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BeyondHeadlines > Edit/Op-Ed > आजादी का खोटा सिक्का…
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आजादी का खोटा सिक्का…

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published May 17, 2013 2 Views
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16 Min Read
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©BeyondHeadlines

किसान बन्धुओं,

आइये, अपना घर देखें. मरखप के हमने आजादी हासिल की. मगर आजादी का यह सिक्का खोटा निकला. आजादी तो सभी तरह की होती है न? भूखों मरने की आजादी, नंगे रहने की आजादी, चोर डाकुओं से लुटपिट जाने की आजादी, बीमारियों से सड़ने की आजादी भी तो आजादी ही हैं न? तो क्या हमारी आजादी इससे कुछ भिन्न है?

अंग्रेज़ लोग यहां के सभी लोहे, कोयले, सीमेन्ट और किरासिन तेल को खा पीकर तो चल गये नहीं. ये चीजें तो यहीं हैं और काफी है. फिर भी मिलती नहीं. जितनी पहले मिलती थीं उतनी भी नहीं मिलती हैं. नमक की भी वही हालत है. कपड़ा यदि मिलता है तो पारसाल से डयोढों दाम पर साहूबाजार में और उससे भी ज्यादे पर चोरबाजार में…

क्या पारसाल से इस साल किसान के गल्ले-वगैर का दाम एक पाई भी बढ़ा है? ऊख का दाम तो उलटे घट गया. तब खुद सरकार ने कपड़े का दाम इतना क्यों बढ़ा दिया? जब चोरबाजार में सभी चीजें जितनी चाहो, मिलती हैं तब तो उनकी कमी न होकर नये शासकों ने ईमानदारी, योग्यता और नेकनीयति की कमी हो इसका कारण हो सकती है. लोगों में इन गुणों की कमी ठीक ही हैं, कयोंकि ‘यथा राजा तथा प्रजा’.

हमें आये दिन पुलिस और हाकिमों की झिड़कियों को सहना पड़ता है, बिना घूस के कोई भी काम हो नहीं पाता और मिनिस्टरों के पास पहुंच नहीं. रात में बदनाम चोर-डाकुओं के मारे नाकों में दम है, खैरियत नहीं और दिन में इन नेकनाम डकैतों के डाके पड़ते हैं.

मालूम होता है जनता की फिक्र किसी को भी नहीं हैं खाना नहीं मिलता-महंगा होता जा रहा है. फिर भी ये मिनिस्टर बड़ी उम्मीदें बांध रहे हैं कि वोट तो अगले चुनाव में इन्हें और इनके कठमुल्ले ‘‘खाजा टोपी’ धारियों को ज़रूर ही मिलेंगे. जन साधारण को ये गंधों से भी गये बीते समझते जो हैं. यही है हमारी नई आजादी का नमूना और इसी दमामा बजाया जाता है.

किसान समझता था और मजदूर मानता था कि आने वाली आजादी यदि चीनी-मिश्री जैसी नहीं तो गुड जैसी मीठी होगी ही. मगर यह तो हर माहुर साबित हुई जिससे हमारे प्राण घुट रहे है.

घुटके मर जायें!

जो नेता आज गद्दी-नशीन हैं. वह चिल्लाते थे कि नागरिक स्वतंत्रता सबसे ज़रूरी है- उसकी रक्षा मरके भी करेंगे. मगर उनने गद्दी पर बैठते ही उसी के खिलाफ जैसे जेहाद बोल दिया है. तीस दिन और बारह महीने सभाओं, मीटिंगों और जुलूसों पर रोक लगी है. सिर्फ पुलिस की नहीं, अब तो जिलाधीशों की आज्ञा के बिना आप कभी कुछ नहीं कर सकते. अखबार तो प्रायः सभी उन्हीं का हुआं में हुआं मिलाते हैं. जो कुछ भी है सिर्फ दबी जुबान से. नहीं तो जुबां खींच ली जाये ऐसा डर लगा है. जो खुले के बोलते हैं वे लटका दिये जाते हैं.

साम्प्रदायिक दंगों को दबाने के लिये सार्वजनिक रक्षा के नाम पर कानून बनाया गया. मगर उसका प्रयोग नागरिक स्वतंत्रता के विरूद्ध सरासर हो रहा है. दिनों दिन उसे और भी सख्त बनाकर करेले को नीम पर चढ़ाया जा रहा है. नागरिक स्वतंत्रता के मानी रह गये हैं सिर्फ लीडरों की बातों को दुहराना और शासक जो कहें उसी को सही दुरूस्त बताना, ‘ऊंद बिलैया ले गई, जो हांजी-हांजी करना.’

थोडे में ‘तड़पने की इजाज़त है न फरियाद की है. घुटके मर जायें मर्जी यही सैयाद की है’ रामगढ़ कांग्रेस के बाद जिस भाषण की स्वतंत्रता के नाम पर कांग्रेस ने लडाई छेडी थी वह आज उसी कांग्रेस के राज्य में शूली पर लटका दी गई है. फिर भी उम्मीद की जाती है कि लोगों के दिनों में बेचैनी की आग धकधक न जले.

वहां और यहां…

सोवियत रूस और जारशाही से वैसी ही आजादी 1917 के मार्च में मिली थी जैसे हमें 1947 के अगस्त में प्रायः तीस साल बाद ब्रिटिश साम्राज्यशाही से मिली मानी जाती है. मगर क्या उसके साथ हमारी कोई तुलना है? रूस के बारे में महामना लेनिन ने अपने ‘अप्रैल वाले मन्तव्यों’ में लिखा है कि ‘दुनिया के मुल्कों में रूस सबसे अधिक स्वतंत्र है. रूसी जनता की हिंसा लापता है और यहां कि जनता आंख मूंद कर रूसी सरकार में, जो पूंजीपतियों की है, विश्वास करती है’. भारत तो संसार में आज सबसे कम स्वतंत्र है. उसकी जुबान और लेखनी पर जंजीरे जकड़ी हैं. जनता की हिंसा भी जोरों से जारी है, चाहे अमन कानून के नमा पर शासकों के द्वारा या चोर-जुटेरों के द्वारा. यहां नेहरू सरकार बेशक पूंजीपतियों की है और अभी तक शायद जनता की इसमें विश्वास भी है. मगर वह आंख मूंद कर तो नहीं ही है. उसकी जड़ हिल चुकी है और जनता ने खुले और छिपके इस सरकार को कोसना-लथाडना शुरू कर दिया है. वर्तमान शासक यह जान भी गये हैं.

राजनीतिक पंडागिरी

उन्हें भय है कि आगे उनकी पूछ न होगा. इसीलिए एक ओर जहां साम्यवाद एवं अराजकता के नाम पर दमन का दौरा-दौरा है वहां दूसरी ओर उनने राजनीतिक पंडागिरी भी शुरू कर दी है जो बड़ी भयंकर होगी, अगर फौरन रोकी तथा दफनाई न गई.

वह खूब समझते हैं कि फासिस्टी दमन से दूर तक भूखी, नंगी, कराहती जनता को दबा रखना असंभव है. इसीलिए दमन के साथ ही बापू के नाम पर राजनीतिक मूर्तिपूजा उनने जारी कर दी है. स्थान-स्थान पर महात्माजी की मूर्तियां बन चुकी और तेजी से बन रही हैं, जिनके पंडे वही खाजा टोपी वाले बन रहे हैं.

गांधी की आत्मा को खून के आंसू रूलाने वाले ये बाबू दिनरात उनकी सत्य-अहिंसा को एक ओर बेमुख्वती से कत्ल करते हैं. दूसरी ओर उनकी जय बोलते और ‘रघुपति राघव राजा राम’ गाकर भोली जनता पर मिस्मरिज्म वाला जादू चलाना चाहते हैं. इनके कुकर्मों से जनता ऊबी है. लेकिन धार्मिक पंडों से क्या कम ऊबी है?

फिर भी यदि उन पंडों के पांव पड़ती और चढ़वा चढाती है तो इन नये राजनीतिक पंडों को भी पैसे और वोट का चढावा ज़रूर चढायेगी, इसी ख्याल से महात्मा गांधी जी के नाम पर पर पंडागिरी चालू हो रही है जो निहायत ही खतरनाक होगी. धार्मिक पंडागिरी चालू हे रही है जो निहायत ही खतरनाक होगी. धार्मिक पंडागिरि में तो सुधार हो सकती है, वह मिट सकती है. मगर इसमें सुधार की गुंजाइश कहां?

इसलिए यह पनपने ही न पाये, यही करना होगा. इसके विरूद्ध अभी से जेहाद बोलना होगा. नहीं तो किसान-मजदूर मर जायेंगे यह ध्रुव सत्य है. वे बाबू पांडे ‘गांधी जी की जय’ और ‘रघुपति राघव’ को अपना राजनीतिक हथकंडा बनाने जा रहे हैं, याद रहे. इसलिए हमें इसे मटियामेट करना होगा.

निरी मक्कारी

जो समझते हैं कि ये बातें महात्मा गांधी के प्रति इन बाबुओं की भक्ति की सूचक हैं वे भूलते हैं. इन्हें उस भक्ति से क्या ताल्लुक? इन्हें तो अपना पाप छिपाना और उल्लू सीध करना ठहरा और इनने देखा कि अगर कंठीमाला और राम नाम के पीछे सारे कुकर्म छिप जाते हैं तो हम भी नये किस्म के राम नाम और नई कंठी माला तैया करें. इनकी यह निजी राजनीतिक कालाबाजारी है.

यह जयजयकार, यह रामधुन और यह चर्खा धुनकी कोरी आधुनिक कंठीमाला है. इन्हीं सब चीजों के पीछे राजनीतिक महा पाप छिपे-धुलेंगे. ऐसा इनने मान लिया है. धार्मिक फकीरों से ही धूर्ततापूर्ण राजनीतिक फकीरी का पाखंड इनने चालाकी से सीखा है.

महात्मा ने लाख मना किया कि माउंटबैटन योजना को लात मारो और भारत को छिन्न-भिन्न मत होने दो. तो क्या इन बाबुओं ने उनकी एक भी सुनी? बापू ने कहा कि कांग्रेस को तोड़कर लोक सेवक संघ बनाओ और इस तरह चुनावों में होने वाले घोरतम कुकर्मों में उसे मत सानो. परन्तु क्या इन राजनीतिक कालाबाजों ने उधर कान भी किया?

1947 से 15 अगस्त के बहुत पहले क्या इनने गांधी जी की अहिंसा को ठुकरा कर उन्हें मर्मान्तक वेदना नहीं पहुंचाई थी? तब उनके प्रति भक्ति का क्या सवाल? जीते पिता के ठुकराने और निरन्त निरादर करने के बाद मरने पर उसका पिंडा-पानी करना इसे ही कहते हैं. यही तो मक्कारी है, और किसानों का भला तब तक न होगा जब तक इस मक्कारी का पर्दाफाश असली तोर पर नहीं करते.

बाबू मठाधीश

इनकी राजनीतिक पंडागिरी का एक और पहलू भी देखिए. मठ-मन्दिरों और धार्मिक सम्पत्तियों के नियंत्रण एवं सुसंचालन के नमा पर इनने बिहार में धर्मादय सम्पत्ति बिल तैयार किया है जिसे कानूनी जामा पहनाने के लिये भी ये आतुर है. हमने यह बिल पढ़ा है. यदि उसे कानूनी रूप मिला तो वर्तमान महन्तों एवं पंडे पुजारियों का स्थान ये ‘‘खाजा टोपी’ धारी बाबू ले लेंगे और उसकी सम्पत्ति या तो चुनावों में लगेगी या इनके तथा इनके चेले चाटियों के पेट में समायेगी, यह ध्रुव सत्य है.

मठ-मन्दिरों के प्रभाव से भी चुनाव में काफी फायदा उठाया जायेगा. जिनने राजनीतिक और अर्थनीति में सभी कुकर्म खुलके किये, जो ऐसा करने में आज ज़रा भी हिचकते, वह धर्मनीति को सीधे फांसी लटकाकर सारी सम्पत्ति को द्रविड प्राणायाम के द्वारा डकार जाने में सांस भी न लें.

मठमंदिर को मिटा देना है तो साफ कहिये. द्रविड प्राणायाम की क्या जरूरत? उन्हें यदि वर्तमान पंडेपुजारी और महन्त मिट्टी में मिला रहे हैं तो बाबू लोग उससे भी बुरा करेंगे. अप्रत्यक्ष संगठित लूट प्रत्यक्ष लूट से कहीं बुरी है. क्योंकि पकड़ी नहीं जा सकती है. यह बिल अप्रत्यक्ष लूट का रास्ता साफ करता है. सुधार तो इससे होगा नहीं.

पंजाब में सिखधर्म के मठमन्दिरों का संशोधन सुधार जैसा संगठित सिखों ने किया और संघर्ष के द्वारा उन्हें गुरू द्वारा प्रबंधक कमेटी के हवाले किया, वह बात हिन्दू-मस्लिम मठमन्दिरों के बारे में होगी. तभी इनका उद्धार होगा. जो साधु फकीर और पंडित राष्ट्रवादी, जनवादी और सर्वभूतहितवादी है, और आज ऐसों की कमी नहीं है, उनकी ही राय से उन्हीं के तत्वावधान में मठमन्दिरों का उद्धार या संहार जो भी उचित हो होना ठीक है. बाबू भैयों और दूसरों को इसमें टांग अडाने का हक़ नहीं. मगर इसका श्रीगणेश वे साधु फकीर और पंडित ही करेंगे, उन्हीं का यह हक़ है.

यह भी बात है कि धर्म का प्रश्न पेचीदा और खतरनाक है. आज यह सवाल नहीं कि ये मठमंदिर भले हैं या बुरे. चाहे वे जो भी हों, जैसे भी हों, इनके पीछे हजारों वर्षों की अनन्त लोगों की भावना है जो बड़ी ही मज़बूत है. धीरे-धीरे उसमें खराबी आई है सही. फिर भी वह अपनी जगह पर है और उसके संबंध में कुछ उलट फेर करने के पूर्व जनता के सामने वह प्रश्न जाना चाहिए. आज जो असेम्बली है उसके सदस्यों के चुनाव के साथ यह सवाल उठाया गया न था.

फलतः जनता ने इसके बारे में अपनी कोई राय न दी. इतने महान प्रश्न पर जब तक जनमत न लिया जाये असेम्बली को कोई हक नहीं है कि बोले, सो भी बुनियादी परिवर्तन के लिये. यह भी सही है कि जब तक बुनियादी परिवर्तन न हों, जो इस मामले में अधिकार पूर्वक बोल नहीं सकते, वही इसी के लिए कानून बनायें. यह सरासर गलत है. उन्हें इसमें हाथ डालने का हक़ नहीं है. फिर भी राजनीतिक लाभ के लिये इसमें दखल देने पर तुले बैठे बाबुओं को हम आगाह दें कि अलग, अलग दूर दूर…

संस्कृति शिक्षा

ये बाबू आजा की शिक्षा के साथ मखौल कर रहे हैं, खासकर संस्कृति शिक्षा के साथ. मिडिल स्कूल में दो चार संस्कृत की किताबें पढ़ाने से संस्कृत का उद्धार होने की बजाय यह अधकचरी बन जायेगी और देश में अधकचरे संस्कृतज्ञों की बाढ़ लायेगी. फिर तो प्रागाढ़ विद्वानों और संस्कृत के महारथियों को कोई पूछेगा तक नहीं.

आज संस्कृत साहित्य के अगाध समुद्र के महामंथन की आवश्यकता है जिससे अमूल्य रत्न किनलें. घर-घर, गांव-गांव मथानी चलाने से वह काम न चलेगा. मुल्क में सैकड़ों संस्कृत विश्वविद्यालय हों और हजारों अन्वेषण शालाएं हां, जहां साहित्य, आयुर्वेद आदि के संबंध में सभी प्रकार के अन्वेषण, सब तरह की खोज निराबाध चले. एतदर्थ प्रत्येक प्रांतीय सरकारों को करोड़ रूपये हर साल खर्चने होंगे. संस्कृत सरकारों को करोड़ रूपये हर साल खर्चने होंगे.

संस्कृत के मुख-चुम्बर मात्र की जगह सर्वागीण प्रगाढ़ आलिंगन की आवश्यकता है. उसे पुष्ट-पौढ़ बनाने की जगह दूषित कलुचित करने का यह प्रयत्न निन्दनीय है. यह सही है कि कुछ नामधारी पंडितों को टुकड़े मिलेंगे और लोगों को धार्मिक भावना की तुष्टि भी होगी. इस तरह शासकों के पोषकों का एक नया दल देश में तैयार होगा जो हांजी, हांजी करेगा.

मध्यमा परीक्षोतीर्ण लोग आगे बढ़ने के बजाय टुकड़ खोरी में लगेंगे. संस्कृत विद्या शान और सम्मान की वस्तु रही है, न कि महज टुकड़े खोरी की. उसे उस उच्च स्थान से गिराने का राजनीतिक कुयत्न बर्दाश्त के बाहर है. मैं संस्कृत का सदा से प्रेमी रहा हूं और जीवन का सुन्दर भाग उस साहित्य के मंथन में गुजारा है. इसी से मुझे इस बात का दर्द है.

(स्वामी सहजानन्द का अध्यक्षीय भाषण बिहार प्रान्तीय संयुक्त किसान सम्मेलन 12-13 मार्च, 1949 ई. ढकाइच, जिला शाहाबाद)

नोट: स्वामी सहजानन्द सरस्वती (1889-1950) भारत के राष्ट्रवादी नेता एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और किसान आन्दोलन के जनक थे.

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