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Reading: मोदी-राहुल एक ही नाम, सबको सन्मति दे भगवान
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BeyondHeadlines > Edit/Op-Ed > मोदी-राहुल एक ही नाम, सबको सन्मति दे भगवान
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मोदी-राहुल एक ही नाम, सबको सन्मति दे भगवान

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published November 4, 2013 1 View
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20 Min Read
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 (आशुतोष आशु, (CNNIBN) के लेख  मुस्लिम वोट बैंक का मकड़जाल में एक प्रतिक्रिया)

Omair Anas for BeyondHeadlines

आज़ादी के बाद हिन्दुस्तान में मुसलमानों के बारे में देश कि सुरक्षा ऐजेंसियों, राजनितिक पार्टियों, प्रशासनिक संस्थानों का दृष्टिकोण देश के संविधान से नहीं बल्कि मुसलमानों के प्रति डर से संचालित हो रहा है. मुसलमानों से विभाजन कि कीमत उस वक्त तक वसूल कि जाती रहेगी जब तक उन्हें निचोड़ कर देश की ‘मुख्य धारा’ का अंग न बना दिया जाय. “मुसलमानों” का डर हिन्दू आबादी को एकता और अखंडता का टॉनिक पिलाता रहेगा. “देश” से गद्दारी के आरोप का डर मुसलमानों को कथित मुख्यधारा की ओर धकेलने के काम आएगा.

ये सब ऐसे ही नहीं है बल्कि संघ परिवार की राष्ट्रवाद की समझ जिसे गुरु गोलवलकर लिखित और संघ में बाइबिल के दर्जे को प्राप्त ‘विचार नवनीत’ समेत अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकों द्वारा देश भर में प्रचारित किया गया है. गोलवलकर ने अपनी किताब विचार नवनीत में साफ़-साफ़ मुसलमानों को आतंरिक सुरक्षा के दायरे में बयान किया है. उनकी किताब का परिचय लिखते हुए वेंकट राव लिखते हैं कि मुसलमानों के राष्ट्रीय इतिहास को फिर से लिखे जाने की ज़रुरत है, जिसमें मुसलमानों को अपने ‘राष्ट्रीय हीरों’ और उनके मूल्यों से परिचित कराया जाय.

बात बहुत साफ़ है एक नए इतिहास को गढ़ना संघ की विचारधारा का बहुत ज़रूरी अंग था जिसके लिए बहुत कोशिशे की गई हैं जिसके नतीजे में आज मुसलमानों के सामने एक ऐसी बहुसंख्यक आबादी का सामना है जो जो क़दम-क़दम पर मुसलमानों से ये पूछती है कि बताओ अकबर, शाहजहाँ, औरंगजेब, तुगलक, टीपू सुलतान के बारे में तुम्हारी किया राय है. हर क्लास रूम में छोटे छोटे हिन्दू मुस्लिम बच्चों के बीच में तर्क वितर्क सामान्य बात है. जितना ये सच है की बाबर की जन्मभूमि मुसलामानों का इतिहास नहीं बन सकती उतना ये भी सच है की संघ परिवार का थोपा गया. इतिहास भी उनका इतिहास नहीं बन सकता. कड़वा सच ये है की देश में हिन्दू मुस्लिम का साझा इतिहास संघ परिवार ने हाइजैक कर लिया है.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बारे में गुरु गोलवालकर बहुत पहले ही लिख चुके थे कि इस मुस्लिम पॉकेट को तोडना बहुत ज़रूरी है. गुरु गोलवलकर मुसलमानों के खतरे को परिभाषित करते हुए लिखते हैं कि मुसलमान अपने मुहल्लों की मिनी पाकिस्तान समझते हैं. एक दूसरी जगह वो लिखते हैं कि मुसलमानों को मुख्य धारा में लाना संभव ही नहीं है. जिन चुभते हुए सवालों को भारत का कोई मीडिया कभी नहीं छूना चाहता है. वो यही हैं कि देश के गाँव गाँव में पिछले साठ सालों में बच्चे बच्चे को ये सिखाया गया है कि मुसलमान इस देश में अलग तरह के लोग हैं और इनको अलग तरीके से ही निपटना चाहिए.

संघ की समझदारी में मुसलमान को साफ़ तौर पर देश की आन्तरिक सुरक्षा से जोड़ कर देखने पर जोर दिया गया है. क्या देश का प्रशासनिक, सेना और आन्तरिक सुरक्षा से जुड़े संस्थान संघ परिवार के राष्ट्रवाद  से प्रभावित हैं या नहीं इस पर मतभेद हो सकते हैं, लेकिन इसे सच मानने के बहुत से कारण हैं.

मोदी बनाम दीगर (राहुल, मुलायम, माया आदि) के चुनावी मुक़दमें में आशुतोष ने कई जायज़ सवालों की पड़ताल की है और कई अहम् सवालों से जानबूझकर या ऐसे ही कन्नी काट गए हैं. मोटे तौर पर उन्होंने भी इस चुनाव को मोदी बनाम दीगर तक सिमित रखने पर सहमती दिखाई है, लेकिन जब मुस्लिम वोट बैंक की बात होगी तो इस बहस का महत्व बढ़ जाता है. दूसरे सवालों की भी सामने लाना ज्यादा ईमानदारी की बात होगी. ये सही है कि मुसलमानों की हालत दलितों से भी गई गुज़री है और सच्चर कमिटी की रिपोर्ट ने इस को तथ्यों के आधार पर पूरी तरह से स्पष्ट कर दिया है. कई सारी सिफारिशें भी दी गई थीं लेकिन किसी पर भी ठीक से अमल नहीं हुआ. और आशुतोष जी का लेख इसी पर कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करके ख़त्म हो जाता है.

बात जानबूझ कर अधूरी छोड़ दी गई. ये नहीं बताया गया  कि क्या नरेंद्र मोदी अपने चुनावी मुद्दे में सच्चर कमिटी की सिफारिशों को लागू करने का वादा करेंगे. जाहिर सी बात है कभी नहीं. जो पार्टी ये कह चुकी हो कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने देश को बांटने का काम किया है, वो इस रिपोर्ट की सिफारिशों को लागू करना तो दूर की बात सत्ता में आने के बाद सबसे पहला काम प्रधानमंत्री के पंद्रह सूत्री कार्यक्रम को बंद करना होगा.

आशुतोष ने मुसलमानों की राजनीति को खौफ की राजनीति से जोड़ा है. खौफ की राजनीति के दो पहलु हो सकते हैं. एक ये कि मुसलमानों को डराया जा रहा है. किसी का हव्वा खड़ा करके, जैसे आजकल नरेंद्र मोदी बन गए हैं. लेकिन क्या आप इस बात को नकार सकते हैं कि देश कि सुरक्षा ऐजेंसियों, राजनितिक पार्टियों, प्रशासनिक संस्थानों में मुस्लिम विरोधी खौफ नहीं घुसाया गया है, जिसके नतीजे में देश की बहुसंख्यक आबादी के सामने मुसलमानों को साठ सालों से हव्वा बना कर खड़ा रखा गया है ताकि किसी भी हाल में एक भी मुसलमान इन संस्थानों में अपने अधिकारों के लिए घुसने न पाए.

अभी आप कहेंगे कि मुसलमान काबिल नहीं इसलिए वो वंचित हैं. लेकिन देश में भेदभाव का समाज शास्त्र आपका समर्थन नहीं करेगा. इसलिए मुस्लिम विमर्श को नया आयाम देने की ज़रुरत सिर्फ मुसलमानों के बीच में ही नहीं बल्कि देश की बहुसंख्यक आबादी में भी मुस्लिम विमर्श को बदलने की ज़रूरत है. आप कहते हैं कि मुसलमानों को यह नहीं बताया जा रहा है कि जब तक उनमें आधुनिक शिक्षा का प्रसार नहीं होगा, तब तक न तो उच्च नौकरियों में उनकी हिस्सेदारी बढ़ेगी और न ही उनकी आवाज़ कोई सुनेगा. लेकिन कोई देश की बहुसंख्यां आबादी और उनका प्रतिनिधित्व करने वाले संघ परिवार समेत नरम हिंदुत्व न्यूट्रल हिंदुत्व को ये कियों नहीं बताता कि मुसलमानों को बराबरी का हक़ देना, उन्हें शिक्षा और नौकरियों में आने देना देश की तरक्की के लिए बेहद ज़रुरी है. और वो देश की आन्तरिक सुरक्षा के लिए खतरा नहीं है जैसा कि देश भर में लिख पढ़कर और मीडिया में बोल-बोल कर प्रचार कर दिया गया है.

हाल ही में आईबी के बारे में पता चला है कि वो उम्मीदवारों के बैकग्राउंड चेक करने में ये पूछते हैं कि उनके मुस्लिम दोस्त कितने हैं और कौन कौन हैं? प्रशासनिक सतह पर सुरक्षा एजेंसियों के बीच में मुस्लिम इलाकों के बारे में नीति का मुख्य केंद्र सुरक्षा, आतंकवाद से जुड़े मुद्दे हैं. महाराष्ट्र सरकार के ख़ुफ़िया सर्कुलर की बात हो या फिर केरला की कांग्रेस सरकार द्वारा मुस्लिम नेताओं के फ़ोन टेप का मामला हो. देश की मीडिया राजनितिक कारणों से ये मानने को तैयार नहीं है कि इस देश में एक ऐसी समझ नीतिगत रूप से अमल में है जिसके तहत मुसलमानों को देश के नीति निर्माण में भागीदार नहीं बनाया जा सकता. मुसलमान नेताओं का सबसे अच्छा इस्तेमाल स्टेज पर मीठी बाते करने, वक्फ, हज, कब्रिस्तान, मदरसों और मौलवियों की चाटुकारिता करने भर तक है.

ऐसे में आशुतोष जी का ये तर्क देना कि हिन्दू वोट का एकजुट होना एक प्रतिक्रिया है. मुसलमानों द्वारा मुलायम जैसे लोगों को मसीहा समझने की, इस तर्क की जड़ें कुरेदने की आवश्यकता है. दरअसल ये तर्क बड़ा पुराना है और कभी कभी ये रामबाण की तरह काम करता है. लेकिन ये रामबाण किसके हाथ में और इसके निशाने पर कौन है ये जानना भी ज़रुरी है. सच्चाई ये है कि मुसलमान चाहे मुलायम को अपना मसीहा माने या मोदी को, राहुल को माने या बहन जी को, इस तर्क को नाम बदल बदल कर पहले भी इस्तेमाल किया गया है और आइन्दा भी किया जायगा, क्योंकि ये तर्क प्रतिक्रिया में नहीं बल्कि सोच समझ कर क्रियात्मक तरीके से बनाया गया है.

खौफ की राजनीती के दूसरे पहलू से जिसमें मुसलमान भारत के लिए एक खतरा हैं. वहां ये कहना बहुत ज़रूरी है कि मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण हो रहा है, क्योंकि ये कहने से दुसरे पक्ष में ध्रुवीकरण का बहाना मिलता है. चाहे दोनों ही तरफ ध्रुवीकरण सिरे से मौजूद ही न हो. 2012 का चुनाव खुद गवाह है. मायावती ने मुसलमानों पर आरोप लगाया कि मुसलमानों ने बसपा को वोट नहीं दिया, लेकिन ज़मीनी हकीकत ये थी कि मायावती के दलित वोट बैंक में बड़ी सेंध लग चुकी थी, क्योंकि मायावती की दलित राजनीति पर एक ख़ास वर्ग का वर्चस्व हो चूका था जिसमें पूरब और मध्य उत्तर प्रदेश के दलितों के लिए कोई अवसर नहीं था, सीतापुर इसकी एक मिसाल है.

मुसलमानों की समस्या ये है कि मुसलमानों के सामने राजनीती में बहुत कम विकल्प हैं और मुस्लिम नेतृत्व चाहे वो सक्रीय राजनीति में हो या मदरसों और तंजीमों में हो, पूरी तरह फेल हो चूका है. मुस्लिम मतदाता में ख़ास तौर पर मुस्लिम नौजवानों में इसकी हताशा साफ़ देखी जा सकती है. मुस्लिम नेतृत्व की राजनितिक समझ मस्जिद, मदरसा, कब्रिस्तान और वक्फ से आगे नहीं बढ़ी है जिसका सीधा फायदा राजनितिक पार्टियों को मिल रहा है जिनके लिए मदरसे और मस्जिद की राजनीति में देने के लिए बहुत कुछ है.

मुख्य मुद्दों में मुसलमानों की देश के आर्थिक विकास में बराबर की साझेदारी, प्रशासनिक इदारों में उनकी हिस्सेदारी और सुरक्षा और कूटनीति में देश के सभी वर्गों की समझदारी को मौका देना कठिन काम है, जिसमें मुस्लिम हितों को पेश करने में मदरसों और कब्रिस्तानों वाला मुस्लिम नेतृत्व फेल हो चूका है. ऐसे में अगर मुस्लिम मतदाताओं में नरेंद्र मोदी की तरफ झुकाव नज़र आये तो कोई हैरत नहीं होनी चाहिए. मुस्लिम समाज खुद को और अपनी समस्याओं को तमाशा बनने से रोक नहीं पा रहे हैं. ये इनकी सबसे बड़ी नाकामी है.

आरक्षण, बेगुनाहों की गिरफ्तारी, दंगे, शिक्षा, स्वास्थ समेत ऐसा कोई मैदान नहीं है जिसमें मुस्लिम नेतृत्व सरकार को कुछ करने पर मजबूर कर सकी हो, लेकिन सरकार ने और उसकी राजनितिक पार्टियों ने इन समस्याओं का तमाशा बनाने में और इसके बहाने बहुसंख्यक आबादी को जायज़ मांगों के खिलाफ खड़ा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है, चाहे ये उत्तर प्रदेश में बाबरी मस्जिद मामले में सरकारी मुक़दमें का मामला हो या आंध्र प्रदेश में आरक्षण का. मुस्लिम नेतृत्व ये समझने में नाकाम रहा है कि राजनितिक पार्टियाँ मुसलमानों के लिए दोहरी पॉलिसी चल रही हैं. वो बंद कमरों में मुस्लिम नेताओं से जो वादा करते हैं, उन वादों पर अपनी ही पार्टी के लोगों की सहमती बनाने की कोई कोशिश नहीं करते बल्कि वो उन मांगों का इस्तेमाल पार्टी में संतुलन साधने के लिए करते हैं.

सच्चर कमिटी की सिफारिशों को लागू करने में सबसे ज्यादा रुकावट कहीं और नहीं बल्कि खुद राजनितिक पार्टियों के अन्दर मौजूद असहमति है. कुछ यही हाल सम्प्रदायिक हिंसा की रोकथाम के लिए बिल का मामला है. सभी राजनीतिक पार्टियों के अन्दर मुस्लिम विधायकों और सांसदों की हैसियत सिर्फ इतनी है कि वो अपने व्यक्तिगत हितों को सुनिश्चित कर सकें, और उन्हें वक्फ, कब्रिस्तान, मदरसे, हज के मामले सौंप कर उन्हें आन्तरिक सुरक्षा, प्रशासनिक इकाइयों में लंबित मुस्लिम समस्याओं, न्याय और अधिकार के सभी फैसलों में मुसलमानों के हितों की नुमाइंदिगी से दूर रखना है, जिसका नतीजा ये है कि आप मुस्लिम क्षेत्रों में सर्वे कराकर पूछ लीजिये की क्या वो देश के गृह मंत्रालय पर भरोसा करते हैं? क्या वो पुलिस और प्रशासन पर भरोसा करते हैं? इसका जवाब नहीं में मिलेगा.

देश में वोटों के ध्रुवीकरण के लिए आसान नुस्खे हैं, जिसका इस्तेमाल आज़ादी के बाद से ही किया जा रहा है. कहीं ये मुस्लिम-हिन्दू है और कहीं पिछड़ा-अगड़ा, कहीं अशरफ और पसमांदा के बीच में, लेकिन इसे एक राष्ट्रीय विचारधारा और सुरक्षा सम्बन्धी नीति निर्माण में इसका इस्तेमाल मात्र हिन्दू-मुस्लिम के सन्दर्भ में किया जाता है. मुसलमान आ जायंगे तो क्या होगा? कोई मुस्लिम अधिकारी सुरक्षा सलाहकार बन गया तो क्या होगा? कोई मुस्लिम युवक का ख़ुफ़िया विभाग में भरती हो गया तो क्या होगा? पुलिस अधिकारी बन गया तो क्या होगा? फ़ौज में अधिकारी हो गया हो तो क्या होगा? आप मानो या न मानों, आप इसे पब्लिक में बहस का मुद्दा बनाओ या न बनाओ, लेकिन आशंकाओं के ये सवाल हर विभाग के आला अधिकारियों के दिमागों में भरे रहते हैं.

क्या कांग्रेस ने इस आशंकित प्राशासनिक व्यवस्था को सुधारने के लिए प्रयत्न किये. उससे भी ज़रुरी ये जानना है कि क्या वो चाह कर भी ऐसा कर सकती थी. शायद नहीं, क्योंकि राजनितिक पार्टी और उनकी सरकारों की एक हद होती है. राहुल गांधी या मुलायम सिंह चाह कर भी इस व्यवस्था को रातो रात बदल नहीं सकते. कांग्रेस ने गुजरात में नरम हिंदुत्व की राह पकड़ी. सबसे ज्यादा फर्जी एनकाउंटर और मुस्लिम नौजवानों की गिरफ्तारी कांग्रेस शासित प्रदेशों हुई हैं. सबसे ज्यादा दंगे गैर भाजपाई सरकारों में हुए हैं. नौकरियों में भेदभाव, मुस्लिम इलाकों में पुराने पेशों की समाप्ति, स्कूलों से ज्यादा पुलिस चौकी खोलने का काम गैर भाजपाई सरकारों में हुआ है. और तो और देश में सबसे बदतर हालत के मुसलमान पश्चिमी बंगाल में हैं जिनको इस हालत में पहुंचाने का काम कथित सामाजिक न्याय के अलंबरदारों ने किया. मुसलमानों की बर्बादी के लिए और उनको ख़त्म करने के लिए नरेंद्र मोदी इससे बुरा अब और क्या कर सकते हैं? ये सब कांग्रेस पर इलज़ाम नहीं है बल्कि उनसे सवाल है कि मुस्लिम विरोधी प्रशासनिक व्यवस्था का खात्मा करने के लिए उनके पास किया योजना है. लचर न्यायिक व्यवस्था के सबसे ज्यादा पीड़ित मुसलमान और दलित हैं, पुलिस प्रताड़ना के सबसे आसान शिकार दलित और मुसलमान हैं, जेलों में रौनक इनके दम से हैं,

नरेंद्र मोदी मुसलमानों के लिए उससे बुरा अब कुछ नहीं कर सकते, जितना बुरा वो खुद पहले और गैर भाजपाई सरकारे 60 सालों में कर चुकी हैं. अब वो जो कुछ भी बुरा करेंगे तो उसका शिकार सिर्फ मुसलमान नहीं बल्कि सारे वर्ग के लोग होंगे. विकास के जिस झंडे को लेकर वो आगे बढ़ रहे हैं उससे कांग्रेस को आपति नहीं होनी चाहिए. लेकिन न्याय और अधिकार के सवालों पर दोनों ही कैम्पों में ख़ामोशी है. अगर नरेंद्र मोदी गुजरात में सत्ता के बल पर न्याय को हाइजैक करने में सफल रहे हैं तो महराष्ट्र में कांग्रेस सरकार श्री कृष्णा आयोग की रिपोर्ट को दसियों साल से दबाये बैठी है. क्या फर्क है न्याय और अधिकार के मुद्दे पर राहुल और मोदी के नामों में?

मुसलमानों की राजनीति को मस्जिद मदरसा और कब्रिस्तान में दफ़न करदेने वाले मौलानाओं से पूछना चाहिए कि सच्चर कमिटी की सिफारिशों पर केंद्र सरकार की बेईमानी और मुलायम सिंह की बेवफाई पर वो चुप क्यों बैठे हैं? इसलिए कथित सेक्युलर राजनितिक पार्टियों की नाकामी, मुस्लिम नेतृत्व की नाकामी के बीच मुस्लिम मतदाताओं को डरा करा अपने अपने खेमें में वापस लाना सबसे ज़रूरी काम हो गया है. अपनी अपनी नाकामी को बहस के दायरे से निकाल कर मोदी के भूत को पीटने के लिए भीड़ जमा करने का काम किया जा रहा है. लेकिन क्या नरेंद मोदी भी मुसलमानों की उम्मीदों का जवाब दे सकते हैं? ये इसलिए बहुत मुश्किल है, क्योंकि वो अपने वैचारिक घेरे को तोड़ने की हिम्मत नहीं रखते. वो एक डरे हुए इंसान हैं और डरा हुआ इंसान सत्ता को अपनी सुरक्षा के लिए इस्तेमाल करने में कभी हिचकिचाता नहीं है.

राहुल गांधी के लिए ये एक अवसर भी है और चुनौती भी. उन्हें अपनी ही पार्टी के सियारों से लड़ना होगा जिन्होंने नौ सालों से अल्पसंख्यकों के अहम् मुद्दों पर सिर्फ तमाशा किया है. उन्हें साफ़ करना होगा कि उनकी पार्टी मुसलमानों को देश में उनका जायज़ हक़ देने डरती नहीं है. उन्हें ये साबित करना है कि संविधान और न्याय उनके लिए किसी भी धर्म और हित से ऊपर हैं, और इसकी शुरुआत उन्हें कांग्रेस शासित राज्यों से ही करनी होगी. ये मिथक तोडना होगा कि कांग्रेस फुटकर में मारती है और भाजपा थोक में, काम दोनों के एक ही नाम में क्या रखा है…

(लेखक जवाहरलाल नेहरु विद्यालय में पश्चिमी एशिया केंद्र से सम्बंधित हैं, उनसे omairanas@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)  

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