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BeyondHeadlines > Latest News > बुर्कों व घुंघटों के देश में…
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बुर्कों व घुंघटों के देश में…

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published April 7, 2013
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7 Min Read
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Anuj Agarwal for BeyondHeadlines

इसी माह मुझे कुछ प्रमुख नागरिकों द्वारा इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित एवं अप्रत्यक्ष रूप से बाबा रामदेव द्वारा समर्थित एवं सहभागित ‘नेशन बिल्डिंग मीट’ जिसमें देश भर के चुनिंदा 150-160 प्रबुद्ध जनों, शिक्षाविदों, समाजसेवियों, नौकरशाहों, न्यायमूर्तियों, राजनेताओं, उद्योग व व्यापार समूहों से जुड़े लोगों ने जो देश में व्यवस्था परिवर्तन का व सुशासन का सपना लेकर जुटे थे, में मुझे भी शामिल होने का मौका मिला, परंतु वे न तो कुछ सार्थक विचार दे पाये और न ही कोई कार्य योजना.

मैंने मौलिक भारत के नीति पत्र व कार्य योजना का मुझे मिले पाँच मिनट में संक्षिप्त परिचय कराया तो अनेक लोग चौंक गए. किन्तु आयोजकों के अपने ‘निहित ऐजेंडो’ के कारण एक सार्थक पहल की संभावनाएं क्षीण हो गई. मुझे सभी सहभागियों के विचारों में अपनी डफली अपना राग, अपनी कहानी, अपनी बात ज्यादा लगी. सार्थक व्यवस्थित व क्षैशिक विमर्श का उद्देश्य शायद आयोजकों का था ही नहीं.

अपनी बात रखते हुए मैनें सबसे पूछा कि आप लोगों के पास अपने विचारों व सुझावों को मूर्तरूप में लाने की क्या कार्य योजना हैं? जिन सुधारों को लागू करने की बात कर रहे हैं, उसके लिए सरकारी मशीनरी के सार्थक उपयोग की रणनीति क्या है? अगर संघर्ष अथवा आंदोलन के द्वारा राजनीतिक परिवर्तन करने हैं तो संगठन का स्वरूप एवं आंदोलन की कार्य योजना क्या हो? क्या हमारे पास पंचायतों से लेकर केन्द्र तक सुधार, परिवर्तनों व बदलावों को कर सकने वाला ‘नेतृत्व’ है? क्या हमारे पास वैकल्पिक नीतियों का नक्शा व वैकल्पिक नेतृत्व को विकसित करने की कार्य योजना है? तो उत्तर नदारद था.

Day 1 of Nation Building Meet, IIIC, New Delhi

मुझे अधिकांश सहभागी तेज़हीन व काफी उम्रदराज लगे. ऐसे लोग जो ‘पोस्ट रिटायरमेंट’ के बाद सत्ता की चाशनी बिना किसी खास मेहनत के चखने को तैयार हैं. इस बुर्जुआ वर्ग ने देश की प्रतिभाओं व सम्पत्तियों की निकासी के कुचक्रको रोकने की चर्चा भी नहीं की.

शायद देश की समस्या ही यहीं है, यहाँ नेतृत्व के लिए तो लोग प्रस्तुत हैं, किन्तु संघर्ष, जन जागरण व जनसहभागिता बढ़ाने के लिए कोई नहीं. देश मात्र 65 वर्ष पूर्व ही गुलामी से मुक्त हुआ है और अभी भी सत्तालोलुपों के कब्जे में है. पिछले एक हजार वर्षों की गुलामी की मानसिकता अभी तक हमारे मन मस्तिष्क पर हावी है. हमारी आक्रामकता, सच कहने की क्षमता, विरोध करने का माद्दा एवं सृजनशीलता सभी कुंद हो गए हैं. विदेशी आक्रमणकारियों के अत्याचारों से बचने के लिए हमारे बिखरे देश ने अपनी नारियों को नकाबों व घूंघटों से ढंक दिया और अपने दिमाग के दरवाजों को पाट दिया. कुंद मानसिकता ने देश को बांटा व भीरू बना दिया.

हमने उपनिषदों व वेदों की जगह पुराणों की दंतकथाओं और चमत्कारों के सहारे जीवन जीना शुरू कर दिया और रक्षात्मक मानसिकता को अपनाते हुए अस्तित्व की रक्षा को प्राथमिक मान अपने अस्मिता व स्वाभिमान से समझौता कर बैठे. आत्मसंघर्ष के पिछले एक हजार वर्षों ने हमारी पराक्रम की मानसिकता को परिक्रमा की आदत में बदल दिया. हम शीर्ष पर बैठे अयोग्य लोगों की परिक्रमा कर कुछ कृपा पाने की मानसिकता का शिकार है, मुगल सल्तनत एवं ब्रिटिश शासकों ने हमारी कमजोरियों को पहचाना और उन पर चोट की. हमारी अकूत धन व ज्ञान सम्पदा को लूटा और भारत में फैले विशाल शिक्षा व धार्मिक तंत्र को नष्ट और भ्रष्ट कर दिया. यह काल अपनी संस्कृति व शिक्षा थोपने व वफादारों, चमचों व चापलूस भारतीयों को प्रश्रय देने में मुगल सल्तनत व अंग्रेजी शासकों ने लगाया. दु:खद यह रहा कि आजादी के बाद के युग में हमारे राजनीतिक दल इसी मानसिकता का शिकार हो गए और देश में जिन प्रकार के परिवर्तनों का वातावरण बनाया जाना था वह बन ही नहीं सका.

हमारे देश की समस्याओं की जड़ में मुगल सल्तनत व ब्रिटिश राजव्यवस्था व कार्य प्रणालियों को अभी तक बरक़रार रखने की जिद और बांटो और राज करो की राजनीतिज्ञों की मानसिकता है. हमारे नौकरशाह, न्यायमूर्ति, वरिष्ठ राजनेता, उद्योग व व्यापार से जुड़े लोग एवं बहुत से समाजसेवी सभी ब्रिटिश-अमेरिकी व्यवस्था के अनुरूप देश को संचालित करते रहे हैं और देश की मूल समस्याओं व मर्म से उनका नाता टूट चुका है. इन लोगों से व्यवस्था परिवर्तन की आशा व्यर्थ है. वे पाश्चात्य चश्मे से देश को देखते हैं और उसी अनुरूप इलाज करते हैं. वे मात्र सुशासन चाहते हैं, नीतिगत परिवर्तन नहीं.

पिछले दो सौ वर्षों में देश की जनता को इन लोगों ने ‘व्यापक रूपान्तर’ के दलदल में धकेल कर खासा प्रताडि़त किया है किन्तु अभी भी भारत के 80-90 प्रतिशत लोग अपनी भारतीयता से जुड़े हुए हैं. यह भारतीयता ही हमारा ‘सत्व’ है. इसके अनुरूप ही राजव्यवस्था व शासन का नया नक्शा राजनीतिक दलों को बनाना पड़ेगा. पाश्चात्य की कितनी मात्रा ज़रूरी है, यह भी निर्धारित करना होगा. देश में अन्तर्विरोध, आक्रोश व जनांदोलनों की वजह भी यही है. पाश्चात्य मानसिकता वाले शासकों का यह अंतिम दौर है और वे अपने अस्तित्व के अंतिम पड़ाव पर हैं. इनके दिये की लौ बुझने से पहले भड़-भड़ा रही है और वे भ्रम का जाल बिछाये रखने की पूरी कोशिशों में है. आवश्यकता है एकजुट होने की व रहने की. आक्रामक संघर्ष व सशक्त विकल्प के साथ अगर लगा जाए तो इनका भरभरा चुका किला ढहाया जा सकता है और हम बना सकते हैं अपना मौलिक भारत.

(लेखक डायलॉग इंडिया पत्रिका के संपादक हैं और इन दिनों ‘मौलिक भारत’ नामक अभियान की अगुवाई कर रहे हैं.)

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