‘एकुशे फरवरी’ भाषायी अस्मिता की स्वर्णिम तिथि

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Sushil Krishnet for BeyondHeadlines

   “कॉमरेड शोन बिगुल ओइ हांकछे रे

    कारार ओइ लौहो कॉपाट भेंगे फैल

    कोरबे ओइ लोपाट 

    मोदेरे गारोब               

    मोदेर आशा ।

    ऑ मोरी बांग्ला भाषा …”

(कामरेड सुनो- बिगुल बज रहा है, कारागार के उस लौह कपाट को तोड़ डालो, नहीं तो वे हमारी बांग्ला-भाषा को जो हमारा गर्व है, हमारी आशा है, मिटा कर रख देंगे…)

यह बांग्ला गीत है जिसका वर्णन चर्चित उपन्यास “मैं बोरिशाइल्ला” (लेखिका महुआ माजी) में है जिसे बांग्लादेश के मुक्ति आन्दोलन के दौरान बंगाली युवा गाते थे.  वस्तुतः 21 फरवरी को “अंतर्राष्ट्रीय मातृ-भाषा दिवस” बनाये जाने के नेपथ्य में बांग्लादेश का मुक्ति-संग्राम की ही पटकथा है. बांग्लादेश की आज़ादी के लिए शेख़ मुज़ीब ने जिस ‘मुक्तिवाहिनी’ का संगठन किया था उसका इतिहास देखें तो वह 21 फरवरी 1952 से शुरू होता है. मुज़ीब जो खुद ढाका विश्वविद्यालय के उस समय छात्र थे, ने छात्रों को संगठित कर ‘भाषा संग्राम परिषद’ बनायी. आगे चलकर यही संगठन ‘मुज़ीब-वाहिनी’ में बदला बाद में मुक्तिसंग्राम छिड्ने की घोषणा के बाद यही ‘मुक्ति-वाहिनी’ के रूप में प्रकट हुआ.

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मातृ-भाषा को समर्पित 21 फरवरी का दिन बांग्लादेश में तो 1952 से ही मनाया जाता है लेकिन वैश्विक परिदृश्य में इसकी शुरुआत 2000 से हुई. 17 नवम्बर, 1999 को युनेस्को (UNESCO) ने विश्व में भाषाई एवं सांस्कृतिक विविधिता के संरक्षण तथा बढ़ावे के लिए 21 फरवरी का दिन “अंतर्राष्ट्रीय मातृ-भाषा दिवस” के रूप में मनाये जाने की घोषणा की.

भाषा से जुड़ी एक यूरोपीय लोक-कथा के अनुसार एक बार आदम के बेटों ने स्वर्ग तक पहुँचने के लिए एक मीनार बनाने कि योजना बनायी. ईश्वर ने उनके मंसूबे पर पानी फेरने के लिए उन्हें अलग-अलग भाषा दे दी. फलतः वे आपस में उलझ पड़े और मीनार की योजना, योजना ही रह गयी. मीनार की योजना असफल क्यों रह गयी? जाहिर है उसके निर्माता अलग-अलग भाषा के थे. आपसी संवाद कायम न हुआ और योजना मूर्त रूप न ले सकी. भाषा की यही समाजिकता है. वह मात्र व्याकरण नहीं है न सिर्फ संवाद का माध्यम बल्कि भाषा सामाजिक अनुबंध का भी माध्यम है.

यह भाषा ही होती है जो किसी एक समुदाय की संस्कृति, धर्म, परम्परा इत्यादि अन्तः सूत्रों को पिरोती है. सामाजिक-सांस्कृतिक तत्व होने के साथ ही साथ अवस्था विशेष में वह राजनीतिक प्रश्न भी बन जाती है. अगर कहीं पराधीनता या वाह्य-आक्रमण का सम्बन्ध भाषा की सुरक्षा से जुड़ जाये तो एक भाषा राष्ट्रवाद से जुड़ जाती है. भाषा और राष्ट्रीय अस्मिता का प्रश्न कई राष्ट्रों के उद्भव, विघटन व पुनर्निर्माण का कारण भी बना. यूरोप में आयरलैण्ड के पुनर्जागरण के साथ ही गैलिक भाषा को पुनर्जीवित करने का तीव्र प्रयत्न न किया जाता तो वहाँ राजनीतिक चेतना का विकास न हो पाता. स्पेन और फ्रांस के बीच बास्क अलगाववाद का मुद्दा भाषा से ही जुड़ा है. पाकिस्तान के बनने के पीछे धार्मिक और राजनीतिक कारक तो थे ही लेकिन उर्दू के नाम पर मुस्लिम लीग द्वारा मुस्लिमों को इकट्ठा कर एक देश का स्वप्न दिखाया जाना भी इसका एक अन्य कारण था.

विभाजन के बाद भावी पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू होगी या बांग्ला? या फिर दोनों? संभवतः इसी प्रश्न ने बांग्लादेश बनने की नींव डाली थी. पाकिस्तान की संविधान सभा के द्वितीय सत्र में धीरेन्द्र नाथ दत्त ने 69 मिलियन पाकिस्तानी नागरिकों में से 44 मिलियन के बांग्लाभाषी होने के कारण बांग्ला को राष्ट्रभाषा बनाए जाने का प्रस्ताव रखा. लेकिन यह प्रस्ताव पास न हो सका. लियाकत अली खान ने मुस्लिम राष्ट्र की दुहाई देते हुये उर्दू को ही राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाए जाने की बात कही. 21 मार्च, 1948 को ढाका विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में खुद जिन्ना उर्दू को राष्ट्रभाषा घोषित कर आए. आगे चलकर 27 जनवरी,1952 को तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नाज़िमुद्दीन भी जिन्ना कि तरह ढाका के पल्टन मैदान से घोषणा कर बैठे कि उर्दू ही देश कि राष्ट्रभाषा होगी.

30 जनवरी, 1952 को मुस्लिम लीग को छोड़ पूर्वी पाकिस्तान की सारी पार्टियों ‘राष्ट्रभाषा संग्राम समिति’ गठित की और आगामी 21 फरवरी को ‘राष्ट्र भाषा दिवस’ के रूप में मनाये जाने की योजना बनायी. योजना के अनुसार 21 फरवरी,1952 को  पूर्वी पाकिस्तान में हड़ताल हुई, ढाका के राजपथ पर विशाल जुलूस निकाला गया. इन सबकी अगुआई कर रहे थे शेख़ मुजीबुर्रहमान. विरोध को दबाने के लिए लाठीचार्ज हुआ, जुलूस पर गोलियां चलायीं गयीं. इस हिंसक दमन में कई छात्र शहीद हो गए. छात्रों की शहादत व पुलिस की बर्बरता ने पूर्वी पाकिस्तान में प्रतिशोध की आग भड़का दी. “एकुशे फरवरी” राष्ट्रीय नारा बन गया. भाषा का यह व्यापक आन्दोलन मुक्तिसंग्राम की आग में घी का काम किया. जिस स्थान पर छात्र शहीद हुये थे वहाँ एक ‘शहीद मीनार’ स्थापित की गयी. युनेस्को (UNESCO) ने इसे “अंतर्राष्ट्रीय मातृ-भाषा दिवस” के प्रतीक के रूप में माना है.

इतिहास में दर्ज़ 21 फरवरी की तारीख भाषाई अस्मिता की स्वर्णिम  तिथि है. यह एक तरफ भाषा की शक्ति को प्रदर्शित करती है दूसरी तरफ राष्ट्रवाद का एक नया आयाम खोलती है. बेंडिक्ट एंडरसन ने राष्ट्रवाद के इस रूप के बारे में लिखा है कि राष्ट्रवाद का एक रूप भाषायी राष्ट्रवाद है. यूरोप में जिसकी उत्पत्ति का दार्शनिक आधार हेर्डर और रूसो कि सैद्धांतिक स्थापनाओं को माना जाता है. इसके अंतर्गत यह विश्वास निहित है कि प्रत्येक राष्ट्र को सही मायने में उसकी विशिष्ट भाषा और साहित्यिक संस्कृति के द्वारा समझा जा सकता है क्योंकि यही दोनों जनता कि ऐतिहासिक प्रज्ञा को व्यक्त करता है. वस्तुतः ‘हम ही सही हैं ’ के आगे ‘वो भी सही हैं’ को जब तक हम जगह नहीं देंगे तब तक नीत्शे के उस उक्ति के उत्तराधिकारी होंगे जिसमें वह कहता है कि ‘इतिहास का वारिस होना खतरनाक है. ’हम ऐसे ही इतिहास के वारिस बनते जाएंगे साथ ही न जाने ‘कितने पाकिस्तान’, कितने बांग्लादेश, कितने फिलिस्तीन और इज़राइल बनाते जाएंगे.

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