एडवोकेट मुहम्मद शोएब : इंसाफ की जंग के एक अहम योद्धा

Beyond Headlines
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लखनऊ में इन दिनों खालिद मुजाहिद के इंसाफ की जंग पिछले 25 दिनों से जारी है. इस जंग में एक अहम योद्धा एडवोकेट मुहम्मद शोएब हैं, जो रिहाई मंच के अध्यक्ष हैं. लम्बे समय से आतंकवाद के नाम पर गिरफ्तार मुस्लिम नौजवानों का मुक़दमा उत्तर प्रदेश के विभिन्न न्यायालयों में यह लड़ रहे हैं. इनकी नज़र में यह सिर्फ एक बेगुनाह हैं. इसीलिए बेगुनाहों के मुद्दों पर लगातार बोलने और इनके मुक़दमे लड़ने की वजह से कई बार जानलेवा हमले भी हुए, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी. इंसाफ के लिए जुल्म के खिलाफ उनका जंग अभी भी जारी है. BeyondHeadlines के Afroz Alam Sahil ने उनसे कई मुद्दों पर विशेष बातचीत की. पेश है उनसे बातचीत के प्रमुख अंश:

advocate mohammad shoaibक्या सियासत इंसाफ पर हावी हो रही है?

सियासत तो इंसाफ पर हावी हो ही रही है, साथ में साम्प्रदायिकता भी पूरी से हर क्षेत्र में हावी है, जो देश के लिए ज़्यादा खतरनाक है. सच तो यह है कि आज हमारी न्यायपालिका भी इससे नहीं बच पाई है.

साम्प्रदायिकता कैसे हावी हो गई है और न्यायपालिका के बारे में आप कैसे यह बात कह सकते हैं ?

मेरे पास इसके अनगिनत मिसालें हैं. मिसाल के तौर पर पहला मामला यह है कि मैं फैजाबाद ब्लास्ट केस में तारिक़ कासमी, खालिद मुजाहिद, सज्जादूर्रहमान और मोहम्मद अख्तर वाणी का केस देख रहा हूं. इनका केस सेंकेंड एडिश्नल सेशन जज आर.के. गौतम के अदालत में था. दरअसल सेशन जज के यहां से ट्रांसफर होकर यह केस इनके अदालत में गया था. पहली तारीख़ पर जब मैं कोर्ट पहुंचा तो कोर्ट के बाहर पहले तो वहां के वकीलों ने मेरा घेराव किया. हमला करने की भी कोशिश की गई. हम किसी तरह से इससे छूटकारा पाएं. फिर मुझे अदालत के सामने ही चार्जशीट की नक़ल मुझे दी गई, जो अधूरी थी और पढ़ने के लायक नहीं थी.

जज ने मुझसे चार्ज पर बहस करने को कहा. इस पर मैंने चार्जशीट मुक़म्मल व न पढ़ पाने लायक होने की शिकायत करते हुए दूसरी तारीख़ देने को कहा, लेकिन जज ने बग़ैर मुझे सुने हुए इसी दिन चार्ज फ्रेम कर दिया.

दूसरा वाक्या यह है कि उसी कोर्ट में एक दिन कोर्ट हाउस के बाद बातचीत के दौरान उसी जज से मेरे यह पूछने पर कि आपका संबंध कहां से है, तो उन्होंने कहा कि अगर मैं कहूं कि आपके घर से 4 किलो मीटर की दूरी पर मेरा घर है तो? जवाब में मैंने कहा कि मैं आप पर बेजा असर डालने के लिए यह नहीं पूछ रहा था.

एक बार फिर उसी जज ने एक दिन बातचीत के दौरान कहा कि उनका एक मुसलमान दोस्त आरएसएस का सदस्य रहा है. मैंने इस बात को बस चुपचाप सुन लिया. जब बाद में मैंने पता लगाया तो मालूम हुआ कि जज का गांव खालिद मुजाहिद के गांव  मड़ियाहूं से 4 कि.मी. दूरी पर है. और छानबीन करने पर मालूम चला कि उसका पूरा खानदान आरएसएस का सदस्य है.

वो अक्सर गवाहों से मुल्जिमान की पहचान कराने की कोशिश करता था और गवाहों का बयान अपने हिसाब से लिखता था. इसलिए उसके सामने दरखास्त देकर कहा कि मुल्ज़िमान को आरएसएस वालों ने पुलिस से मिलकर झूठा फंसाया है और मिली हुई जानकारी के मुताबिक आरएसएस का सदस्य होने के नाते जज खुद इस मुक़दमें में हितबद्ध पक्षकार हैं. हितबद्ध पक्षकार को मुक़दमा अपने सामने नहीं रखना चाहिए. इसलिए वो मुक़दमें को हस्तांतरित कर दें. लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. मजबूरन हमें लिखकर देना पड़ा कि हमें विश्वास है कि आपके सामने अभियुक्तों को हम न्याय नहीं दिला सकेंगे. इसलिए हम खुद मुक़दमें से हटे जा रहे हैं. हमारे मुक़दमें से हटने के बाद जज मुल्ज़िमों पर दबाव बनाकर उन्हें न्याय-मित्र मुहैय्या कराना चाह रहा था, लेकिन अभियुक्त इस पर तैय्यार नहीं हुए. उन्होंने कहा कि हम अपनी पसंद का वकील कर रखा है और हम उन्हीं से अपना मुक़दमा करवाएंगे. इस जवाब के बाद उसे मजबूर होकर अपना हस्तांतरण करवा लिया. उसके बाद कई बार मुझ पर हमला करवाया गया. ऐसी न जाने कितनी ही कहानियां मैं आपको बता सकता हूं, जहां ही साम्प्रदायिक है.

क्या उत्तर प्रदेश सरकार मुसलमानों को सिर्फ लालच दे रही है, हक़ नहीं?

पूरी तरह सिर्फ और सिर्फ लालच  दे रही है. सरकार खुद ही 27 दंगे कबूल कर रही है, लेकिन मेरे जैसा आदमी उसे दंगा न कहकर मुसलमानों पर हमला कहता है, वो इसलिए कि इसमें जान व माल का नुक़सान सिर्फ और सिर्फ मुसलमानों का हुआ है…

मुसलमानों का नुक़सान पहुंचाकर उनका वोट कैसे हासिल किया जा सकता है और कैसे इनका हक़ मारा जा रहा है?

यही तो सरकार का खेल है. इन्हें नुक़सान पहुंचाने के बाद मुआवज़ा देकर उन्हें खुश करके फिर से वोट हासिल करने की सियासत की कोशिश की जा रही है. सपा सरकार ने यूपी असेम्बली के पहले जो चुनावी वादें किए गए थे, उनमें से कोई भी वादा पूरा नहीं किया गया. निमेष कमीशन की रिपोर्ट 31 अगस्त, 2012 को सरकार को सौंप दी गई लेकिन कमीशन ऑफ इंक्वायरी एक्ट के तहत 6 महीने के अंदर उसे विधान-सभा के पटल पर नहीं रखा गया. अगर यह रिपोर्ट विधान-सभा के पटल पर समय से रख दी गई होती तो उसके बाद यह मौक़ा था कि तारिक क़ासमी और खालिद मुजाहिद के खिलाफ चल रहे मुक़दमों की अग्रिम विवेचना शुरू कराई जाती, जिससे इन बेगुनाहों को मुक़दमों से बरी कर दिया गया होता और खालिद मुजाहिद की जान बच गई होती. यही नहीं, अग्रिम विवेचना से असली दोषियों का चेहरा सामने आता और विस्फोट में मारे गए लोगों को न्याय मिल पाता, लेकिन ऐसा न करके असली दोषियों को बचाने की कोशिश की गई. विवेचना में विवेचक ने  इंस्टीटृयूट ऑफ डिफेंस स्टडीज एण्ड एनालिशिश की तरफ से  श्री ख्रुश्चेव की ‘हुजी आफ्टर द डेथ ऑफ इट्स इंडिया चीफ’ के नाम से एक कमेंट है जिसे केस डायरी के साथ मुक़दमें में दाखिल किया गया है, जिसमें लिखी हुई इस बात को कहा गया है कि ‘हुजी’ ने ही मक्का मस्जिद, अजमेर दरगाह, समझौता एक्सप्रेस और यूपी कोर्ट ब्लास्ट किए हैं. यह रिपोर्ट 13 फरवरी 2008 की है. लेकिन सारी दुनिया जानती है कि बाद में मक्का मस्जिद, अजमेर दरगाह और समझौता एक्सप्रेस मामले में किसका नाम आया है. लेकिन यूपी में इनका नाम इससे दूर रखा गया. सच तो यह है कि इस रिपोर्ट के मुताबिक यूपी कोर्ट ब्लास्ट में भी यही लोग ज़िम्मेदार पाए जाते.

इंसाफ की लड़ाई में सबसे बड़ी दिक्कत क्या है, सरकार का रवैया या क़ानूनी पेचिदगियां..?

दोनों ही परेशानी का सबब हैं. वैसे भी क़ानूनी पेचिदगियां भी सरकार की तरफ से ही आती हैं. जैसे तारिक़ कासमी व खालिद मुजाहिद के मामले में अग्रिम विवेचना का आदेश न करके मुक़दमा  वापसी का आदेश दिया गया और अदालत को दी गई दरखास्त में आधार ऐसे दर्शाए गए जो क़ानून के मुताबिक टिकने योग्य नहीं थे.

क्या खालिद मुजाहिद की मौत का सियासी असर भी होगा?

सियासत पर असर पड़ने की काफी उम्मीदें हैं. यह बात आम चर्चा में है कि सरकार ने खालिद को अपने वादे के मुताबिक मुक़दमें से तो रिहा नहीं किया लेकिन इस दुनिया से ज़रूर रिहा कर दिया. ये बात सिर्फ मुसलमानों में नहीं, बल्कि आम जन-साधारण में भी आम हो चली है कि सपा सरकार भाजपा से मिलकर खेल खेल रही है.

क्या यह लड़ाई इंसाफ की लड़ाई न बनकर हिन्दू-मुस्लिम की लड़ाई बन गई है?

खालिद मुजाहिद की हत्या को लेकर इंसाफ की पूरी लड़ाई में हिन्दू-मुस्लिम दोनों एक साथ हैं. और ये सिर्फ मुसलमानों की लड़ाई नहीं रह गई है. हमारे साथ हर कोई है चाहे वो धरना हो या कानूनी लड़ाई…

मौजूदा हालात के बारे में क्या कहना चाहेंगे?

बहुत सीधी सी बात है कि खालिद की मौत जिन हालात में हुए हैं, वो संदेह से परे नहीं हैं. फैज़ाबाद कोर्ट में खालिद को तंदुरूस्त पाया गया. 18 मई, 2013 को खालिद, तारिक़, सज्जादूर्रहमान और मो. अख्तर वाणी को साढ़े तीन बजे के करीब फैज़ाबाद जेल कोर्ट से निकाल कर गाड़ी में बिठाया गया. रास्ते में खालिद मुजाहिद कैसे बेहोश हुए यह उनके साथियों को भी पता नहीं लग पाया. उन्होंने बाराबंकी ज़िला अस्पताल में खालिद को ज़िन्दा पहुंचाया. अस्पताल के अंदर जाने के लिए कहने पर भी उसके अंदर किसी साथी को अंदर नहीं जाने दिया गया और 18-20 मिनट के बाद तक उन लोगों से यह बताया जाता रहा कि आईसीयू में खालिद की जांच चल रही है. उसके बाद पंचनामा में सपा कार्यकर्ताओं को गवाह बनाया जाना, अस्पताल ले जाने के समय से ही पूरे प्रशासन के ज़िम्मेदारों का अस्पताल में रहना, खालिद मुजाहिद के शरीर पर पाई गई चोटों का Anti-mortem Injuries के रूप में न दर्ज किया जाना, पांच डॉक्टरों की टीम द्वारा मौत का कारण न बताए जाने के बावजूद प्रदेश के मुख्यमंत्री तथा सपा के दूसरे नेताओं द्वारा खालिद मुजाहिद की मौत को स्वाभाविक या बीमारी के कारण होना बताया जाना दर्शाता है कि खालिद मुजाहिद की हत्या उच्च स्तर पर की गई है, जिसमें शासन तथा प्रशासन के तमाम ज़िम्मेदारों का हाथ है.

इंसाफ की इस लड़ाई में आपको कितना समय और लगने का अंदेशा है?

अभी भी इंसाफ के लिए लंबी लड़ाई बाकी है. सिर्फ न्यायालयों में लड़ना हो तो अभियोग पक्ष के सभी गवाहों के बयान हो जाने के बाद बचाव पक्ष को भी अपने गवाह पेश करने होंगे जो शायद एक साल में भी पूरा न हो सके. लेकिन अगर सरकार की नियत साफ हो तो निमेष रिपोर्ट के मुताबिक बेगुनाह पाए जाने के कारण तारिक क़ासमी और उनके साथियों को रिहा करके समयबद्ध अग्रिम विवेचना प्रारंभ की जा सकती है. यही शीघ्र न्याय का अकेला रास्ता है.

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