Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines
सहाफी (पत्रकार) का एक ही मज़हब होता है. और वो उसकी क़लम से ताल्लुक़ रखता है. मगर मज़हबी अंधेपन के इस दौर में सहाफ़त (पत्रकारिता) के मायने भी बदल गए हैं. बिहार के लखीसराय ज़िला की एक घटना ने खबरनवीसी (पत्रकारिता) के नाम पर मज़हबी दुकानदारी बुलंद करने वाली एक तथाकथित ‘मेन स्ट्रीम’ मीडिया के मुंह से नक़ाब नोच दिया है.
शनिवार को लखीसराय शहर के नया बाज़ार इलाके से हैरान करने वाली ख़बर आई, जिसके मुताबिक पाकिस्तानी दहशतगर्दों के चार मददगारों को लखीसराय पुलिस ने गिरफ्तार किया, जिनके नाम गोपाल कुमार गोयल, गणेश प्रसाद, पवन कुमार व विकास कुमार है. इनके पास से गिरफ्तारी के बाद बगैर नम्बर की स्कोर्पियो गाड़ी, 7 मोबाईल फोन, 20 एटीएम कार्ड, 10 सिम कार्ड और दो दर्जन से अधिक पासबुक जब्त किया गया है. गोपाल गोयल ने एक सनसनीखेज़ खबर का पर्दाफाश करते हुए बताया कि ‘वो पाकिस्तान में बैठे अपने आका के आदेश पर बैंकों के ज़रिए रूपये भेजने का काम करता था.’ इन चारों कथित आतंकियों को 14 दिनों के न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया.
इस मामले में खुद लखीसराय के डीएसपी सुबोध कुमार बिस्वास ने मीडिया से बताया कि ‘ये लोग पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के सम्पर्क में थे और इन्हें पाकिस्तान से मोटी रक़म भेजी जाती थी और इन पैसों का उपयोग युवाओं को अपने जाल में फंसाने के लिए करते थे.’ यह मामला कितना गंभीर है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले तीन महीने में पाकिस्तान से एक करोड़ रूपये का ट्रांजेक्शन किया गया है. लखीसराय के डीएसपी का कहना है कि बैंकों में पाकिस्तान से पैसे दिये जाने के बाद इसकी सूचना एसएमएस के ज़रिये गोपाल गोयल को दी जाती थी, जिसमें इस बात का उल्लेख किया जाता था कि कितने पैसे किसे पहुंचाना है. पुलिस का यह भी कहना है कि पाकिस्तान से इस अवैध लेन-देन का खेल कई वर्षों से चल रहा है. पुलिस सूत्रों का यह भी मानना है कि पटना ब्लास्ट में इन पैसों के उपयोग से इनकार नहीं किया जा सकता…
मगर इससे भी बड़ी हैरान करने वाली घटना यह रही कि देश के किसी भी बड़े हिन्दी व अंग्रेज़ी भाषा के अखबारों (एक-दो को छोड़कर) या फिर टीवी चैनलों ने इसे छापने या चलाने की ज़हमत तक नहीं उठाई, या यूं कह लें कि इस बारे में सोचा तक नहीं.
अब आप कल्पना कीजिए कि अगर यूपी के आज़मगढ़, बिहार के दरभंगा या कर्नाटक भटकल से इस तरह की कोई गिरफ्तारी होती, जिसमें आरोपियों के नाम के साथ एक मज़हब विशेष पहचान जुड़ी होती तो यही मीडिया क्या करता? क्या यही मीडिया अखबारों के पहले पेज़ से लेकर अंतिम पेज़ तक एक ही दिन में इस मामले के साथ-साथ आरोपियों के सात पुश्तों का बायोडाटा न निकाल देता? या फिर चैनलों के प्राईम टाईम पर रंगे-पूते एंकर शेर के मानिन्द गरजते हुए कम से कम हज़ार बार देश की सुरक्षा के पूरी तरह खतरे में होने का शोर न मचा चुके होते?
समय सोचने का है. इससे पहले कि गुनाह और बेगुनाही के बीच खड़ी की जा रही मज़हब की दीवार पर नफ़रत के सीमेंट की कुछ और परतें चढ़ा दी जाएं…