आखिर हम महिलाओं का औचित्य ही क्या है?

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Anita Gautam for BeyondHeadlines

हर साल की तरह आज विमेन्स डे है. पर सही मायनों में विमेन्स डे का मतलब क्या है? क्यों हम हर साल 8 मार्च  की तारिख को महिला दिवस के रूप में मनाते हैं? मैं स्वयं महिला होकर आज तक इस बात की गहराई में नहीं जा पाई.

महिला दिवस पर महिला नाम का बखान कर उनको इस बात का अहसास दिलाने की वह मां, बहन, बेटी के रूप में याद की जाती है. वह जीवन संगनी है और दो परिवारों के बीच एक सेतु की तरह है और उसके अलावा समाज में कब और किस रूप में याद की जाती है. शायद तब जब कन्या भू्रण हत्या कर लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की औसतन संख्या आधी हो जाती है. तब जब महिलाओं को दहेज के नाम पर मार पीट कर जला दिया जाता है. सर्दी की ठिठुरती रात में गर्भवती महिला को घर से निकाल दिया जाता है. तब जब समाज के रक्षक पुलिस ही सरेआम औरत की लूटती इज्जत को बचाने के बावजूद अपनी हर रात थाने में रंगीन करते हैं. तब जब नाबालिक लड़की मां बन जाए और उसे समाज से दुत्कार कर निकाल दिया जाए. तब जब दफ्तर में उसका बॉस नौकरी का हवाला दे कर हर पल उसका मानसिक व शारीरिक शोषण करे. या तब जब 5-6 लोग मिलकर उसका गैंग रेप करके मरने की हालत में छोड़ दें.

आखिर हम महिलाओं का औचित्य ही क्या है?

आखिर इन सबके अलावा औरत का कौन सा रूप है, जो उसे औरत होने का अहसास कराता है. आखिर हम महिलाओं का औचित्य ही क्या है? हर धर्म, हर जाति में अमीर से लेकर गरीब हर लड़की को पैदा होने के बाद से यही सिखाया जाता है कि शादी के बाद सबकी सेवा करना, पहले घर के सभी सदस्यों को खिलाना फिर स्वयं खाना, सास कुछ भी बोलें पलट कर जवाब मत देना और न जाने ऐसी तमाम दादी-नानी के नुस्खे, जिसका पालन करते-करते औरत मर जाती है और खुद दूसरों के सुख के लिए हर पल बलि का बकरा बनती है.

पल-पल हलाल होने के बावजूद भी लोगों को उसके समर्पण का अहसास तक नहीं होता. आधुनिकता के दौर में गांव तो क्या शहरों की भी अधिकांश महिलाओं को महिला दिवस के बारे में आज तक कुछ नहीं पता. उन्हें पता है तो सिर्फ करवाचौथ, सकटचौथ और न जाने ऐसे कितने व्रत जो वह अपने पति, पुत्र और परिवार के सुख-सामथ्र्य की मंगल-कामना के लिए करती है.

क्या आपकी नज़रों में सही मायने में महिला दिवस का कोई औचित्य है? क्या महिलाओं के नाम दिवस करने से उसकी समस्याओं का समाधान हो जाएगा? या फिर जो महिला रोज़ अपने शराबी पति से पीटकर उसके शराब के पैसे के लिए न चाहते हुए अपना शरीर तक बेचने पर मजबूर होती है, उसके लिए महिला दिवस का क्या अर्थ?

माना कि महिला दिवस समाज का बनाया गया एक दिन हो सकता है. वो दिन जिस दिन हर रेडियो चैनल पर महिलाओं के लिए गाने बजें, बड़ी-बड़ी फिल्म जगत की महिलाएं गुलाबी कपड़े पहनें अपने लाखों रूपयों के  ठुमकों पर ओरों का मनोरंजन करें पर उन महिलाओं का क्या जिन्हें इसी समाज ने विधवा, तलाकशुदा, बलात्कार पीड़िता या और कुछ कारणों का हवाला देकर अपनी नज़रों से दरकिनार कर दिया है.

महिला को जन्म के बाद से लेकर मृत्यु तक समाज के नियमों, तौर तरीको से रहना पड़ता है. यहां तक कि हिन्दू धर्म में कन्या, विवाहिता अथवा विधवा महिला के अंतिम संस्कारों का प्रावधान तक अलग है. शराबी पति के किडनी खराब होने, सड़क दुर्घटना होने या किसी भी आकस्मिक मृत्यु के शिकार होने पर समाज द्वारा उस महिला को कुलच्छनी तक घोषित कर दिया जाता है. अगर पति के अत्याचारों से परेशान हो वह तलाक ले लेती है, तो यही समाज उसके चरित्र पर अंगुली उठाता है.

अगर बलात्कार हो जाए तो हमारा समाज लड़की के कपड़े, ऑड टाइमिंग्स की बात करता है. पर उन 2 साल से 6 साल की बच्चियों का क्या कसूर, जिन्हें अभी ठीक से बोलना तक भी नहीं आया? फिर यह समाज कहां चला जाता है?

क्या महिला शब्द और उसकी तस्वीर सरकारी कलैंडरों, पोस्टरों में शिक्षा का अधिकार या जननी सुरक्षा अधिकारों के नाम पर सुशोभित करने के लिए हैं? महिला एवं बाल विकास मंत्रालय जैसे राष्ट्रीय महिला आयोग के दफ्तरों के कागजों तक सीमित है? या फिर वस्तु निर्यात के लिए शेविंग क्रीम, साबुन, कार यहां तक की पुरूषों के इस्तेमाल करने वाले कंडोम के प्रचार तक में महिलाओं की जगह सीमित है?

देश की लगभग 50 फिसदी से ज्यादा महिला अनपढ़ हैं. उसे सिर्फ पति, परिवार और दो जून के खाने के अलावा कुछ नहीं पता. उसे इतना भी नहीं पता कि अगर उसके साथ कोई मारपीट या बलात्कार कर दे तो उसे पुलिस के पास भी जाना होता है.

यही नहीं, देश की शिक्षित महिलाएं जो 50 फिसदी हैं उनमें से भी 30 प्रतिशत महिलाओं को कानून तो  पता है पर कानूनों पर उचित कार्रवाई के बारे में नहीं पता. उसे इतना तो पता है कि परेशानी में पुलिस स्टेशन जाना है पर उसे एफआईआर और एनसीआर के बारे में नहीं पता. उसे अपने अधिकारों के बारे में पूर्ण जानकारी तक नहीं.

महिलाओ के नाम दिवस करने से या उनके नाम आरक्षण की मांग करने से देश की महिलाओं की स्थिति में सुधार  होना ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर होगा. महिलाओं को शिक्षा, रोज़गार, सुरक्षा, सशक्तिकरण, कानून और उनके  अधिकारों की ज़रूरत है. ज़रूरत है तो सम्मान की, बराबरी के दर्जे की. समाज से निकालने की अपेक्षा उन्हें पुनः सम्मान पूर्वक अपनाने की, क्योंकि औरत से ही परिवार बनता है.

एक ओर तो देश आधुनिकता की ओर अपना परचम फैला रहा है. कोई क्षेत्र ऐसा नहीं, जहां महिला ने अपनी छाप न छोड़ी हो. राजनीति, सेना, विज्ञान एवं तकनीकि, फैशन जगत, आईटी क्षेत्र यहां तक की चांद पर महिलाएं अपनी  अनूठी पहचान बना चुकी हैं. आज वह पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं. पर फिर भी ज़रूरत है तो लोगों की मानसिकता बदलने की, जो उंचे पदों पर बैठी महिलाओं से लेकर आम महिलाओं के प्रति संकीर्ण सोच  रखते हैं. महिला को मात्र भोग की वस्तु समझते हैं. पर वो भूल जाते हैं कि नारी अब अबला नहीं रही. एक अकेली औरत पूरे घर को क्या पूरे देश को संभाल सकती है.

मात्र 8 मार्च को महिला दिवस मनाने भर से ही इस दिन की सार्थकता सिद्ध नहीं होगी. एक दिन की अपेक्षा प्रत्येक दिन को महिलाओं के सम्मान के प्रति समर्पित करने से समाज में बुराईयों पर काबू पाया जा सकता है. समाज मेरे,  आपसे और हमारे घरों से ही बनता है. और यह तभी संभव होगा जब आप और मेरे जैसे प्रत्येक प्राणी मिलकर  आज प्रण करेंगे कि महिलाओं को हर रूप में सम्मान देंगे. कन्या भ्रूण हत्या का पूरजोर विरोध कर अपनी बच्चियों को शिक्षा का अधिकार देंगे.  और सच तो यह है कि देवी सिर्फ मंदिरों में नहीं हमारे घरों में, हमारे समाज में बसती है.

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