. यही नहीं,  सरकार ने लगभग दो साल तक सूचना आयुक्त के पदों को खाली रखा. लेकिन दो साल बाद 4 कमिश्नरों की नियुक्ति की गई है. सूचना आयोग ने 7 सालों में जानकारी देने से परहेज करने वाले अधिकारियों के खिलाफ केवल कारण बताओ नोटिसें ही जारी की हैं जुर्माने शायद ही किसी अधिकारी पर लगाया है.

अगर आयोग अधिकारियों और सरकारी विभागों से सख्ती से पेश आए और अनुशासनात्मक कार्रवाई करे तो आरटीआई कानून और भी प्रभावी हो सकता है. यह कितना अजीब है  कि आरटीआई के एक आवेदन दाखिल करने के दो वर्ष बाद भी मुझे अब तक मांगी गई सूचना उपलब्ध नहीं हो सकी है और आयोग न तो सूचना दिलवा पा रही है और न ही इन दोषी अधिकारियों पर जुर्माना.

आयोग के पास दोषी सरकारी अधिकारियों के खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट जारी करने का भी अधिकार दिया जाना चाहिए, क्योंकि सूचना आयोग की नोटिसें प्राप्त होना और आरटीआई का जवाब न देना, सरकारी अधिकारियों की आदत बन चुकी है. दूसरी ओर आरटीआई कार्यकर्ताओं की सुरक्षा के लिए भी क़दम उठाए जाने चाहिए. क्योंकि विभिन्न विभागों में हो रहे भ्रष्टाचार दरअसल राजनीतिक लीडरों की नेतृत्व के बाद ही संभव हो पाता है और भ्रष्टाचार से प्राप्त की गई रिश्वत कई लोगों में विभाजित होती है. इसलिए रिश्वत से सहायता लेने वाले भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करने वाले आरटीआई कार्यकर्ताओं को निशाना बनाने से बाज नहीं आते हैं. आरटीआई कार्यकर्ता सिर्फ अकेला और मुक़ाबले में कई भ्रष्ट लोगों खड़े नज़र आते हैं. इसलिए आरटीआई कार्यकर्ताओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सरकार को क़दम उठाने चाहिए ताकि आरटीआई कानून के उपयोग से भ्रष्टाचार उन्मूलन को संभव बनाया जा सके.

(लेखक ई-टीवी उर्दू, हैदराबाद में पत्रकार हैं.)

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