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BeyondHeadlines > India > क्या सपा सरकार आतंकी मुक़दमों की पुर्नविवेचना कराने का साहस रखती है?
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क्या सपा सरकार आतंकी मुक़दमों की पुर्नविवेचना कराने का साहस रखती है?

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published August 10, 2013 1 View
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7 Min Read
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BeyondHeaadlines News Desk

लखनऊ : रिहाई मंच ने आज एक संक्षिप्त रिपोर्ट जारी करते हुए कहा कि राज्य सरकार न्यायालय और जनता दोनों को गुमराह कर रही है. माननीय उच्च न्यायालय ने जो पत्रावलियां, आरोप पत्र और एफआईआर निचली अदालतों के रिकार्ड से तलब किए हैं उनसे भी सच्चाई सामने नहीं आएगी क्योंकि निचली अदालतों के रिकार्ड में सच्चाई है ही नहीं और सच्चाई को सामने लाने के लिए आतंकवाद से संबन्धी मामलों की पुर्नविवेचना/अग्रविवेचना कराना आवश्यक है. ऐसा न करके राज्य सरकार न्यायालय और जनता दोनों से सच्चाई छुपा रही है और गुमराह कर रही है.

The SP government has the courage to terrorist Purnvivecna of lawsuits?रिहाई मंच के प्रवक्ता ने कहा कि पिछले दिनों हमने गोरखपुर सीरियल ब्लास्ट पर एक रिपोर्ट जारी करते हुए राज्य सरकार से पुर्नविवेचना की मांग की थी, जिस पर आज तक सपा सरकार ने कोई क़दम नहीं उठाया है. आज का सबसे बड़ा प्रश्न है कि क्या सरकार यह समझती है कि यह मुक़दमें इसलिए वापिस लेने चाहिए कि क्योंकि इनमें आरोपियों का झूठा अभियोजन किया गया है? यदि सरकार की यही मंशा है तो सत्य को सामने के लिए साहस का परिचय देते हुए मामलों की पुर्नविवेचना क्यों नहीं कराती.

संक्षिप्त रिपोर्ट

रिहाई मंच ने इस समाचार पर कि माननीय उच्च न्यायालय लखनऊ की पूर्ण पीठ ने उन सभी मामलों की पत्रावलियां तलब की हैं जो आतंकवाद से संबन्धित मामले निचले न्यायालयों में विचाराधीन हैं जिन्हें वापस लेने के लिए सरकार ने आवेदन किया है, इस संबन्ध में रिहाई मंच का कहना है कि अन्तर्गत धारा 321 सीआरपीसी किसी भी मामले को राज्य सरकार वापस ले सकती है यदि संबन्धित सक्षम न्यायालय उसके लिए अपनी सहमति दे.

विधिक प्रक्रिया के अनुसार सरकार को मुकदमा वापस लेने के कारणों का उल्लेख अपने प्रार्थना पत्र में देना होता है परन्तु तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद के मामलों में सरकार ने मुकदमें वापसी के लिए दिए गए अपने प्रार्थना पत्रों में तथ्यों को छुपाया जो उसकी बदनियति का प्रमाण है. बाराबंकी न्यायालय के समक्ष सरकार ने निमेष आयोग की रिपोर्ट को प्रस्तुत नहीं किया, जिसमें यह उल्लेख है कि तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद की गिरफ्तारी और उनसे की गई बरामदगी फर्जी हैं.

चूंकी इन तथ्यों के आधार पर बाराबंकी के न्यायालय के समक्ष प्रार्थना पत्र प्रस्तुत ही नहीं किया गया इसलिए माननीय न्यायालय द्वारा इस पर विचार नहीं हो सका और यह प्रश्न अभी भी खुला है और इस पर गहन विवेचना की आवश्यकता है, इसलिए जो पत्रावलियां माननीय उच्च न्यायालय के समक्ष जाएंगी उनमें कहीं भी निमेष आयोग की रिपोर्ट और उन तथ्यों का उल्लेख नहीं होगा जिनमें यह कहा गया है कि तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद से की गई बरामदगी और उनकी गिरफ्तारी फर्जी है.

फैजाबाद, लखनऊ और गोरखपुर न्यायालय के समक्ष जो मुकदमें तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद के विरुद्ध लंबित हैं उन सभी में यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि जब तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद की गई गिरफ्तारी और उनसे बरामदगी फर्जी है तो इन जिला न्यायालयों के समक्ष दाखिल किए गए आरोप पत्र भी गलत तथ्यों के आधार पर हैं, क्योंकि यह सभी खालिद मुजाहिद और तारिक कासमी के कथित इकबालिया बयानों पर आधारित हैं जो फर्जी गिरफ्तारी के बाद रिकार्ड किए गए.

कानून और न्यायालय का उद्देश्य सत्य की खोज करना है और विधि का यह स्थापित मत है कि किसी भी बेगुनाह को सजा नहीं होनी चाहिए इसलिए माननीय न्यायालय को स्वतः निमेष आयोग की रिपोर्ट का संज्ञान लेते हुए मामले की पुर्नविवेचना के आदेश देने चाहिए.

जनहित याचिका नंबर 4683 (एमबी) सन 2013 रंजना अग्निहोत्री एवं अन्य अधिवक्ता गण द्वारा दाखिल की गयी है. इसमें जो बिन्दु उनके द्वारा उठाए गये हैं वे पूर्णतया विधिक महत्व के हैं और पूरी तरह एकेडमिक हैं जिनका तथ्यों से कोई संबन्ध नहीं है. न्यायालय को निम्न बिन्दुओं पर विचार करना है-

  1. क्या धारा 321 सीआरपीसी, संविधान के अनुच्छेद 14 की विरोधी है और इससे भारत की सार्वभौमिकता, अखण्डता और एकता को खतरा है?
  2. क्या धारा 321 सीआरपीसी उन अपराधों पर लागू नहीं हो सकती जो कि अनलॉफुल एक्टिविटी (प्रिवेंशन) एक्ट 1967 और अन्य दाण्डिक विधि तथा संविधान के 7वें शेड्यूल की सूची एक के बिन्दु नम्बर 1, 5, 12 के अंतर्गत दंडनीय अपराध हैं.
  3. क्या राज्य सरकार और सरकारी अधिवक्ता को यह अधिकार नहीं है कि वह उन मुकदमों को वापिस ले सके जो उपरोक्त कानूनों के अंतर्गत दंडनीय अपराध है और जिन्हें केन्द्र सरकार से मंजूरी मिलने के बाद ही वापस लिया जा सकता है.
  4. जब तक कि न्यायालय के समक्ष विचाराधीन मुकदमों का विधि अनुसार अंतिम निपटारा न हो जाय तब तक उन मुकदमों को वापिस न लिया जाय.
  5. उच्च न्यायालय राज्य सरकार द्वारा जारी किये गये उस आदेश को रद्द कर दे जिसमें आतंकी हमलों और बम ब्लास्ट के आरोप है और उससे संबंधित रिकार्ड को न्यायालय तलब करे.

हमारा मानना है कि उपरोक्त बिन्दु जो जनहित याचिका कर्ताओं ने उठाए हैं उन पर जो भी निर्णय माननीय उच्च न्यायालय से आयेगा उससे, कोई लाभ उन व्यक्तियों को नहीं होगा जो झूठे आरोपों में जेल में बंद हैं. विधि का यह स्थापित मत है कि सक्षम न्यायालय की सहमति के बिना कोई मुक़दमा वापिस नहीं हो सकता. विधि के इस सिद्धांत पर हमारा कोई विवाद नहीं है और न ही उन विधिक एकेडमिक बिंदुओं से कोई लेना-देना है जो याचिका कर्ताओं ने माननीय न्यायालय के समक्ष विचार के लिए प्रस्तुत किए है.

रिहाई मंच चाहता है कि मुक़दमें वापिस लेने वाली सरकार यदि यह समझती है कि इन व्यक्तियों पर झूठे आरोप लगाए गये हैं तो सरकार को चाहिए कि कवह सच्चाई न्यायालय के सामने रखे और मामलों की पुर्नविवेचना/अग्रविवेचना कराकर आरोप पत्रों को सक्षम न्यायालय से वापस ले. परन्तु सरकार ऐसा भी नहीं चाह रही है.

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