न दूसरी जातियों के और न ही राजनीति के…

Beyond Headlines
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Anurag Bakshi for Beyond Headlines

राजनेताओं को झटका देने वाला निर्णय इलाहाबाद हाईकोर्ट का है. इस निर्णय के तहत राजनीतिक दलों को जातीय रैलियां करने से रोक दिया गया है. यह निर्णय उत्तर प्रदेश के राजनीतिक दलों और विशेष रूप से बसपा एवं सपा की ओर से धड़ाधड़ जातीय सम्मेलन करने के खिलाफ दायर की गई एक याचिका पर दिया गया है.

बसपा ने 40 जिलों में ब्राह्मण सम्मेलन किए थे. सपा भी कुछ इसी तर्ज पर इस तरह के आयोजन करने में लगी हुई थी. हालांकि ज्यादातर राजनीतिक दलों ने इस फैसले का स्वागत किया है, लेकिन उनकी भाव भंगिमा बता रही है कि उन्हें यह फैसला रास नहीं आया.

caste based politicsवे तर्क दे रहे हैं कि जाति तो भारतीय समाज की एक सच्चाई है. दरअसल हमारे राजनीतिक दल जाति के आधार पर राजनीति करने में माहिर हैं. कुछ राजनीतिक दल तो जाति विशेष की राजनीति करने के लिए ही जाने जाते हैं या फिर खास जातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं. वे इसे ही अपनी ताकत बताते हैं.

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने राजनीतिक दलों की जाति आधारित रैलियों पर रोक लगा कर एक बढ़ती बीमारी का इलाज करने का प्रयास किया है. भारतीय समाज में हर धर्म में जाति है.  इस खुले सच को कौन नहीं जानता.

भारतीय संविधान तक में जाति को राष्ट्रीय एकता में बाधक पाया गया है. आजादी के बाद बने भारतीय जनतंत्र में भी जाति और जातिवाद को दीमक के रूप में देखा गया है. लेकिन चुनावी राजनीति में जातिवाद सफलता का मंत्र रहा है. चुनाव में जीत के लिए राजनीतिक दल जातिवाद का कार्ड चलते हैं. वे उम्मीदवारों का चुनाव भी जातीय गणित के आधार पर करते हैं. ऐसे तो संविधान और जनतांत्रिक प्रणाली को मानने वाले हर राजनीतिक दल की यह जिम्मेदारी है कि वह राष्ट्रीयता और जनतंत्र की जातिवाद से रक्षा करे. लेकिन अब तक होता इसका उलटा ही रहा है.

उत्तर प्रदेश और बिहार में पिछड़ों और दलितों की राजनीति करने वाले दलों को यह गलतफहमी हो गई. केवल जातिवादी कार्ड खेलकर वे सत्ता का गणित बैठा लेंगे. निस्संदेह जातिवाद से चुनाव में बहुमत भी मिला है. लेकिन क्या यह देश के वंचितों का वास्तव में सशक्तिकरण कर पाया है?

इसके उत्तर में हमें शिक्षा, रोजगार, व्यवसाय और संपत्ति के पैमानों को परिभाषित करना होगा. बिहार और उत्तर प्रदेश इस की राजनीति की आंधी से तो प्रभावित हैं. लेकिन पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों को सिवाय प्रतीकात्मक राहत के कुछ भी हासिल नहीं हुआ है. जातिवाद में उलझने के कारण अब दलित बनाम महादलित, दलित बनाम पिछड़े, पिछड़े बनाम अतिपिछड़े और दलित-पिछड़े बनाम अगड़े जैसे अनेक समीकरण उभरे हैं.

ऐसा लगता है कि समूची राजनीतिक जमात जातिवाद में निहित बांटो और राज करो के महामंत्र का जाप कर रही है. वंचितों की मुक्ति का रास्ता तो वैसे ही संकरा बना हुआ है जैसे पहले राजाओं, नवाबों और बाद में ब्रिटिश राज के दौर में था.

भले ही उच्च न्यायालय के फैसले के बाद सभी राजनीतिक दल जाति आधारित सभा-सम्मेलनों पर रोक का स्वागत कर रहे हों. लेकिन उनके पास इस सवाल का शायद ही कोई जवाब हो कि यदि इस तरह के आयोजन अनुचित थे तो वे ठीक यही काम क्यों करने में लगे थे?

जातिगत रैलियों पर रोक वाले फैसले का स्वागत उन दलों की ओर से भी हुआ जिनकी राजनीति ही इसी पर टिकी हुई है. भाजपा प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने सांसदों और विधायकों को सजा पाने के बाद भी बचाए रखने की अभी तक चल रही व्यवस्था को कुछ विसंगतियों वाला तो बताया पर फैसले को ठीक से पढ़ने के बाद ही अंतिम राय देने की बात कही. कांग्रेस के कपिल सिब्बल ने तो विसंगति को भी नहीं कबूला और सीधे अदालती फैसले को पढ़ने और विचार करने की बात कही.

माकपा ने सर्वोच्च अदालत द्वारा अपील ठुकराने या सजायाफ्ता सांसद-विधायक द्वारा अपील न करने तक अयोग्यता की बात को अनुचित बताया. जाति वाले सवाल पर अभी मायावती, मुलायम, लालू और रामविलास पासवान आदि की राय नहीं आई है जो मुख्यत सामाजिक न्याय की राजनीति करते रहे हैं.

कुल मिलाकर यह तय मानिए कि सरकार और राजनीतिक दल हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठेंगे. उनके पास दो विकल्प हैं- पहला अदालत से फैसले पर पुनर्विचार की अपील या संसद से संविधान संशोधन कराने का प्रयास करना…

जाहिर है ये काम मुश्किल है और इससे राजनेताओं की प्रतिष्ठा और छवि और खराब होगी. पर हमें नहीं भूलना चाहिए कि राजनीति का अपराधीकरण नेताओं ने जानबूझकर किया है. अपराधी पृष्ठभूमि वाले ये तथाकथित नेता जल्द ही उद्यमी बन जाते हैं, जिनके लिए सिद्धांत और नैतिकता मायने नहीं रखती.

उच्च न्यायालय के फैसले से जाति आधारित सम्मेलनों पर रोक अवश्य लग जाएगी. लेकिन इसके आसार कम ही हैं कि राजनीति और चुनाव के तौर-तरीकों में जाति का इस्तेमाल बंद हो जाएगा. यह एक यथार्थ है कि सभी राजनीतिक दल पदाधिकारियों की नियुक्ति से लेकर प्रत्याशी चयन और प्रचार तक में जातीय समीकरणों को ही सबसे अधिक महत्व देने लगे हैं.

स्थिति तो यहां तक आ गई है कि उनकी समस्त चुनावी रणनीति ही जातीय समीकरणों पर आधारित होती है. बेहतर यह होगा कि राजनीतिक दल ही इस बुराई को दूर करने के लिए आगे आएं. उन्हें यह समझना होगा कि जाति विशेष को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए की जाने वाली राजनीति न तो संबंधित जाति के हित में है. न दूसरी जातियों के और न ही राजनीति के…

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