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Reading: दलितों को शिक्षा से महरूम करने की साज़िश
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BeyondHeadlines > India > दलितों को शिक्षा से महरूम करने की साज़िश
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दलितों को शिक्षा से महरूम करने की साज़िश

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published September 20, 2013 2 Views
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7 Min Read
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Fahmina Hussain for BeyondHeadlines

किसी भी समाज के तरक्की का रास्ता शिक्षा से शुरू होता है. अगर समाज का हर एक व्यक्ति शिक्षित होगा तो वह अपने अतीत से प्रेरणा लेकर अपने वर्तमान को बेहतर बनाते हुए अपने भविष्य को संवार सकता है. लेकिन समाज में आज भी ऐसे तत्व मौजूद हैं जो यह नहीं चाहते कि हमारे देश के दलितों का भविष्य बेहतर हो. इसीलिए इस आधुनिक कहे जाने वाले युग में भी दलितों के बच्चों को शिक्षा की रोशनी से महरूम रखने की साज़िशें ज़ोरों पर हैं.

यह घटना बिहार की है. 16 सितम्बर 2013, पंजाब के कपूरथला सैनिक स्कूल में प्रतियोगिता परीक्षा की बदौलत दाखिला पाने वाले रोहतास के शिवसागर थाना क्षेत्र के छात्र विशाल को स्कूल से बिना कोई कसूर निकाल दिया गया. छात्र के पिता का आरोप है कि बिहारी व दलित होने के कारण उनके बेटे को स्कूल से निकाला गया है. स्कूल प्रबंधन ने उनसे ज़बर्दस्ती आर्थिक रूप से सक्षम नहीं होने का पत्र लिखवाया. जबकि विशाल के पिता बताते कि वे मध्य विद्यालय बसंतपुर शिवराम में पदस्थापित हैं. उन्हें प्रतिमाह 35 हजार रुपए वेतन मिलता है. ऐसे में आर्थिक रूप से सक्षम नहीं होने बात बिल्कुल निराधार है. मेरे पुत्र के साथ नाइंसाफी की गई है. इसलिए अब वो राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग से लेकर न्यायालय तक का दरवाजा खटखटाएंगे.

educationदलित विद्यार्थी के साथ होने वाली ये कोई पहली घटना नहीं है. न जाने कितनी बार दलितों को इस कष्ट के गुजरना पड़ा है. एम्स की वो घटना आज भी दिल सहमा देती है, जिसमें मार्च 2010 को MBBS अंतिम वर्ष के एक दलित छात्र बालमुकुन्द भारती ने अपने हॉस्टल के कमरे में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी. एम्स प्रशासन ने अपना रटा रटाया बयान दिया था कि “उक्त छात्र एम्स के कठोर शैक्षणिक वातावरण से तालमेल नहीं बिठा पाने की वज़ह से गहरे डिप्रेशन में चला गया था.” अपने बेटे की लाश लेने आये बालमुकुन्द के पिता पर दबाव डाल कर हस्ताक्षर करवा लिए कि ‘इस मौत का एम्स प्रशासन से कोई लेना देना नहीं है.’ पर सच्चाई तो यह है कि डॉ बालमुकुन्द भारती को उसकी आत्महत्या करने से पहले ही मार डाला जा चुका था. आत्महत्या तो महज़ एक औपचारिकता भर थी. प्रोफेसरों के द्वारा अपशब्दों की मार, पीड़ा और प्रताड़ना, वरिष्ठ छात्रों से रैगिंग के नाम पर बुरी तरह से पिटाई खाने और कैम्पस की मुख्यधारा से पूरी तरह से कटने का एकमात्र कारण उसका दलित होना था.

यूनीसेफ के सहयोग से दलित आर्थिक आंदोलन व नेशनल कैंपेन ऑन दलित ह्यूमन राइट्स ने एक अध्ययन किया था और इसकी रिपोर्ट में यह इंगित था कि स्कूली बच्चों के साथ भेदभाव के चलते कई दलित बच्चे आगे की पढ़ाई नहीं कर पाते हैं. दलित युवाओं ने कभी यह कल्पना नहीं की होगी कि जिस पीड़ा को उनके पूर्वजों ने झेला है, उसके दंश आधुनिक कहे जाने वाले शिक्षण संस्थानों में चुभेंगे.

ऐसी ही एक घटना सामने आई थी बंगलौर में 18 जुलाई 2012 को, जिसमें एक निजी स्कूल में आर्थिक दृष्टि से कमजोर परिवारों से संबंध रखने वाले बच्चों के साथ कथित भेदभाव की गई. आरोप है कि स्कूल ने गरीब बच्चों के बाल काट दिए थे ताकि वो अन्य छात्रों से अलग दिखें. कथित भेदभाव के शिकार हुए बच्चों का संबंध अल्पसंख्यक और दलित समुदायों से है और उनका दाखिला शिक्षा के अधिकार कानून के तहत हुआ था.

उस समय दलित साम्राज्य स्थापना समीति के अध्यक्ष डी. नारायन ने बीबीसी से बातचीत में बताया था कि “दलित बच्चों को प्रार्थना सभा के दौरान अलग खड़ा किया जाता था और उन्हें मजबूर किया जाता था कि वो क्लास में पीछे बैठें.”

ये इकलौती घटना नहीं है, बल्कि शिक्षा के अधिकार कानून के लागू होने के बाद बड़े पैमाने पर गरीब बच्चों के साथ भेदभाव हो रहा है.

करीब दो वर्ष पहले यूजीसी देश के 11 बड़े राज्यों के करीब 600 गांवों के स्कूलों में जातीय भेदभाव को लेकर एक सर्वेक्षण कराया था. सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार करीब 40 फीसद सरकारी स्कूलों में दलित बच्चों को खाने के समय अलग या सबसे पीछे बैठाया जाता है.  मिड-डे मील का मक़सद बेशक सभी वर्गों के बच्चों को समान रूप से भोजन उपलब्ध कराना हो, लेकिन गांवों के अधिकांश स्कूलों में मिड-डे मील परोसते वक्त बच्चों को वर्णव्यवस्था के क्रम में बैठाया जाता है.

एक ऐसा ही एक घटना है बिहार में इसी साल फरवरी में घटित हुआ. पटना विश्वविद्यालय के भीमराव आंबेडकर कल्याण छात्रावास पर लाठी-डंडों और बमों से लैस दबंग तबकों के छात्रों ने हमला किया था और जातिसूचक गालियां देते हुए वहां मौजूद दलित विद्यार्थियों को बुरी तरह मारा-पीटा.

लोकतांत्रिक व्यवस्था ने संविधान का हवाला देते हुए दलित-पिछड़े छात्रों को शिक्षा के क्षेत्र में विशेष अवसर तो दिया, लेकिन दलित विरोधी मानसिकता को खत्म नहीं कर सका. आप ये कानून बना सकते हैं कि दलित और आदिवासियों के साथ जातिगत आधार पर भेदभाव या अपमान गैरजमानती अपराध हो सकता है, लेकिन इस मामले में आरोपी को तभी सजा दिला सकते हैं जब जुर्म साबित हो. जो अपमान आज इस वर्ग के छात्र-छात्राएं झेल रहे हैं, उसे साबित कर पाना असंभव जैसा है. इन छात्रों पर अक्सर ये आरोप लगा दिया जाता है कि ये छात्र अंग्रेजी नहीं जानने के कारण पिछड़ जाते हैं और फेल हो जाते हैं. कोई ऐसी व्यवस्था नहीं है जिसमें अलग-अलग वर्गो से आने वाले छात्र-छात्राओं को समान शिक्षा का स्तर दे. शिक्षा के बेतहाशा निजीकरण ने समान शिक्षा के सिद्धांत को खारिज कर दिया है.

ऐसे में आज तेजी से एक ऐसा तबका जन्म ले रहा है, जो ‘आरक्षित श्रेणी’ में होने के बावजूद आरक्षण नहीं चाहता. क्योंकि वो उस वेदना को जीना नहीं चाहता, जो उसकी पहचान सामने आते ही उसकी झोली में स्वत: आ जाती है. यह पीढ़ी अपने अस्तित्व को नकारने के लिए विवश है, क्योंकि वह उस जिल्लत से बचना चाहती है, जो उसकी प्रतिभा पर हावी होती है.

TAGGED:Conspiracy to deny education to Dalitsdalits and educationDalits being denied education
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