उत्तराखंड की तबाही का ज़िम्मेदार कौन?

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Anurag Bakshi for BeyondHeadlines

केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय जहां पर्यावरण का हवाला देकर तमाम बड़ी औद्योगिक परियोजनाओं पर अड़ंगा लगाने से बाज़ नहीं आता, वहीं जब बात पहाड़ी राज्यों में अतिक्रमण या गलत विकास नीतियों की होती है तो उसकी सक्रियता शायद ही देखने को मिलती है. ऊर्जा उत्पादन के नाम पर बांधों और पन-बिजली परियोजनाएं की बाढ़ सी आ गई है. लेकिन पर्यावरण मंत्रालय को इसमें कोई खामी नज़र नहीं आती.

Photo Courtesy: ibnlive.in.comदरअसल यह मंत्रालय प्रधानमंत्री कार्यालय के इशारे पर काम करता है और कोई भी निर्णय सरकार के हित और इच्छा के अनुरूप करता है. भारत समेत दुनिया के तमाम विशेषज्ञ व पर्यावरणविद बार-बार आगाह करते रहते हैं कि उत्तराखंड का पहाड़ कच्चा है और यह अधिक भार वहन करने के योग्य नहीं है. यहां ऐसी गतिविधियां किसी के हित में नहीं है, लेकिन इन सुझावों को अनसुना करके सरकार मनमर्जी चलाती आ रही है.

राष्ट्रीय नदी प्राधिकरण और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का अध्यक्ष होने के कारण यह प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी बनती है कि वह इसकी निगरानी करें और समुचित क़दम उठाएं, लेकिन उत्तराखंड में 2007 में आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के गठन के बावजूद आज तक इसकी एक भी बैठक नहीं हुई, न ही इस दिशा में केंद्र ने कोई निर्देश दिए.

उत्तराखंड या दूसरे पहाड़ी राज्यों में प्राकृतिक आपदा का आना अस्वाभाविक बात नहीं, लेकिन जिस तरह केदारनाथ और बद्रीनाथ में प्रकृति का रौद्र रूप देखने-सुनने को मिला वह हमारी चिंता को बढ़ाता है. यह चिंता इसलिए कहीं अधिक है, क्योंकि यह प्राकृतिक से कहीं ज्यादा मानवीय आपदा है. जो दिन प्रतिदिन दिन बढ़ती जा रही हैं.  ऐसी आपदाएं भविष्य में और बढ़ें तो आश्चर्य नहीं, क्योंकि हमारी सरकार ने जो मॉडल चुना है वह विकास का नहीं विनाश का है.

वन क्षेत्र में अंधाधुंध चलती आरी, पहाड़ों पर होटलों की बढ़ती संख्या, नदियों के बहाव क्षेत्र का अतिक्रमण करके बस्तियों की बसावट आपदाओं को आमंत्रित कर रही हैं. विकास के नाम पर नियमों को ताक पर रखकर दुकानें और भवन खड़े किए जा रहे हैं. बड़े कारपोरेट कंपनियों को प्राकृतिक संपदा के दोहन की खुली छूट दी जा रही है. तीर्थस्थल को पर्यटक स्थल के रूप में तब्दील कर दिया गया है और इसे पर्वतीय राज्य के विकास का नया आर्थिक आधार बताया जा रहा है.

सरकार सालाना पर्यटकों की संख्या बढ़ाने का प्रचार करती है. लेकिन यह सब करते हुए वह विशेषज्ञों के सुझावों को भूल जाती है कि इस तरह के कार्यो से राज्य में नई आपदाओं का आगमन होगा, जिसका कई गुना ज्यादा खामियाजा भुगतना होगा और वास्तव में यही सब हो भी रहा है.

कांग्रेस या भाजपा में से चाहे जिस दल की सरकार हो, सबने परिणामों की परवाह किए बगैर प्राकृतिक संसाधनों जल, वन और खनिज का जमकर दोहन करने का काम किया है. लिहाजा कई जगहों पर नदियां वास्तव में सूख गई हैं. हिमालय के पर्यावरण से इस तरह की गंभीर छेड़छाड़ कभी किसी के लिए चिंता का मुद्दा नहीं रहा.

अब जब सेना और अन्य के अथक प्रयासों से एक लाख से अधिक लोगों को बचाने का अभियान अंतिम दौर में पहुंच चुका है. तब हमारे नीति-नियंताओं के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वे उन कारणों का निवारण करने पर गौर करें जो उत्तराखंड की तबाही का कारण बने. नि:संदेह बेहिसाब बारिश, प्रलयंकारी बाढ़ और क़हर बरपाने वाला भूस्खलन दैवीय आपदा का रूप लिए हुए था. लेकिन यह सभी को समझने की ज़रूरत है कि उसे इतना भीषण रूप लेने से रोका जा सकता था.

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