मेवात का शानदार इतिहास: फिर भी हम पिछड़े क्यों?

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Anjum Khan for BeyondHeadlines

बात सन् 1857 की है. आज़ादी की लड़ाई में मेवात के बहादुरों ने मुल्क को फिरंगियों से आजाद कराने के लिए अपनी जान की बाज़ी लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. फिरंगियों ने मेवात के तकरीबन सौ गांवों को जला कर राख कर दिया  और 1085 लोगों को फांसी पर चढ़ा दिया. उस समय मेवात गुड़गांव जिले का हिस्सा था.

1939 मील दूरी में बसे इस गुड़गांव की जनसंख्या 6 लाख 62 हजार 500 थी, जिसमें मेवात के मेव समाज के लोगों की संख्या एक लाख दस हजार चार सौ से अधिक थी. जिले में दक्षिण का बड़ा हिस्सा मेवात कहलाता था. दरअसल, हमारा मेवात चारों तरफ से अंग्रेजी रिसायतों से घिरा हुआ था. फिर भी मेवों ने कभी हिम्मत नहीं हारी. हर एक जंग में बहादुरी  की छाप छोड़ी.

इतना ही नहीं. रायसीना गांव में मेवों ने अंग्रेजों से न सिर्फ कांटों की बाड़ खुदवाई, बल्कि अंग्रेज अफसरों व सिपाहियों के सर क़लम कर चौपाल की सीढ़ियों में दफनाएं. क्रांति की नाकामी के बाद अंग्रेजों ने ऐसे गांवों को भयानक सजाएं दी. अंग्रेजों ने रायसीना व आस-पास के गांव नूनेहरा, मुहम्मदपुर, सांपकी नंगली, हरियाहेडा, बाईकी और हिरमथला की ज़मीन  को अपने भक्तों को इनाम के तौर पर  दे दिए, जिसकी तारीफ़ अंग्रेज सेना के अफसरों  ने भी की है.

अधिकारी लार्ड केनिंग एक जगह लिखते हैं कि “मेव समाज ने मुस्लिम बादशाहों को भी तंग किया था और हमें तो बहुत अधिक परेशान किया है. मेवाती किसानों की धाड़ ने तलवार, बल्लम, बंदूकों और लाठियों से जिस जंग की कामयाबी की पहचान दी. उससे अंग्रेज भी हैरान थे. इस गदर में मेवाती क्रांतिकारियों ने सोहना, घासेडा नूंह, फिरोजपुर झिरका, रुपडाका, पिनगंवा तथा तावडू को अपनी कामयाबियों के बारे में मशवरों का अड्डा बनाया. जहां से वो न सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ जंग लड़ते थे, बल्कि दिल्ली के क्रांतिकारियों के लिए भी सैनिक और माली मदद भेजते थे. अल्प खां रायसीना व सदरुद्दीन पिनगंवा ने इस संग्राम में मेवों की हौसला-अफ़जाई  की. रायसीना गांव में लोगों ने अंग्रेजों को बैल की जगह गहाटे में जोड़कर उनसे कांटेदार बाड़ खुदवाई.

शायद यही कारण था कि दिल्ली पतन के बाद सुकून क़ायम करने के बहाने अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों को कुचलने के लिए भारी जुल्म ढाये. नूंह में खैरूगाह नाम खानजादे की शिकायत पर अंग्रेजों के ज़रिये  नूंह, अडबर व शाहपुर नंगली के 52 लोगों को फांसी दी गई. इन शहीदों में चार अडबर के, बारह शाहपुर नंगली व बाकी नूंह के रहने वाले मेव शामिल थे. ये फांसी आज के पुराने बस स्टैंड के पास एक बरगद के पेड के नीचे दी गई. इस समय मेवली गांव के चौधरी मेदा ने बीच में आकर लोगों को अंग्रेजों के जुल्म से छुडाया था. इसी तरह तावडू में भी तीस लोग शहीद हुए.

इसके अलावा फिरोजपुर झिरका में 11, नुहू में  42 लोगों को फांसी दी गई. गांव दोहा, रुपडाका सहित कई जगहों पर सैकड़ों लोगों को फांसी पर चढ़ा कर मौत के मुंह में डाल दिया गया. इस ग़दर के दौरान पचानका, गोहपुर, मालपुरी, चिगी, उटावड़, कोट, मूगला, मीठाका, खिगूका, गुराकसर, मालूका और झांडा के चार सौ लोग फिरंगी सेना से जंग  करते हुए देश के खातिर शहादत हासिल कर गए. इन शहीदों की याद में नूंह में शहीदी पार्क, फिरोजपुर डिारका, दोहा व रूपडाका में शहीद मीनार सहित 11 मीनारें बनाई गई है, ताकि आने वाली पीढ़ी देश पर मर मिटने वाले शहीदों को याद रख सके.

इतना ही नहीं इतिहासकार सद्दीक अहमद मेव ने जंग -ए -आजादी 1857 में  मेवातियों की मदद की. मेवात की खोज व तहजीब सहित कई किताबें लिखी हैं. जिनमें मेवात के शहीदों की खूबियों को बहुत ही खूबसूरती से बयान किया गया है.

ज़रा सोचिए! जिस मेव समाज का इतना ज़बरदस्त इतिहास है. आज हमारा वही मेव समाज कहां पहुंच गया है. आजादी के 65 सालों बाद भी हमारा समाज उसी अशिक्षिता, बेरोज़गारी, पिछडापन, गरीबी और अंधविश्वासों के हालात  में अपनी जिंदगी बसर कर रहा है, जो हालात आज़ादी के पहले थे. बल्कि सच्चाई तो यह है कि आज के हालात उस समय से भी बदतर हैं.

और शायद इन सबके लिए ज़िम्मेदार हम ही हैं. हमारे समाज का विकास तब ही संभव हैं, जब हमारे मेव समाज के लोग पुराने विचारों को छोड़कर नए सिरे से जिंदगी जीना शुरू करेंगें.  विकास तब ही मुमकिन होगा जब हम अपने समाज के बच्चों को दर-दर भटकने देने के बजाये उन्हें तालीम हासिल करने के मक़सद से स्कूलों में भेजेंगे.

और हाँ! विकास सरकार के ज़रिये भी तब ही माना जायेगा जब हमारे इलाके के हर गांव में स्कूल खोले जायेंगे और हर बच्चा सुबह-सुबह मजदूरी पर जाने के बजाये स्कूल जाता हुआ नज़र आएगा. और ये सब तब ही मुमकिन होगा,   जब हमारे समाज को चलाने वाले नेता हमारे समाज के भोले व अशिक्षित लोगों को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करना छोड़कर उनकी तरफ इंसानियत की निगाहों से देखना शुरू करेंगे. और उनके हक़ उन तक सही मायनों में पहुचाना शुरू करेंगे, या फिर हमारे समाज को ही अपने  अंदर अपने लिए कोई काबिल रहनुमा तलाशना होगा.

हमारे समाज के लोगों के भोलेपन और मासूमियत का आलम तो ये है कि अगर आज हमारे समाज के लोगों को कोई मामूली सा काम भी सरकार करते हुए नज़र आती है तो वो उसको अपना हक़ समझने के बजाये उनका एहसान समझते हैं. और बिना सोचे-समझे उनका एहसानमंद होने के नाते अपना अगला कौमी रहनुमा फिर से उसे ही चुन बैठते हैं. और भोलेपन का तो आलम यह है कि पूरे साल किसान बनकर खेत खलयान में काम करते हैं. और अपने घर का खर्च आस-पास के कस्बों में रहने वाले बनियों से क़र्ज़ लेकर चलाते हैं और साल के आखिर में जो पैसा खेतों से  मिलता है वो बनिया का क़र्ज़ अदा में ही निकल जाता है.

(लेखिका टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइन्सेज़, मुंबई  में अध्यनरत हैं.)                                                                                                                                                                                                                                   

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