कंपनियों से पैसे लेकर दवा लिखते हैं डॉक्टर

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Vijay Pathak for BeyondHeadlines

डॉक्टरों को भगवान का दर्जा दिया गया है. यह सच है. कई डॉक्टरों ने कई मौकों पर यह साबित किया भी है, कर भी रहे हैं. हम भी डॉक्टरों को इसी नजरिये से देखते हैं. उनके प्रति पूरी निष्ठा और आस्था रखते हैं. पर जिस तरीके से राजनीति में गिरावट आयी है, पत्रकारिता में गिरावट आयी है, यह पेशा भी इससे अछूता नहीं है. कुछ डॉक्टरों ने अपने इस पवित्र पेशे को धंधा बना दिया है. कहते हैं, धंधे में कुछ न कुछ उसूल तो होते हैं, पर इन डॉक्टरों के लिए ऐसा कुछ भी नहीं. डॉक्टरों को अपना पेशा शुरू करने से पहले हिप्पोक्रेटिक ओथ (एक तरह की शपथ) लेनी पड़ती है. पर ये डॉक्टर पैसों के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं.

हम यहां यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि सभी डॉक्टर ऐसे नहीं हैं. अधिकतर डॉक्टर अपनी जिम्मेदारी का बेहतर निर्वहन कर रहे हैं. हम इन डॉक्टरों के प्रति पूरी निष्ठा रखते हैं और इनका आदर करता है. हम यह भी स्पष्ट करना चाहते हैं कि हमारा मक़सद किसी पर दोषारोपण करना नहीं, बल्कि व्यवस्था कैसे सुधरे, इस पर जोर देना है. डॉक्टरों पर नज़र रखने के लिए मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया है. डॉक्टरों का संगठन आइएमए भी है. यह उनकी जिम्मेवारी है कि वे गलत डॉक्टरों को सामने लायें, उन पर कार्रवाई करें.

दवा के कारोबार में थ्री सी (कन्विंश, कन्फ्यूज्ड, करप्ट) की परिभाषा अब बदल गयी है. पहले मेडिकल रिप्रजेंटेटिव (एमआर) से कहा जाता था.. डॉक्टरों को पहले कन्विंश करो. सफल नहीं हुए, तो कन्फ्यूज करो. इसमें भी सफल नहीं हुए, तो उन्हें करप्ट बनाओ. यानी भ्रष्ट बनाओ. अब इनमें से पहले दो ‘सी’ यानी कन्विंश और कन्फ्यूज्ड के कोई मायने नहीं हैं. सिर्फ कहा जाता है : डॉक्टरों की चिरौरी मत करो. 30 फीसदी मांगता है, तो 35-40 फीसदी दो. पर यह सुनिश्चित करो कि डॉक्टर हमें बिजनेस दे. इसका असर यह होता है कि गलत करनेवाले डॉक्टर उसी कंपनी की दवा लिखने को बाध्य होते हैं, जिनसे वे उपकृत होते हैं. चाहे उसी मोलिक्यूल की दूसरी कंपनियों की दवा सस्ती क्यों न मिलती हो.

दो तरह की मार्केटिंग
दवा की दो तरह की मार्केटिंग होती है. इथिकल और अन इथिकल. इथिकल मार्केटिंग, जो अब नहीं के बराबर होती है, में पहले होता था : एमआर डॉक्टरों के पास जायें. प्रोडक्ट के बारे में बतायें. मोलिक्यूल बतायें. सैंपलिंग करें.

छोटा-मोटा गिफ्ट दें. जैसे पेन, डायरी, की-रिंग. कभी-कभी पंखा, फ्रीज जैसे गिफ्ट भी डॉक्टरों को दें. कई डॉक्टर ऐसे थे, जो गिफ्ट भी वापस कर देते थे. कुछ डॉक्टर एमआर का इंतजार भी करते थे, ताकि उन्हें नये प्रोडक्ट की जानकारी मिल सके. अन इथिकल मार्के टिंग में बिजनेस बढ़ाने के लिए कंपनियां सब कुछ करती हैं, चाहे इसका असर आम लोगों पर कुछ भी पड़े. चाहे 90 रुपये (स्टॉकिस्ट का रेट) की दवा 600 रुपये में रोगियों को क्यों न बेचनी पड़े.

* सेल्स प्रमोटर बन गये डॉक्टर
दवा मार्केटिंग की नीति प्रत्यक्ष तौर पर बेहद साफ-सुथरी व नियमपूर्ण प्रतीत होती है. आज भी एमआर डॉक्टरों की क्लिनिक में उसी तरह विजिट करते हैं, अपने प्रोडक्ट के बारे में बताते हैं और दवा लिखने का भी आग्रह करते हैं. मगर अब फिजिशियंस सैंपल बहुत कम दिये जाते हैं. ज्यादातर डॉक्टरों को कंपनी की दवाओं की एक फेहरिस्त थमा दी जाती है. बस इतना सा इशारा जरूर कर दिया जाता है कि दवा कंपनी आपकी सेवा के लिए तत्पर है. यह सेवा डॉक्टर की प्रिस्क्राइबिंग क्षमता के अनुरूप तय होती है. दवा कंपनियों के महीने भर के लक्ष्य तय होते हैं. इस वजह से वह अपने सेल्स में ज्यादा अनिश्चितता पसंद नहीं करतीं. कंपनियां चाहती हैं कि डॉक्टर के साथ एक डील हो, ताकि महीने का लक्ष्य मिल जाये. इस डील का स्वरूप अकसर डॉक्टर की जरूरतों के अनुसार तय होता है.

सीधे आर्थिक लाभ के रूप में, टूर पैकेज के रूप में या फिर किसी महंगे उपहार के रूप में. इस तरह से डॉक्टर का इस्तेमाल सीधे तौर पर एक सेल्स प्रमोटर के रूप में होता है. फुटकर दवाइयां लिखनेवाले डॉक्टरों की बजाय कंपनियां ऐसे डॉक्टरों को पसंद करती हैं, जो सीधे तौर पर व्यावसायिक संबंध रखते हैं. मगर हर दवा कंपनियों की लिस्ट में ऐसे दिलेर डॉक्टरों की संख्या सीमित होती है.

इसके दो कारण हैं. पहला अधिकतर व्यस्त डॉक्टर एक की बजाय चार कंपनियों से उपकृत होना पसंद करते हैं. दूसरा, दवा कंपनियां भी सभी डॉक्टरों को ऐसे संबंधों के लायक नहीं समझतीं.

* सबसे निरीह प्राणी एमआर
इस सारी प्रक्रिया में मेडिकल रिप्रजेंटेटिव का प्रयोग शतरंज के एक प्यादे की तरह होता है. इस पूरे तंत्र का सबसे निरीह प्राणी एमआर होता है. महीने भर के टारगेट का दबाव उसी पर होता है. डॉक्टरों की बेरुखी, उनका अनमनापन, प्रॉडक्ट के प्रति अरुचि, सेल्स में अपने सीनियरों का लगातार व्यस्त रहने का दबाव, यानी सब कुछ.

– देश में करीब 25 हजार दवा कंपनियां हैं
* हजारों कंपनियां फूड सप्लिमेंट के नाम पर भी दवाइयां बनाती हैं
* टॉप सेगमेंट की करीब सौ कंपनियों का बाजार पर आधिपत्य

डॉक्टर किस तरह से लेते हैं पैसे
1. दवा कंपनियां ही पहले विश्व भर में होनेवाली कांफ्रेंस का पता करती हैं. फिर टारगेटेड डॉक्टरों के पास अपने दूत भेजती हैं, जो डॉक्टर की यशगाथा गाते हुए उन्हें आने-जाने का विमान खर्च, घूमने-फिरने और ठहरने की राजसी व्यवस्था का प्रस्ताव देते हैं. कभी-कभी कुछेक डॉक्टर भी अपने प्रस्ताव दवा कंपनियों के सामने रखते हैं. यदि 10 कंपनियों के सामने उन्होंने प्रस्ताव रखे और पांच ने उनके लिए विमान का खर्च उठाने की सहमति जता दी, तो डॉक्टर सहर्ष तैयार हो जाते हैं. पांचों से विमान का टिकट लिया. चार रद्द करा कर उसके पैसे रख लिये. एक पर चले गये. दूसरी कंपनियों ने उनकी अन्य व्यवस्था कर ली. यदि किसी एक कंपनी ने ही डॉक्टर के सेमिनार की सभी व्यवस्था कर दी, तो किसी दूसरी कंपनी ने उन्हें टूर पैकेज दे दिया. हां, इसके एवज में कंपनियों को कुल खर्च का कम से कम चार गुना बिजनेस देना ही पड़ता है. यानी उस कंपनी की दवा लिखनी ही पड़ती है.

2. कंपनियां अपने एमआर के माध्यम से जब डॉक्टरों से संपर्क करती हैं, तो वे (डॉक्टर) सिर्फ यह पूछते हैं.. आप देंगे क्या. क्या आपके पास पावर है? फिर डील फाइनल होती है. कुछ कंपनियों ने तो एमआर को भी फाइनांसियल पावर दे दिया है. कंपनियां ब्लैंक चेक भी भेज रही हैं. डॉक्टर ने बिजनेस दिया, तो भुगतान कर दो.

3. डॉक्टर विदेश टूर धड़ल्ले से लेने लगे हैं. अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, स्विटजरलैंड, ब्रिटेन का भी. न सिर्फ अपना, बल्कि पत्नी व बच्चों का भी. यह सब काम बड़ी दवा कंपनियां कर रही हैं. छोटी कंपनियां थाइलैंड, सिंगापुर, हांगकांग, यूएइ आदि के लिए ऑफर देती हैं.

4. रांची के एक डॉक्टर से एक बड़ी कंपनी की डील हुई. कंपनी ने पूछा, तीन माह में कितना बिजनेस देंगे आप. डॉक्टर ने कहा : छह लाख तक, पर मुझे इसके एवज में कार चाहिए. उनके पास अगले ही दिन होंडा सिटी कार पहुंच गयी.

बच्चों के नाम से ले रहे चेक
पहले डॉक्टर दवा लिखने के एवज में अपना हिस्सा नकद लेते थे. अब एकाउंट पेयी चेक से भी ले रहे हैं. पर यह चेक उनके खुद के नाम से नहीं रहता. पत्नी, बच्चे या किसी परिजन के नाम का होता है, ताकि उन्हें आयकर को हिसाब न देना पड़े. यानी टैक्स की भी चोरी.

* 40 प्रतिशत तक मांग करते हैं
एक डॉक्टर ने कंपनी से दवा लिखने के बदले 40 फीसदी रकम की मांग की. कहा : बाकी बात आप उस दुकान से कर लें, जहां आपकी दवा बिकेगी. दवा दुकानवाले ने कहा : मैं तभी आपकी दवा रखूंगा, जब आप हमें 26 फीसदी दें. मजबूरन उस कंपनी को यह व्यवस्था करनी पड़ी.

क्या कहता है आइएमए
दवा कंपनियां चिकित्सकों को कैसे भ्रष्ट बना रही हैं, इस पर प्रभात खबर संवाददाता राजीव पांडेय ने झारखंड आइएमए के प्रेसीडेंट डॉ अरुण कुमार सिंह से बातचीत की. बातचीत के अंश :-

डॉक्टर ब्रांडेड दवा क्यों लिखते है?

ब्रांडेड दवाओं पर लोगों का विश्वास ज्यादा होता है. जेनेरिक दवाओं में सिर्फ कंपोजिशन होता है, जो मरीजों को आसानी से याद नहीं रहता. हालांकि मेडिकल काउंसिल की गाइड लाइन है कि जेनेरिक दवा ही लिखी जाये.

* कंपनियां डॉक्टरों को रिझाने के लिए क्या-क्या करती हैं?
हर कोई प्रोडक्ट बेचना चाहता है. दवा कंपनियां भी इसी जुगाड़ में रहती हैं कि उनके प्रोडक्ट की ज्यादा बिक्री हो. चिकित्सकों को किसी दवा कंपनी की मदद नहीं करनी चाहिए. आइएमए इसका विरोध करता है.

* कंपनियां डॉक्टरों को पैसे भी देती हैं?
दवा कंपनियां चिकित्सकों को गिफ्ट देती हैं. गिफ्ट कैसा होगा, यह कंपनी और चिकित्सक की प्रैक्टिस पर निर्भर करता है. चिकित्सक पैसे लेते हैं, ऐसी कोई जानकारी अभी तक नहीं मिली है.

* कंपनियां टूर पैकेज भी देती हैं?
सेमिनार में जाने के लिए दवा कंपनियां चिकित्सकों को टूर पैकेज देती हैं. कुछ चिकित्सक ही ऐसा करते हैं. कोई प्रैक्टिस छोड़ कर जाना नहीं जाना चाहता है. हर सिक्के के दो पहलू होते हैं. कोई टूर पैकेज लेकर घुमने जाता है, तो यह गलत है. डॉक्टरों को कंपनियों से सेमिनार में जाने के लिए पैसे नहीं लेने चाहिए. कंपनियां सुविधाएं देंगी, तो उसका फायदा भी उठायेंगी. जितना खर्च करेंगी, उससे कहीं ज्यादा का लाभ लेने का प्रयास करेंगी.

* दवा लिखने पर डॉक्टरों को कमीशन मिलता है?
ऐसी जानकारी भी अभी तक नहीं मिली है. चिकित्सक इनकम टैक्स फाइल करते हैं, इसलिए यह संभव नहीं लगता है.

* शिकायत मिलती है, तो आइएमए क्या करेगा?
आइएमए को एक्शन लेने का अधिकार नहीं है. चिकित्सक गलत करते हैं, तो आइएमए उसका विरोध कर सकता है.

* एमसीआइ कार्रवाई कर सकती है?
एमसीआइ को चिकित्सक के खिलाफ अगर ऐसी कोई शिकायत मिलती है, तो वह कार्रवाई कर सकती है. चिकित्सकों से स्पष्टीकरण मांगा जाता है. पंजीयन कुछ समय के लिए निरस्त किया जा सकता है.

केस 1. आंख की दवा बनानेवाली तीन कंपनियों ने एक डॉक्टर से संपर्क किया. संयोग से तीनों एक ही मोलिक्यूल की दवा बनाती थीं. डॉक्टर साहब को तीनों कंपनियों के प्रस्ताव पसंद आये. एक रोगी को तीनों कंपनियों की दवा लिख दी. कहा, दो घंटे के अंतराल पर दवाओं को दो-दो बूंद ले लें.

केस 2. हाल ही में एक बड़ी दवा कंपनी ने झारखंड के एक बड़े शहर के 15 डॉक्टरों की एक टीम को ऑस्ट्रेलिया का भ्रमण कराया. कंपनी दिल्ली से इन डॉक्टरों को लेकर गयी थी. ये सभी डॉक्टर विदेश घूमने के शौकीन हैं. इसलिए कंपनियों से सिर्फ विदेश ट्रिप ही लेते हैं.

(This story was first published on Prabhat Khabar)

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